कुशान सरकार / नई दिल्ली
एक समय था जब तेम्बा बावुमा की बल्लेबाजी औसत पर लोग हँसते थे. उनकी कद-काठी का मज़ाक उड़ाया जाता था, और उनके नाम को गालियों से जोड़कर बुलाया जाता था. लेकिन आज वही तेम्बा बावुमा, दक्षिण अफ्रीका को उसकी पहली विश्व टेस्ट चैंपियनशिप दिलाकर इतिहास रच चुके हैं.
'तेम्बा' नाम उन्हें उनकी दादी ने दिया था, जिसका मतलब ज़ुलु भाषा में होता है — उम्मीद। और उन्होंने इस नाम का अर्थ अपनी पूरी ज़िंदगी से साबित किया. लॉर्ड्स के ऐतिहासिक मैदान पर, दक्षिण अफ्रीका के इस पहले अश्वेत कप्तान ने टीम को चैंपियन बनाकर पूरे देश की उम्मीदों को नई उड़ान दी.
शनिवार को जब चौथे दिन विकेटकीपर काइल वेरेने ने विजयी रन बनाए, तो बावुमा ने अपना चेहरा अपनी हथेलियों से छिपा लिया. उनके आस-पास जश्न का माहौल था, लेकिन वह अपनी नम आंखों को दुनिया से छिपाने की कोशिश कर रहे थे. 27 वर्षों के लंबे इंतजार के बाद आईसीसी ट्रॉफी जीतने का सपना आखिर साकार हुआ था.
महज 5 फुट 3 इंच लंबे बावुमा ने उस ऑस्ट्रेलियाई टीम को मात दी, जिसने अब तक 10 आईसीसी ट्रॉफियां जीती हैं. यह सिर्फ एक खेल जीतने की बात नहीं है — यह उन लाखों अश्वेत दक्षिण अफ़्रीकियों की जीत है जिन्होंने रंगभेदी अतीत का सामना किया, वर्षों तक हाशिए पर रहे, लेकिन कभी उम्मीद नहीं छोड़ी.
बावुमा की सादगी और गरिमा का अंदाज़ तब दिखा जब वे लॉर्ड्स के लॉन्ग रूम से होकर ट्रॉफी के साथ मैदान में आए. उनकी जीत में भारतीय मूल के केशव महाराज और सेनुरन मुथुसामी, अश्वेत तेज गेंदबाज़ कागिसो रबाडा और लुंगी एनगिडी के साथ-साथ श्वेत खिलाड़ी एडेन मार्करम, डेविड बेडिंघम और ट्रिस्टन स्टब्स भी शामिल थे — यह टीम विविधता और समावेशिता का प्रतीक बन गई है.
मैच के बाद बावुमा ने कहा, “हम सभी अलग पृष्ठभूमियों से आते हैं, लेकिन इस ट्रॉफी के साथ हम एकजुट हैं. यह सिर्फ हमारी नहीं, पूरे देश की जीत है.”
लैंगा की गलियों से लॉर्ड्स तक
तेम्बा बावुमा का जन्म केपटाउन के अश्वेत बहुल लैंगा क्षेत्र में हुआ। वहां की टूटी-फूटी सड़कों पर क्रिकेट खेलने वाले उस छोटे बच्चे के मन में भी एक सपना था — एक दिन लॉर्ड्स में खेलने का.
एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया था, “हम सड़क के उस हिस्से को 'कराची' कहते थे, जहाँ गेंद अजीब उछलती थी, और जो हिस्सा साफ और समतल था उसे हम 'लॉर्ड्स' बुलाते थे.”
10 साल की उम्र में उन्होंने जिस मैदान का नाम 'लॉर्ड्स' रखा था, उसी असली लॉर्ड्स पर अब वे विश्व चैंपियन हैं.
छठी कक्षा में पढ़ते हुए उन्होंने एक निबंध लिखा था जिसमें उन्होंने लिखा:"मैं खुद को 15 साल बाद राष्ट्रपति थाबो मबेकी से हाथ मिलाते हुए देखता हूं, जो मुझे दक्षिण अफ्रीकी टीम में चुने जाने की बधाई दे रहे हैं."
वह सपना साकार हुआ। बावुमा ने खुद को साबित किया, हर कदम पर। उन्हें छात्रवृत्ति मिली, कोच मिले, और परिवार का पूरा समर्थन। लेकिन सबसे बड़ी ताक़त रही — उनका आत्मविश्वास और संयम.
शरीर साथ नहीं दे रहा था, पर दिल ने कहा ‘खेलो’
वर्ल्ड टेस्ट चैंपियनशिप के इस ऐतिहासिक फाइनल में बावुमा मांसपेशियों में खिंचाव से जूझ रहे थे. कोच शुकरी कॉनराड उन्हें हटाना चाहते थे, लेकिन कप्तान ने मैदान छोड़ने से इनकार कर दिया. वह जानते थे कि कप्तान के तौर पर यह उनकी सबसे बड़ी परीक्षा है — और उन्होंने इसे जीत में बदला.
जब उन्हें कप्तान बनाया गया था, तब उनके औसत पर सवाल उठे थे. 30 के आसपास के औसत वाले बल्लेबाज को ‘कप्तान योग्य’ नहीं माना जा रहा था. लेकिन आज वही बावुमा 57 की औसत से कप्तानी कर रहे हैं — और एक ट्रॉफी के साथ.
‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ से आगे की सोच
तेम्बा बावुमा सिर्फ मैदान के नेता नहीं हैं, वे एक सामाजिक नेतृत्व का भी चेहरा हैं. जब क्विंटन डी कॉक ने 'ब्लैक लाइव्स मैटर' के समर्थन में घुटने टेकने से इनकार किया था, तब भी बावुमा ने संतुलित रवैया अपनाया. वे जानते हैं कि एक कप्तान को सिर्फ स्कोर बोर्ड नहीं, समाज के दिलों में भी स्थान बनाना होता है.
तेम्बा बावुमा की कहानी सिर्फ क्रिकेट की नहीं, उम्मीद, संघर्ष, और आत्मविश्वास की भी है. लैंगा की संकरी गलियों से लॉर्ड्स की ऊंचाइयों तक पहुंचने का उनका सफर बताता है कि सपने जाति, रंग या कद से नहीं, हिम्मत और मेहनत से पूरे होते हैं.
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