बहस-तलबः मुसलमान अधिक शादियां करते हैं, क्या कहते हैं आंकड़े?

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 03-12-2025
Debate-worthy: Muslims marry more often, what do the statistics say?
Debate-worthy: Muslims marry more often, what do the statistics say?

 

-मंजीत ठाकुर

आपने अपने अगल बगल या व्हॉट्सऐप मेसेज में एक बात बार बार सुनी होगी “मुसलमान तो चार-चार शादियाँ करते हैं.” इनके यहाँ तो चार शादियाँ करना आम बात है”… चाय की दुकान से लेकर टीवी डिबेट तक ये लाइनें आपने जाने कितनी बार सुनी होंगी. लेकिन सवाल ये है: क्या सचमुच भारत में मुसलमानों में बहुविवाह यानी बहुविवाह या एक से अधिक शादियां करने का चलन ज़्यादा है? या फिर यह भी एक बना-बनाया प्रोपेगैंडा है, जो सच से ज़्यादा हमारे पूर्वाग्रहों को दर्शाता है?

मुसलमानों की अधिक शादियां- तथ्य या धारणा?

मुसलमान समुदाय में लोग चार शादियां करते हैं, यह एक ऐसी बात है जिस पर चर्चा करना थोड़ा जज्बाती कर जाता है और लोग तथ्यों की बजाए बनी-बनाई धारणा का सहारा लेते हैं. सबसे पहले एक बेसिक बात साफ़ करते हैं. बहुविवाह यानी एक पुरुष की एक से अधिक पत्नियाँ, भारत में इस पर सबसे भरोसेमंद आंकड़ा कहाँ से मिलता है? यह आंकड़ा मिलता है नेशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस) से, जो सरकार की ओर से बड़े पैमाने पर कराया जाता है.

ताज़ा सर्वे यानी पांचवां नेशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे 2019–21में हुआ था और यह कहता है कि पूरे भारत में सिर्फ़ 1.4फीसद विवाहित महिलाओं ने कहा कि उनके पति की एक से ज़्यादा पत्नियाँ हैं. इसका सीधा अर्थ है कि सौ में से 98–99शादियाँ एक-पत्नी वाली हैं, सिर्फ़ 1–2में बहुविवाह दिखता है. 

इसका पहला नतीजा यही निकलता है कि भारत में बहुविवाह बहुत बड़ा चलन नहीं है, बल्कि बहुत छोटा और सिकुड़ता हुआ चलन है. दूसरा सवाल: ज्यादा शादियां या एक से अधिक शादियों का चलन मुसलमानों में ज़्यादा है क्या?

पांचवे नेशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे के आंकड़े बताते हैं कि देश में धर्म के हिसाब से मुसलमान सबसे अधिक बहुविवाह वाले समुदाय नहीं हैं.मुस्लिम महिलाओं में 1.9फीसद महिलाओं ने बताया कि उनके पति की दूसरी पत्नी भी है. हिंदू महिलाओं में यह प्रतिशत 1.3है. अन्य धर्मों यानी कई जनजातीय/स्थानीय परंपराएँ आदि में यह आंकड़ा करीब 1.6 फीसद है.

अब दो बातों पर ध्यान दीजिए: पहली बात, हिंदू और मुसलमानों में बहुविवाह की दर का अंतर बहुत छोटा है यानी 1.3फीसद बनाम 1.9फीसद. यानी हर सौ शादीशुदा मुस्लिम जोड़ों में शायद 2लोग दो या अधिक शादियां करते हैं और हिंदुओं में एक से डेढ़ के आसपास. दूसरी बात, हिंदू आबादी, मुस्लिम आबादी से लगभग 4–5गुना ज़्यादा है. तो सिर्फ संख्याओं के आधार पर देखें, तो एकाधिक विवाह करने वाले हिंदुओं की कुल संख्या, मुसलमानों से कम भी नहीं हो सकती. कई विश्लेषणों के मुताबिक़, ज़्यादा ही होती है. तो ये दावा कि देखो, मुसलमान तो चार-चार शादियाँ कर रहे हैं और हिंदू नहीं, आंकड़ों के सामने टिकता ही नहीं है.

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क्या पहले कभी मुसलमानों में बहुत ज़्यादा बहुविवाह का प्रचलन था?

तीसरा सवाल है: क्या पहले कभी मुसलमानों में बहुत ज़्यादा बहुविवाह का प्रचलन था? क्या हर मुसलमान मर्द दो-तीन या चार शादियां करता था? चलिए थोड़ा पीछे चलते हैं क्योंकि कई लोग कहते हैं, “पहले तो मुसलमानों में तो ये चलन बहुत ज्यादा था”.

