अजमेर की देगें: जहां उबलते खाने के साथ देखने को मिलती है हिंदू–मुस्लिम एकता
अर्सला खान/नई दिल्ली
अजमेर शरीफ़ की दरगाह सिर्फ आस्था का केंद्र नहीं है, बल्कि यह वह आध्यात्मिक धरा है जहाँ इंसानियत, बराबरी और भाईचारे की खुशबू हर पल फैलती रहती है। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती रहमतुल्लाह अलैह की यह दरगाह सदियों से आध्यात्मिक ऊर्जा के साथ-साथ सामाजिक समरसता की भी सबसे बड़ी मिसाल मानी जाती है। इस पवित्र स्थल पर रखी बड़ी और छोटी देगें सिर्फ लोहे या तांबे की बर्तन नहीं, बल्कि हिंदू–मुस्लिम एकता की ऐसी परंपरा का प्रतीक हैं जिसे हर दर्शनार्थी श्रद्धा से निहारता है।
देग की परंपरा: जहां खाना नहीं, मोहब्बत पकती है
अजमेर दरगाह में दो बड़ी और दो छोटी देगें रखी हैं, इतनी विशाल कि उनमें एक बार में सैकड़ों लोगों का खाना तैयार हो जाता है। इनमें बनने वाला खिचड़ा और पुलाव केवल भोजन नहीं होता, बल्कि वक़्त और इतिहास के साथ पका हुआ एक संदेश होता है, समता का, समावेश का और इंसानियत की साझा विरासत का। इन देगों में चढ़ने वाली हर नज़र, हर चढ़ावा, हर दुआ एक बात याद दिलाती है कि ख्वाजा साहब की दरगाह में प्रवेश करने वाला हर इंसान बराबर है, चाहे उसका धर्म, जाति, भाषा या देश कुछ भी हो।
जब देग चढ़ती है, धर्म का भेद मिट जाता है
अजमेर की देगों में खाना पकाने की रस्में किसी एक धर्म तक सीमित नहीं। दिलचस्प बात यह है कि देग में पकने वाला भोजन तैयार करने में हिंदू, मुस्लिम, सिख, दलित—सभी समुदायों के लोग बराबर हिस्सेदारी निभाते हैं। देग चढ़ाने के लिए सामग्री चाहे जिस धर्म का व्यक्ति लाए, उसके स्वीकार होने में कभी भेदभाव नहीं होता। दरगाह में एक मुहावरा मशहूर है “देग ख्वाजा की, सेवा सबकी।”
यही वजह है कि देग चढ़ने के वक्त अगर कोई हिंदू परिवार मन्नत लेकर आता है, तो मुस्लिम खिदमतगार उसे उतनी ही श्रद्धा से स्वीकारते हैं, जितनी कपड़े पहने हुए किसी मुस्लिम जायरीन की नीयत को। देग का यह मिलन-संस्कार एक मौन संदेश देता है: यहाँ मजहब दीवार नहीं, पुल है।
देग का बना हुआ खाना: सबके लिए एक समान
सबसे सुंदर दृश्य तब दिखाई देता है जब देग चढ़ने के बाद उसमें पकाया गया खाना दरगाह के आंगन में मौजूद हर इंसान में बाँटा जाता है। यहाँ कोई लाइन धर्म के आधार पर नहीं बनती, न ही किसी की थाली में कोई फर्क होता है। एक ही देग का खाना हिंदू की भी थाली में पड़ता है और मुस्लिम, सिख, ईसाई सबकी थाली में भी। कई बार देखा गया है कि एक परिवार हिंदू होता है और दूसरा मुस्लिम, पर देग का खाना खाने के बाद दोनों परिवार एक-दूसरे के बच्चों को पहले निवाला खिलाते हैं। यह वह दृश्य है जहाँ मजहब की सीमाएँ पिघल जाती हैं और केवल इंसानियत अपनी पूरी चमक में दिखाई देती है।
इतिहास गवाह: अकबर से आज तक चली आ रही परंपरा
देगों का इतिहास भी हिंदू–मुस्लिम एकता की कहानी कहता है। कहा जाता है कि बादशाह अकबर जब भी किसी मुहिम पर निकलते, तो पहले अजमेर शरीफ़ आकर देग चढ़ाते थे। उन्होंने ही दरगाह की सबसे बड़ी देग लगवाई थी। अकबर स्वयं दरगाह में नंगे पाँव चलते, हिंदू–मुस्लिम दोनों समुदायों के लोगों को साथ लेकर देग चढ़ाते और फिर सबमें खाना बाँटते थे। आज सदियाँ बीत चुकी हैं, पर यह परंपरा ज्यों की त्यों कायम है। अकबर की देग में पकने वाला खिचड़ा आज भी वक़्त के साथ-साथ भक्ति और भाईचारे की खुशबू समेटे हुए है।
देग की खुशबू में बसती है गंगा-जमुनी तहज़ीब
अजमेर की देगों में पकने वाले भोजन की सुगंध सिर्फ खाने की नहीं, बल्कि भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब की ख़ुशबू है। जब देग चढ़ने की रस्में होती हैं, तो कई हिंदू महिलाएँ अपने हाथों से हल्दी और चावल देती हैं, जबकि मुस्लिम खिदमतगार देग में चढ़ाने से पहले दुआ पढ़ते हैं। दोनों का योगदान अलग-अलग होते हुए भी एक ही मकसद से जुड़ा होता है—ख्वाजा साहब की बारगाह में सच्ची नीयत से हाज़िरी देना।
सिर्फ भोजन नहीं, संदेश भी मिलता है
देग का भोजन खाने वालों में गरीब, अमीर, हिंदू, मुस्लिम, सिख, दलित हर वर्ग के लोग शामिल होते हैं। देग में स्वाद अलग-अलग नहीं होता, लेकिन उसका संदेश हर व्यक्ति तक अलग तरीके से पहुंचता है, किसी के लिए यह मन्नत पूरी होने की खुशी है, किसी के लिए जीवन में नई शुरुआत की उम्मीद और किसी के लिए यह महसूस करने का अवसर कि इंसानियत हर मजहब से बड़ी है।
अजमेर शरीफ़: जहां दिल जुड़ते हैं, धर्म नहीं टकराते
दरगाह शरीफ़ के आँगन में देग के पास खड़े होकर जब लोग दुआ माँगते हैं, तो यह महसूस होता है कि ख्वाजा साहब की दरगाह में इंसानियत सबसे बड़ा धर्म है। यहाँ भाईचारा किसी किताब का अध्याय नहीं, बल्कि रोज़ जी जाने वाला अनुभव है। देग का खाना केवल पेट नहीं भरता, यह दिल भर देता है प्यार, सम्मान और एकता से।
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जमेर की देगें भारत की उस सुंदर परंपरा का जीता-जागता प्रतीक हैं जहाँ धर्म अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन दिलों की धड़कन एक ही सुर में मिलती है।
यहां खाना नहीं, मोहब्बत पकती है; बाँटी नहीं जाती, बल्कि बांहों में भर ली जाती है। अजमेर की देगें हमें याद दिलाती हैं, अगर इंसानियत की देग में मोहब्बत उबलने लगे, तो दुनिया की हर नफ़रत ठंडी पड़ जाएगी।