धमाके के सन्नाटे में इंसानियत की आवाज़,ताहिरा ने बदली मेरी सोच

Story by  ओनिका माहेश्वरी | Published by  onikamaheshwari | Date 02-12-2025
A true example of humanity – through the eyes of a journalist
A true example of humanity – through the eyes of a journalist

 

ओनिका माहेश्वरी की कलम से 

दिल्ली के दिल में, जब एक भीषण धमाके ने सन्नाटे का साम्राज्य स्थापित कर दिया था, और चारों ओर आतंक का माहौल था, मैं एक पत्रकार के तौर पर उस डर और घबराहट से भरे माहौल में रिपोर्टिंग करने के लिए भेजी गई थी। लेकिन उस दिन मुझे एक ऐसे अनुभव का सामना हुआ, जिसने मेरी सोच और दृष्टिकोण को हमेशा के लिए बदल दिया। एक मुस्लिम महिला, ताहिरा, की मदद से मैंने जाना कि धर्म, जाति और पहचान से ऊपर हमारी इंसानियत है, और यही हमें जोड़ता है। वह मुलाकात और उस महिला की बातों ने मुझे यह सिखाया कि असली ताकत नफरत में नहीं, बल्कि प्यार, समझ और शांति में होती है। 

दिल्ली के दिल में, जब सन्नाटे ने सब कुछ घेर लिया था, एक दिन ऐसा हुआ जिसे मैं कभी नहीं भूल पाऊँगी। उस दिन, लाल किला के पास एक भीषण धमाका हुआ था, और मैं, एक पत्रकार के तौर पर, उस घातक घटना को कवर करने के लिए भेजी गई थी। सच कहूँ, तो उस पल मेरे दिल में डर और घबराहट की लहर दौड़ रही थी। चारों ओर आतंक का माहौल था, और हर तरफ सिर्फ पुलिस और सुरक्षा बलों की गाड़ियाँ नजर आ रही थीं। सड़कों पर रुकावटें, बंद रास्ते, और कहीं भी कोई आवाज़ नहीं, सिवाय गश्त लगाते जवानों के। कुछ ऐसा था, जो मुझे अंदर से पूरी तरह से हिला रहा था।
 
 
यह वो इलाका था, जहां मैं पहले कभी नहीं गई थी, और वह भी एक मुस्लिम बहुल क्षेत्र। मेरी चुप्पी में एक असहजता थी, क्योंकि मुझे डर था—न केवल उस धमाके से, बल्कि यह भी कि लोग मुझे किस नजर से देखेंगे, मैं एक बाहरी थी, अनजानी। हर कदम पर मुझे लग रहा था कि मैं अजनबी हूँ, और शायद यह नफरत की जगह हो, जो मेरी आँखों से बाहर नहीं आ पा रही थी।
 
लेकिन फिर, चांदनी चौक की गहमागहमी में एक महिला मेरे पास आई। उसकी आँखों में एक गहरी शांति थी—जैसे वह पूरी दुनिया को समझती हो, और मुझे भी। उसकी मुस्कान में एक अपूर्व समझ थी, जैसे वह जानती हो कि मैं कितनी असहज और घबराई हुई हूं। वह महिला—ताहिरा—मुझे एक पल के लिए एहसास दिलाती है कि इस आतंक के बीच भी इंसानियत जिंदा है।
 
उसने मुझसे पूछा कि मैं कहाँ जा रही हूँ, और फिर उसने बिना किसी झिझक के कहा, "तुम मेरे साथ चलो, मैं तुम्हें उस रास्ते तक पहुँचाऊँगी, जहाँ से तुम्हें जाना है।" मुझे ऐसा लगा कि जैसे मेरी घबराहट कुछ कम हुई हो। वह सुनसान पतली गलियों में मेरे साथ चलने लगीं जहां सब लोग अपनी-अपनी दुकानों के सामने सामान बटोर रहे थे क्योंकि बाजार बंद की घोषणा हो चुकी थी, सब बंद था,  उन सभी की नजरें हमें एक अलग निगाह से देख रहीं थी जिसमें कई सवाल थे.
 
