सेराज अनवर/ पटना
कुछ शख़्सियतें ऐसी होती हैं जिसका कोई सानी नहीं.उसी में एक नाम सैयद शाह अता हुसैन फानी का है.आज से करीब 174वर्ष पूर्व सन् 1850में मखदूम बाबा सैयद शाह अता हुसैन फानी मोक्षभूमि गयाजी आए थे. बिहार के गया शहर के नवागढ़ी स्थित खानक़ाह में इनका मजार है. वे एक प्रसिद्ध सूफी संत के साथ कवि भी थे. हिन्दी, उर्दू, अरबी व फारसी के ज्ञाता रहे. प्रत्येक वर्ष इस्लामी कैलेंडर के मुताबिक़ 17शव्वाल को ख़्वाजा ए बिहार से मशहूर अता हुसैन फानी का उर्स मनाया जाता है.
134वां उर्स का आयोजन कर उन्हें याद किया गया और चिश्तिया मुनअमिया अबुल ओलैया खानक़ाह के इतिहास और इसकी महत्ता का ज़िक्र किया गया. सैयद शाह अता हुसैन फानी इसी जगह आराम फरमा रहे हैं.
कौन हैं सैयद शाह अता हुसैन फानी?
सैयद शाह अता हुसैन फानी रुहानी ताकतों के मालिक के साथ मेडिकल साइंस के एक बड़े हकीम भी थे. करीब 60से ऊपर इनकी किताबें हैं. आज भी इनकी हाथों से लिखी पांडुलिपियों पर स्कॉलर रिसर्च करते हैं. ख्वाजा-ए-बिहार सैयद शाह अता हुसैन फानी का जन्म 23रमजान 1816ई. (1232हिजरी) में पटना में अपने ननिहाल में हुआ था.
इनके पिता सैयद शाह सुल्तान अहमद दानापुरी थे. इन्होंने अपनी तालिम सैयद शाह शम्स उद्दीन, हकीम शाह मुराद अली, हकीम मोहम्मदी, मौलाना अजीजुद्दीन हैदर लखनवी से हासिल की.इसके बाद ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी (रह) ने सैयद शाह अता हुसैन फानी को अताएं अता-ए-रसुल बनाया था.इसके बाद से ही इन्हें ख्वाजा-ए-बिहार कहा जाने लगा.वे एक प्रसिद्ध सूफी संत के साथ कवि और हिन्दी, उर्दू, अरबी व फारसी के ज्ञाता थे.
चिश्तिया मुनअमिया अबुल ओलैया के गद्दीनशीं नौजवान सूफी सैयद शाह मोहम्मद सबाह उद्दीन चिश्ती मुनअमी अबुल उलाई ने बताया कि बादशाह दाऊद शाह के इसरार पर इस खानकाह के बुजुर्ग बिहार के हाजीपुर में बादशाह के साथ आए. इसके बाद वहां से पटना के मुगलपुरा और फिर दानापुर में बादशाह शाह आलम सानी के कहने पर रुके.1840में हजरत ख्वाजा सैयद शाह अता हुसैन फानी ने मदीना से गया का रुख किया और फिर यहीं के हो कर रह गए.
उर्स में कई राज्यों के अक़ीदतमंद आये
चिश्तिया मुनअमिया अबुल ओलैया के अक़ीदतमंद पूरे देश में फैले हैं.उर्स के मौक़े पर कई राज्यों से लोग शामिल होने आये. ख्वाजा-ए-बिहार के उर्स की शुरूआत फजीर की नमाज के बाद कुरानखानी के साथ हुई.फिर कुलशरीफ हुआ. शाम 6:45के बाद फैजान-ए-अता जलसा का आयोजन किया गया.रात्रि 10बजे के बाद बाबा के मजार पर चादरपोशी हुई.
इसके बाद सूफियाना कव्वाली की महफिल सजी.सासाराम और पटना से कव्वालों ने सूफ़ियाना क़व्वाली से अक़ीदतमंदों को झूमाया इसके बाद दुआ के साथ कार्यक्रम का समापन हुआ.इस बीच लंगर की भी व्यवस्था की गयी.जिसमें अक़ीदतमंदों ने खाना तनाउल फ़रमाया.इस मौक़े पर खानकक़ाह के नाजीम सैयद शाह अता फैसल ने आवाज़ द वायस से बातचीत करते हुए बताया कि सैयद शाह अता हुसैन फानी की कई पुस्तकें ऐसी हैं जो सिर्फ गया के खानकाह में हैं.
धार्मिक ग्रंथों में दकिकतुससालिकिन, कैफियतुल आरिफिन और केजुल अन्साब हैं. इन्होंने बताया कि दकिकतुससालिकिन पुस्तक आध्यात्म की जानकारी रखने वाले सभी को पढ़ना जरूरी है. अल्लाह की प्राप्ति कैसे करे, इनकी पुस्तकों में भी इसका जिक्र है.इनकी तमाम किताबों को खानक़ाह में संजो कर रखा गया है.यह हमारे और नस्लों के लिए बहुमूल्य सम्पति है.
चिश्तिया मुनअमिया अबुल ओलैया का इतिहास
यह खानकाह बिहार की विष्णु एवं गौतम बुद्ध की नगरी गया में स्थित है.इस प्राचीन खानकाह के प्रति हिंदुओं की उतनी ही आस्था है,जितना मुसलमानों की. खानकाह का नाम है चिश्तिया मुनअमिया अबुल ओलैया. यह भारतीय संस्कृति की ज्वलंत निशानी है.खानकाह का इतिहास एक हजार वर्ष पुराना है.यहां रबीउल अव्वल के मौके पर चांद रात से बारह तारीख तक सीरत का जलसा आयोजित होता है.
बिहार में लगातार बारह दिनों तक सीरत उन नबी का आयोजन करने वाला सम्भवतः यह इकलौता खानकाह है.दिलचस्प बात यह कि भारत की साझी संस्कृति को समेटे खानकाह अबुल ओलैया मुस्लिम आबादी से काफी दूर विष्णु पद मंदिर के बेहद करीब स्थित है.अभी खानकाह की बागडोर नौजवान सूफी सैयद शाह मोहम्मद सबाह उद्दीन चिश्ती मुनअमी अबुल उलाई के हाथों में है.
यह बिहार के सूफी सर्किट में भी शामिल है.इस खानकाह के हवाले से जो इतिहास लिखा गया ,उसके मुताबिक ख्वाजा मोइन उद्दीन चिश्ती के खलीफा हजरत ख्वाजा ताजुद्दीन देहलवी से एक हजार वर्ष पूर्व इसका सिलसिला शुरू हुआ.पहले यह कानपुर के कालपी शरीफ में स्थापित था.खानकाह मुस्लिम आबादी में नहीं है.मुस्लिम मुहल्ला नादरागंज इससे एक किलोमीटर दूर है.जहां खानकाह स्थित है उसे नवागढ़ी कहते हैं.रामसागर के नाम से भी जाना जाता है. खानकाह से सटा रामसागर तालाब है. खानकाह चारों तरफ से सनातन धर्मियों की आबादी से घिरा है.