1961की जनगणना वह आख़िरी जनगणना थी, जिसमें बहुविवाह के आंकड़े अलग से दर्ज किए गए थे. वहाँ से जो तस्वीर निकलती है, वह और भी चौंकाने वाली है: 1961के जनगणना का आंकड़ा कहता है कि आदिवासी समुदायों में बहुविवाह लगभग 15फीसद, बौद्ध समुदाय में करीब 7.9 फीसद, जैनों में करीब 6–7 फीसद, हिंदुओं में 5.8 फीसद और मुसलमानों में 5.7 फीसद था.

1961की जनगणना में मुसलमान एक से अधिक शादी करने वाले समुदायों की फेहरिस्त में सबसे पीछे थे, जी हां, हिंदुओं से भी थोड़ा कम. यानी इतिहास भी ये नहीं कहता कि “मुसलमान यूनीकली या बहुत ज़्यादा पॉलिगेमस थे”. यह चीज़ भारत में अलग-अलग धर्मों और समुदायों में दिखती थी  और सारे समुदायों में इसमें कमी होने का चलन साफ आंकड़ों में भी दिखता है.

असल में सबसे ज़्यादा बहविवाह किस समुदाय में है?

इस सवाल का जवाब एक बेहद अहम फैक्ट में छिपा है. एनएफएचएस के आंकड़े साबित करते हैं कि बहुविवाह धर्म से ज़्यादा क्षेत्र और समुदाय से जुड़ा है.जनजातीय समुदायों में बहविवाह का अनुपात सबसे ज़्यादा है –  एनएफएचएस-5में लगभग 2.4 फीसद. उत्तर-पूर्वी और जनजातीय इलाक़ों में परंपरागत तौर पर एक से ज़्यादा विवाह के मामले ज़्यादा मिलते हैं.

मुसलमानों में भी देखा जाए तो उनके समुदाय के राष्ट्रीय औसत के मुकाबले ओडिशा (3.9फीसद), बिहार (2.2फीसद), झारखंड (2.4फीसद), पश्चिम बंगाल (2.8फीसद), असम (3.6फीसद), कर्नाटक (2.6फीसद) में मुसलमानों में बहुविवाह का चलन अधिक दिखता है.

तो अगर सिर्फ़ इस सवाल पर कि ये लोग एक से ज्यादा शादियां करते हैं, इस किसी को टारगेट करना हो, तो निशाने पर मुसलमान तो नहीं होने चाहिए. फिर मुसलमानों के केस में ही ये शोर क्यों?

कानूनी ढांचा क्या है?

बहरहाल, अब थोड़ा कानूनी ढांचे की बात समझ लेते हैं, क्योंकि वहीं से अक्सर भ्रम शुरू होता है. हिंदू विवाह अधिनियम, 1955के बाद से हिंदू, बौद्ध, जैन, सिख सबके लिए बहुविवाह कानूनन अपराध है. ईसाई और पारसी समुदायों के लिए भी अलग कानूनों के ज़रिए बहुविवाह पर रोक है.

लेकिन धारणा और दृष्टिकोण वाली समस्या अब शुरू होती है क्योंकि मुसलमानों के लिए मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरिया) एप्लीकेशन एक्ट 1937के तहत, मुस्लिम पुरुष को अधिकतम चार निकाह की अनुमति है, लेकिन कुछ शर्तों के साथ. यहीं से ये धारणा बनती है कि “क्योंकि इन्हें कानूनी इजाज़त है है, इसलिए मुसलमान खूब शादियां करते हैं.”

लेकिन आंकड़े यह बता रहे हैं कि कानूनी अनुमति होने का मतलब बड़े पैमाने पर प्रचलन नहीं है. अधिकांश मुसलमान ज़िंदगी भर एक ही शादी करते हैं, ठीक वैसे ही जैसे अधिकांश हिंदू, सिख, ईसाई या कोई और. कानून का ढांचा और जमीनी हकीकत दोनों को अलग-अलग समझना ज़रूरी है.

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हेल्थ सर्वे से मिल रही दूसरी तस्वीरें क्या कहती हैं

एनएफएचएस-3 जो, 2005-06 में हुआ था उसके समय बहुविवाह का अनुपात ज़्यादा था. लगभग 2फीसद के आसपास; एनएफएचएस-5 यानी 2019-21के सर्वे के समय तक ये गिरकर 1.4 फीसद पर आ चुका है. और आपको जानकर हैरानी होगी कि 2005 के सर्वे के समय, एक से अधिक शादियां करने वाले समुदायों में बौद्ध सबसे आगे थे. उनका आंकड़ा था 3.8फीसद. उसी सर्वे में ईसाइयों में बहुविवाह का आंकड़ा था 2.4और मुसलमानों में 2.6फीसद.

एक से अधिक शादियां करने का मुसलमानों और हिंदुओं के बीच का फर्क भी समय के साथ कम होता गया  है. एनएफएचएस-3 में यह गैप ज़्यादा था. मुस्लिमों में बहुविवाह करीबन 2.6फीसद थी और हिंदुओं में करीबन 1.8फीसद. अब एनएफएचएस-5 तक यह अंतर बहुत छोटा रह गया है. मुस्लिमों में करीब 1.9फीसद ओर हिंदुओं में 1.3 फीसद.

