ओनिका माहेश्वरी/ नई दिल्ली
प्रयागराज की समृद्ध गंगा-जमुनी तहज़ीब की मिसाल पेश करते हुए, चार मुस्लिम महिलाएँ वर्षों से रामलीला के लिए जटिल पोशाकें सिल रही हैं. कुशल हाथों और समर्पित समर्पण से, वे भगवान राम, देवी सीता और राक्षस राजा रावण को जीवंत कर रहीं हैं. अयोध्या की रामलीला भारत का एक लोकप्रिय और भव्य आयोजन है, जो धार्मिक आस्था और सांस्कृतिक उत्सव का अनोखा संगम प्रस्तुत करता है. राम मंदिर निर्माण के बाद इसका महत्व और भी बढ़ गया है, और इस वर्ष की रामलीला का शुभारंभ भी सांस्कृतिक सौहार्द और समरसता के साथ हुआ है, जहाँ गंगा-जमुनी तहज़ीब की मिसाल पेश करते हुए मुस्लिम समुदाय के टेलर श्रद्धा और समर्पण से रामलीला की वेशभूषाएँ तैयार कर रहे हैं.
भारत की संस्कृति की खूबसूरती उसकी विविधता और परस्पर मेल-मिलाप में छिपी है. यही कारण है कि हमारी परंपराएँ और त्यौहार केवल धार्मिक अनुष्ठानों तक सीमित नहीं रहते, बल्कि सामाजिक एकता और सांप्रदायिक सौहार्द का प्रतीक भी बन जाते हैं. प्रयागराज की गलियों में इसी गंगा-जमुनी तहज़ीब का एक अद्भुत उदाहरण देखने को मिलता है, जहाँ मुस्लिम महिलाएँ वर्षों से रामलीला के लिए जटिल और आकर्षक वेशभूषाएँ तैयार कर रही हैं.
पिछले आठ-नौ वर्षों से शम्मो, मुमताज रिज़वी, शन्नो उर्फ़ तन्नो और नसरीन अपने हुनर और समर्पण के साथ रामलीला की पोशाकें सिल रही हैं. इनके बनाए परिधान भगवान राम, माता सीता, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न से लेकर रावण और कुंभकरण जैसे पात्रों को जीवंत रूप प्रदान करते हैं. ये महिलाएँ न केवल सिलाई-कढ़ाई का काम करती हैं, बल्कि हर पोशाक में कला और आध्यात्मिकता का समावेश भी करती हैं.
साधारण सिलाई नहीं, एक अनोखी साधना
रामलीला के लिए पोशाकें बनाना किसी भी सामान्य कपड़े की सिलाई जैसा नहीं होता. इसके लिए विशेष समझ और कलात्मक दृष्टि की आवश्यकता होती है. दिव्य युगल की साधारण वनवासी वेशभूषा से लेकर राक्षस राजा रावण की भव्य, चमकदार पोशाक तक—हर सिलाई में गहरी संवेदनशीलता और श्रद्धा झलकती है.
इन कुशल कारीगरों का कहना है कि उनके लिए रामलीला की वेशभूषा तैयार करना केवल आजीविका का साधन नहीं है, बल्कि यह उनके दिल की पूजा है. शन्नो, जो भगवान राम, लक्ष्मण और सीता की पोशाकें सिलती हैं, कहती हैं—“मानवता और एकता धर्म से कहीं ऊपर हैं. यह काम मेरे लिए ईश्वर की सेवा जैसा है.”
कला के पीछे छिपा जुनून और लगन
इन महिलाओं के हाथों से निकलने वाले हर परिधान में केवल धागे और कपड़े नहीं, बल्कि भावनाओं की गहराई भी बुन दी जाती है. हर परिधान का रंग, डिज़ाइन और कढ़ाई इस बात की ओर इशारा करती है कि वे न केवल कला से परिचित हैं, बल्कि पात्रों के स्वभाव और उनकी कथाओं की गहरी समझ भी रखती हैं.