लोग हमें अजनबी नजरों से देख रहे थे, और बीच-बीच में कुछ आवाजें सुनाई देतीं, “मुसलमान ही तो हैं, जो इन धमाकों के लिए जिम्मेदार हैं।” इन शब्दों ने मेरे भीतर एक गहरी घबराहट को जन्म दिया, लेकिन ताहिरा, बिना किसी रुकावट के, मुझे साथ लेकर आगे बढ़ती रही।
 
ताहिरा ने मेरी चिंता को महसूस करते हुए कहा, “मैं चांदनी चौक में एक जूते की दुकान चलाती हूँ, अपने बेटे के साथ। इन बातों को दिल से मत लगाओ। मीडिया और समाज कभी-कभी धर्म के नाम पर नफरत फैलाते हैं, लेकिन तुम जानती हो, हम सब इंसान हैं।” उसकी आवाज़ में एक ऐसी सच्चाई थी, जो मेरे दिल को छू गई। उसकी बातों ने मुझे यह समझाया कि इन कट्टर शब्दों का कोई मतलब नहीं है। हम सब एक ही धरती पर, एक ही मानवता के साथ जी रहे हैं, फिर चाहे हमारी पहचान अलग हो, हमारे धर्म अलग हों।
 
 
 
वो महिला, ताहिरा, मुसलमान थी, और जब मैंने पूछा कि उसका नाम क्या है, तो उसने हंसते हुए जवाब दिया, “ताहिरा।” और उस एक नाम में मैंने महसूस किया कि धर्म, जाति, और पहचान के बीच की जो दीवारें होती हैं, वह सिर्फ एक समाज की बनाई हुई हैं। असल में, जो हमें जोड़ता है, वह हमारी इंसानियत है। हमारी एकता है।
 
उस दिन, जब मैंने ताहिरा के साथ वह रास्ता तय किया, मुझे समझ में आया कि एक दूसरे से डरने की बजाय, एक-दूसरे को समझना चाहिए। ताहिरा ने मुझे वह रास्ता दिखाया, जो केवल शारीरिक नहीं था, बल्कि मानसिक भी था—एक रास्ता था समझ, प्रेम और मानवता का।
 
वो दिन मेरे लिए हमेशा याद रहेगा। ताहिरा की मदद से मैंने यह महसूस किया कि हम सभी इंसान हैं—एकता, प्रेम, और शांति हमारी सबसे बड़ी ताकत है। यह महिला, जो अपने छोटे से जूते की दुकान में दिन-रात मेहनत करती थी, उसने मुझे यह सिखाया कि हम सभी का दिल एक ही तरह से धड़कता है, चाहे हम किसी भी धर्म के हों, हमारे भीतर एक ही सच्चाई होती है—इंसानियत।
 
मुझे अब यह एहसास हुआ कि समाज की बनाई गई सीमाओं के ऊपर हमारी मानवता है, जो हमें एक दूसरे से जोड़ती है। हम हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई—जो भी हों, हम सब एक हैं। यही हमारी असली ताकत है, और यही हमें किसी भी संकट से उबारने की शक्ति देती है।
 
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जब हम एक-दूसरे का हाथ थामते हैं, जब हम एक-दूसरे की मदद करते हैं, तो हम इंसानियत की असली मिसाल बनते हैं। ताहिरा ने मुझे यह सिखाया कि सबसे बड़ी ताकत नफरत में नहीं, बल्कि प्यार, समझ, और शांति में है। और यही वह चीज़ है, जो हमें इस दुनिया को एक बेहतर जगह बनाने की शक्ति देती है।
 
आज भी, जब उस दिन की याद आती है, तो दिल में बस एक ही ख्याल आता है—"हम हिंदू-मुसलमान, हम सभी एक हैं।"
 
(यदि आपके पास भी ऐसी साम्प्रदायिक सौहार्द या हिंदू-मुस्लिम दोस्ती वाली अपनी कहानी हो तो हमें [email protected] पर मेल कर दें। आवाज़ द वाॅयस में उसे प्रमुखता से छापा जाएगा।)