आंकड़ों के लिहाज से एक और दिलचस्प बात. 2019 वाले सर्वे में बौद्धों में बहुविवाह घटकर 1.3 फीसद रह गई लेकिन ईसाइयों में यह चलन बहुत हल्का ही कम हुआ और 2.1 फीसद रहा. दिलचस्प यह भी है कि इसाइयों में 2016 वाले एनएफएचएस 4के सर्वे के बाद बहुविवाह यानी एक से अधिक शादी करने का चलन बढ़ा है. 2016 में इसाइयों में बहुविवाह का आंकड़ा 2फीसद था जिसमें थोड़ी बढ़ोतरी देखी गई है.

कई रिसर्च ब्रीफ़ और विश्लेषण यह बात साफ़ बताते हैं कि भारत में बहुविवाह कुल मिलाकर लगातार घट रहा है, और यह कमी सभी धर्मों में दिख रही है, सिर्फ़ मुसलमानों में नहीं.

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यह मिथक बना कैसे?

अब बड़ा सवाल आता है, जब डेटा ये सब कह रहा है, तो फिर समाज में ये धारणा कैसे बनी कि “मुसलमान चार-चार शादी करते हैं”?

कुछ कारण हैं: पहला – क़ानूनी बहस और मीडिया नैरेटिव. यूनिफॉर्म सिविल कोड, मुस्लिम पर्सनल लॉ, तीन तलाक़, बहुविवाह – ये सब हमेशा मीडिया और राजनीति में ‘मुस्लिम मुद्दों’ के रूप में पेश किए गए. कानून में एक सैद्धांतिक अनुमति को मीडिया ने ऐसे पेश किया मानो मुसलमानों में हर मर्द चार शादियां करता है. सुबह उठता है अपनी पत्नी को तलाक देता है और शाम में बारात ले जाकर निकाह कर लेता है.

दूसरा कारण है व्यक्तिगत उदाहरणों को सामूहिक सच्चाई बना देना. किसी मोहल्ले, किसी रिश्तेदारी या किसी वायरल वीडियो में यदि दो-तीन बहुविवाह वाली शादियों के उदाहरण दिखते हैं, तो लोग मान लेते हैं कि ‘पूरी कौम ऐसी है.’ लेकिन वैज्ञानिक नज़र से देखें, तो एकाध मामलों को सामुदायिक स्तर की सचाई नहीं माना जा सकता.

तीसरा कारण है. प्रोपेगैंडा. धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति को ‘मुसलमान बहुत बच्चे पैदा कर रहे हैं’ और ‘मुसलमान चार शादी करते हैं’ जैसे नारे बहुत सूट करते हैं. हालांकि, प्रजनन दर के बारे में भी आंकड़े साफ़ कहते हैं कि मुसलमान समुदाय में प्रजनन दर तेजी से गिर रही है और बाकी समुदायों के साथ इस मामले में अंतर काफी कम हो चुका है.

लेकिन एक जरूरी बात: हम अक्सर भूल जाते हैं. हम बहुविवाह पर बात करते हैं, या तो धर्म के चश्मे से, या राजनीतिक चश्मे से. पर जिस महिला की शादी ऐसे घर में है, उसके लिए यह ‘डिबेट’ नहीं, ज़िंदगी है. चाहे वह हिंदू घर हो, मुस्लिम, ईसाई या आदिवासी, जहाँ भी बहुविवाह है, वहाँ अक्सर महिलाओं के अधिकार, आर्थिक सुरक्षा और मानसिक स्वास्थ्य पर बड़ा असर पड़ता है.

इसलिए, अगर हमें बहुविवाह पर गंभीर होना है, तो हमें लैंगिक न्याय के नज़रिए से होना चाहिए, किसी एक धर्म के खिलाफ़ हेट-कैम्पेन के नज़रिए से नहीं.आज देश में यूनिफॉर्म सिविल, बहुविवाह पर बंदिश जैसे मुद्दों पर चर्चा तेज है. कुछ राज्यों ने तो मुसलमानों के लिए भी बहुविवाह पर रोक लगाने की दिशा में कदम बढ़ा दिए हैं.कानून क्या होना चाहिए –यह एक अलग बहस है. पर कानून की बहस अगर झूठे आंकड़ों, मिथकों और एक समुदाय को बदनाम करने वाले नैरेटिव पर खड़ी हो, तो वह बहस ईमानदार नहीं हो सकती.

लेखक आवाज द वाॅयस के एवी संपादक हैं.यह रिपोर्ट आप यूटृयूब पर भी देख सकते हैं, जिसके लिंक नीचे दिए गए हैं.