तहरीक-ए-आज़ादी और तरक़्क़ीपसंद शायर

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 10-02-2023
तहरीक-ए-आज़ादी और तरक़्क़ीपसंद शायर
तहरीक-ए-आज़ादी और तरक़्क़ीपसंद शायर

 

 

ज़ाहिद ख़ान

 

देश की आज़ादी लाखों-लाख लोगों की कु़र्बानियों का नतीज़ा है. जिसमें लेखक, कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों ने भी एक अहम रोल निभाया. ख़ास तौर से तरक़्क़ीपसंद तहरीक से जुड़े लेखक, कलाकार आज़ादी के आंदोलन में पेश-पेश रहे. अपने गीत, ग़ज़ल, नज़्म, नाटक, अफ़सानों और आलेखों के ज़रिए उन्होंने पूरे मुल्क में वतन-परस्ती का माहौल बनाया. गु़लाम मुल्क में उन्होंने अपने अदब से आज़ादी के लिए जद्दोजहद की. अवाम में आज़ादी का अलख जगाया.


तरक़्क़ीपसंद तहरीक से निकले तमाम तरक़्क़ीपसंद शायरों का ख़्वाब हिंदुस्तान की आज़ादी थी. साल 1942 से 1947 तक का दौर, तरक़्क़ीपसंद तहरीक का सुनहरा दौर था. यह तहरीक आहिस्ता-आहिस्ता मुल्क की सारी ज़बानों में फैलती चली गई.

 

हर भाषा में एक नये सांस्कृतिक आंदोलन ने जन्म लिया. इन आंदोलनों का आखि़री मक़सद मुल्क  की आज़ादी थी. आन्दोलन ने जहां धार्मिक अंधविश्वास, जातिवाद व हर तरह की धर्मांधता और सामंतशाही का विरोध किया, तो वहीं साम्राज्यवादी दुश्मनों से भी ज़मकर टक्कर ली.

 

हसरत मोहानी, जोश मलीहाबादी, फ़िराक़ गोरखपुरी, वामिक जौनपुरी, मख़दूम मोहिउद्दीन, फै़ज़ अहमद फ़ैज़, अली सरदार जाफ़री, मजाज़, कैफ़ी आज़मी, मजरूह सुल्तानपुरी, साहिर लुधियानवी जैसे कद्दावर शायर तरक़्क़ीपसंद तहरीक के हमनवां, हमसफर थे. यह सभी अपने अदब और तख़्लीक के ज़रिए आज़ादी की तहरीक में हिस्सा ले रहे थे.

 

दर हक़ीक़त यह है कि इन शायरों की ग़ज़ल, नज़्मों ने मुल्क में आज़ादी के हक़ में एक समां बना दिया. अवाम अंग्रेज़ी हुकूमत के खि़लाफ़ गोलबंद हो गई.प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना तो हालांकि साल 1936 में हुई, मगर उर्दू अदब पर तरक़्क़ीपसंद ख़यालात का असर बीसवीं सदी के आग़ाज़ से ही होने लगा था. मौलाना हसरत मोहानी वह शख़्स थे, जिनके ख़यालात बड़े इंन्क़लाबी थे.

 

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उन्होंने उस ज़माने में पत्रकारिता और क़लम की अहमियत को पहचाना और साल 1903 में अलीगढ़ से एक सियासी-अदबी रिसाला ‘उर्दू-ए-मुअल्ला’ निकाला. जिसमें अंग्रेज़ी हुकूमत की नीतियों की कड़ी आलोचना की जाती थी. इस रिसाले में हसरत मोहानी ने हमेशा आज़ादी पसंदों के लेखों, शायरों की इंन्क़िलाबी ग़ज़लों-नज़्मों को तरज़ीह दी.