भगवान राम की पीली रेशमी पोशाक, सीता की सौम्य वेशभूषा, लक्ष्मण और भरत की राजकुमारों वाली सादगी से भरी पोशाकें—सभी उनकी कल्पना और कौशल के संगम का प्रतीक हैं. वहीं रावण और कुंभकरण की पोशाकें उनकी कलात्मक दृष्टि और बारीकी पर ध्यान देने की क्षमता को दर्शाती हैं.
सांप्रदायिक सौहार्द का ज्वलंत उदाहरण
इस कार्य में शम्मो, मुमताज, शन्नो और नसरीन के साथ मोहम्मद नईम और सगुफ्ता भी जुड़ते हैं. यह सामूहिक प्रयास इस बात का सशक्त प्रमाण है कि कला और संस्कृति किसी धर्म की बंधन में नहीं बंधती. इनके काम से निकलने वाला संदेश साफ़ है—“हम सब इंसान पहले हैं, धर्म बाद में.”
कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर और सप्लायर राजेश चौरसिया का कहना है—“ये मुस्लिम महिलाएँ पिछले आठ-नौ सालों से रामलीला के पात्रों की वेशभूषा बना रही हैं. इनका काम इतना उत्कृष्ट है कि अब ये शहर में आयोजित होने वाली लगभग हर रामलीला का अभिन्न हिस्सा बन चुकी हैं. आयोजक भी इनकी कड़ी मेहनत और समर्पण की प्रशंसा करते हैं.”
एकता का संदेश
रामलीला की वेशभूषाएँ तैयार करने वाली ये महिलाएँ जब मंच पर अपने बनाए परिधानों को पात्रों पर सजते हुए देखती हैं, तो उनके लिए यह गर्व और आनंद का क्षण होता है. दर्शक जब भगवान राम, सीता, दशरथ, वशिष्ठ या रावण को भव्य रूप में देखते हैं तो उसके पीछे इन महिलाओं की मेहनत और जुनून भी छिपा होता है.
यह परंपरा केवल धार्मिक उत्सव तक सीमित नहीं है, बल्कि यह समाज में एकता, भाईचारा और सांप्रदायिक सद्भाव का जीवंत संदेश देती है. यह बताती है कि भारत की वास्तविक ताक़त उसकी विविधता में निहित है.
प्रयागराज की ये मुस्लिम महिलाएँ इस बात का प्रमाण हैं कि संस्कृति और परंपरा किसी एक समुदाय की नहीं, बल्कि पूरे समाज की धरोहर होती हैं. उनके बनाए परिधान रामलीला के मंच पर केवल पात्रों को ही नहीं, बल्कि इंसानियत, भाईचारे और प्रेम को भी जीवंत कर देते हैं.
रामलीला की वेशभूषाएँ तैयार करने का यह कार्य इन महिलाओं के लिए केवल एक पेशा नहीं, बल्कि श्रद्धा और समर्पण की साधना है. उनके कुशल हाथों से तैयार हर परिधान उस अनोखे भारत की झलक दिखाता है, जहाँ विविधता ही एकता है और जहाँ गंगा-जमुनी तहज़ीब हमारी असली पहचान है.
भारत में रामलीला का "क्रेज़" या उत्साह, विशेष रूप से शरद ऋतु में दशहरा उत्सव के दौरान, रामायण के मंचन का एक पारंपरिक रूप है जिसमें गीत, नृत्य और संवाद शामिल होते हैं, और यह सिर्फ एक धार्मिक कार्य ही नहीं बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक आयोजन भी है जो बड़े पैमाने पर लोगों की भागीदारी और व्यावसायिक गतिविधियों को आकर्षित करता है. इस दौरान विभिन्न शहरों में लाखों लोग रामलीला देखने आते हैं, और इसमें अक्सर राजनेता, बॉलीवुड सितारे और बड़े व्यापारिक घराने भी जुड़ते हैं, जिससे यह एक बड़ा उत्सव और व्यवसाय बन जाता है.
सौजन्य: टाइम्स ऑफ इंडिया