 

साल 1917 में हुई रूसी क्रांति का असर सारी दुनिया पर पड़ा. दुनिया को एक नया विचार, एक नई चेतना मिली. ज़ाहिर है कि हिन्दुस्तान और उसके अदीब भी इससे अछूते नहीं रहे. यह बात शायद ही सभी लोग जानते हों कि मुल्क की आज़ादी की तहरीक में मौलाना हसरत मोहानी ने ही ‘इंन्क़िलाब जिंदाबाद’ का नारा दिया था.

 

इसके अलावा अहमदाबाद में साल 1921 में हुए कांग्रेस सम्मलेन में उन्होंने ‘आज़ादी ए कामिल’ यानी पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव भी रखा. महात्मा गांधी ने इस प्रस्ताव को मानने से इंक़ार कर दिया. बावजूद इसके हसरत मोहानी ‘पूर्ण स्वराज्य’ का नारा बुलंद करते रहे और आखि़कार यह प्रस्ताव, साल 1929 में पारित हुआ.

 

भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद समेत तमाम क्रांतिकारियों ने आगे चलकर मौलाना हसरत मोहानी के नारे ‘इंन्क़िलाब जिंदाबाद’ की अहमियत समझी और देखते-देखते यह नारा आज़ादी की लड़ाई में बेहद मक़बूल हो गया. एक समय देश भर में बच्चे-बच्चे की ज़बान पर यह नारा था.

 

उर्दू अदब में जोश मलीहाबादी वह आला नाम है, जो अपने इंन्क़िलाबी कलाम से शायर-ए-इंन्क़िलाब कहलाए. हुब्बुलवतनी (देशप्रेम) और बगावत उनके मिज़ाज का हिस्सा थी. उनकी एक नहीं, कई ऐसी कई ग़ज़लें-नज़्में हैं, जो वतनपरस्ती के रंग में रंगी हुई हैं. इनमें ‘मातमे-आज़ादी’, ‘निजामे लौ’, ‘इंसानियत का कोरस’, ‘जवाले जहां बानी’ के नाम अव्वल नम्बर पर लिए जा सकते हैं.

 

इंन्क़िलाब और बगावत में डूबी हुई जोश की ये ग़ज़लें-नज़्में, जंग-ए-आज़ादी के दौरान नौजवानों के दिलों में गहरा असर डालती थीं. वे आंदोलित हो उठते थे. यही वजह है कि जोश मलीहाबादी को अपनी इंक़लाबी ग़ज़लों-नज़्मों के चलते कई बार जे़ल भी जाना पड़ा. लेकिन उन्होंने अपना मिज़ाज और रहगुज़र नहीं बदली.

 

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दूसरी आलमी जंग के दौरान जोश मलीहाबादी ने ‘ईस्ट इंडिया कंपनी के फरजंदों के नाम’, ‘वफ़ादाराने-अजली का पयाम शहंशाहे-हिंदोस्तां के नाम’ और ‘शिकस्ते-जिंदां का ख्वाब’ जैसी साम्राज्यवाद विरोधी नज़्में लिखीं.‘‘क्या हिन्द का ज़िंदाँ काँप रहा है गूँज रही हैं तक्बीरें/उकताए हैं शायद कुछ क़ैदी और तोड़ रहे हैं ज़ंजीरें/क्या उन को ख़बर थी होंटों पर जो क़ुफ़्ल लगाया करते थे/इक रोज़ इसी ख़ामोशी से टपकेंगी दहकती तक़रीरें .’’

 

जोश के कलाम में सियासी चेतना साफ़ दिखलाई देती है और यह सियासी चेतना मुल्क की आज़ादी के लिए इंन्क़िलाब का आहृान करती है. सामंतवाद, सरमायेदारी और साम्राज्यवाद का उन्होंने पुरज़ोर विरोध किया.

 

पूंजीवाद से समाज में जो आर्थिक विषमता पैदा होती है, वह जोश ने अपने ही मुल्क में देखी थी. अंग्रेज़ हुकूमत में किसानों, मेहनतकशों को अपनी मेहनत की असल कीमत नहीं मिलती थी. वहीं सरमायेदार और अमीर होते जा रहे थे. इन इंसानियत मुख़ालिफ़ हरकतों की उन्होंने अपनी नज़्मों में हमेशा मुख़ालिफ़त की, ‘‘इन पाप के महलों को गिरा दूंगा मैं एक दिन/इन नाच के रसियों को नचा दूंगा मैं एक दिन.’’

 

फ़िराक़ गोरखपुरी भी अपनी अदबी जिंदगी की शुरुआत में ही आज़ादी की तहरीक में शामिल हो गए थे. साल 1920 में प्रिंस ऑफ वेल्स की यात्रा की मुख़ालफ़ित के इल्जाम में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया था. वे इस जुर्म में ढाई साल तक आगरा और लखनऊ की जे़लों में रहे.

 

फै़ज़ अहमद फै़ज़ ने अपने कलाम से बार-बार मुल्कवासियों को एक फ़ैसलाकुन जंग के लिए ललकारा. ‘शीशों का मसीहा कोई नहीं’ शीर्षक नज़्म में वे कहते हैं,‘‘सब सागर शीशे लालो-गुहर, इस बाजी में बद जाते हैं/उठो, सब खाली हाथो को इस रन से बुलावे आते हैं.’’ फ़ैज़ की ऐसी ही एक दीगर ग़ज़ल का शे’र है, ‘‘लेकिन अब जुल्म की मियाद के दिन थोड़े हैं/इक जरा सब्र कि फ़रियाद के दिन थोड़े हैं.’’

 

मेहनतकशों के चहेते, इंक़लाबी शायर मख़दूम मोहिउद्दीन का शुमार मुल्क में उन शख़्सियतों में होता है, जिन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी अवाम की लड़ाई लड़ने में गुज़ार दी. सुर्ख़ परचम के तले उन्होंने आज़ादी की तहरीक में हिस्सेदारी की.

 

आज़ादी की तहरीक के दौरान उन्होंने न सिर्फ साम्राज्यवादी अंग्रेज़ी हुकूमत से टक्कर ली, बल्कि अवाम को सामंतशाही के खि़लाफ़ भी बेदार किया. मख़दूम की क़ौमी नज़्मों का कोई सानी नहीं था. जलसों में कोरस की शक्ल में जब उनकी नज़्में गाई जातीं, तो एक समां बंध जाता. हज़ारों लोग आंदोलित हो उठते. ‘‘वो हिन्दी नौजवां यानी अलम्बरदार-ए-आज़ादी/वतन का पासबां वो तेग-ए-जौहर दार-ए-आज़ादी.’’ (‘आज़ादी-ए-वतन’) और ‘‘ये जंग है, जंग-ए-आज़ादी के लिए’’

 

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इन नज़्मों ने तो उन्हें हिन्दुस्तानी अवाम का महबूब और मकबूल शायर बना दिया. मुल्क की आज़ादी की तहरीक के दौरान अंगेज़ी हुकूमत का विरोध करने के जुर्म में मख़दूम कई मर्तबा जे़ल भी गए, पर उनके तेवर नहीं बदले. मख़दूम मोहिउद्दीन ने न सिर्फ़ आज़ादी की तहरीक में हिस्सेदारी की, बल्कि अवामी थियेटर में मख़दूम के गीत गाए जाते थे. किसान और मज़दूरों के बीच जब इंक़लाबी मुशायरे होते, तो मख़दूम उसमे पेश-पेश होते.

 

कैफ़ी आज़मी का दौर वह दौर था, जब पूरे मुल्क में आज़ादी की लड़ाई निर्णायक मोड़ पर थी. मुल्क में जगह-जगह अंग्रेज़ी हुकूमत के खि़लाफ़ आंदोलन चल रहे थे. किसानों और कामगारों में एक गुस्सा था, जिसे एक दिशा प्रदान की तरक़्क़ीपसंद तहरीक ने.

 

तरक़्क़ीपसंद तहरीक से जुड़े सभी प्रमुख शायरों की तरह कैफ़ी आज़मी ने भी अपनी नज़्मों से प्रतिरोध की आवाज़ बुलंद की. किसानों और कामगारों की सभाओं में वे जब अपनी नज़्म पढ़ते, तो लोग आंदोलित हो जाते. खास तौर से जब वे अपनी डेढ़ सौ अश्आर की मस्नवी ‘ख़ानाजंगी’ सुनाते तो हज़ारों लोगों का मजमा इसे दम साधे सुनता रहता.

 

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कैफ़ी आज़मी की सारी शायरी में प्रतिरोध का सुर बुलंद मिलता है. उन्होंने साम्राज्यवाद का खुलकर विरोध किया. ‘तरबियत’ शीर्षक कविता में वे लिखते हैं, ‘‘मिटने ही वाला है खू़न आशाम देव-ए-जर का राज़/आने ही वाला है ठोकर में उलट कर सर से ताज.‘‘

 

साहिर लुधियानवी की शुरुआती नज़्में यदि देखें, तो दीगर इंक़लाबी शायरों की तरह उनकी नज़्मों में भी ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ एक गुस्सा, एक आग है. वतनपरस्त नौजवान इन नज़्मों को गाते हुए, गिरफ़्तार हो जाते थे. उनकी कई ग़ज़लें हैं, जो अवाम को अंग्रेज़ी हुकूमत के खि़लाफ़ उठने की आवाज़ देती हैं. एक ग़ज़ल में वे कहते हैं,‘‘सरकश बने हैं गीत बगावत के गाये हैं/बरसों नए निजाम के नक्शे बनाये हैं.’’

 

अंग्रेज़ हुकूमत के खि़लाफ़ आंदोलन और साम्राज्य विरोधी नज़्मों की वजह से अली सरदार जाफ़री को भी कई मर्तबा जे़ल जाना पड़ा. उनकी कई बेहतरीन नज़्में जे़ल की सलाख़ों के पीछे ही लिखीं गई हैं. ‘बग़ावत’, ‘अहदे हाज़िर’, ‘सामराजी लड़ाई’, ‘इंक़लाबे रूस’, ‘मल्लाहों की बग़ावत’, ‘फ़रेब’, ‘सैलाबे चीन’, ‘जश्ने बग़ावत’ आदि नज़्मों में उन्होंने अपने समय के बड़े सवालों की अक्कासी की है.

 

सच बात तो यह है कि उन्होंने अपने आसपास की समस्याओं से कभी मुंह नहीं चुराया, बल्कि उसकी आंखों में आंखें डालकर बात की. बंगाल का जब भयंकर अकाल पड़ा, तो अली सरदार जाफ़री की क़लम ने लिखा,‘‘चंद टुकड़ों के लिए झांसी की रानी बिक गई/आबरू मरियम की सीता की जवानी बिक गई/गांव वीरां हो गए हर झोंपड़ा सुनसान है/खित्ता-ए-बंगाल है या एक कब्रिस्तान है.’’

 

‘आवारा’ वह नज़्म है, जिसने शायर मजाज़ को एक नई पहचान दी. उस ज़माने में ‘आवारा’ पूरी एक नस्ल की बेचैनी की नज़्म बन कर उभरी. मजाज़ जब अपनी एक और नज़्म ‘नौ-जवान से’ में नौजवानों को खि़ताब करते हुए कहते थे, ‘‘जलाल-ए-आतिश-ओ-बर्क़-ओ-सहाब पैदा कर/अजल भी काँप उठे वो शबाब पैदा कर/......तू इंक़लाब की आमद का इंतिज़ार न कर/जो हो सके तो अभी इंक़लाब पैदा कर.’’ तो यह नज़्म, नौजवानों में एक जोश, नया जज़्बा पैदा करती थी.

 

वतनपरस्ती और मुल्क के जानिब मुहब्बत जगाती मजाज़ की एक और मक़बूल नज़्म ‘हमारा झंडा’ के चंद अश्आर हैं,‘‘शेर हैं चलते हैं दर्राते हुए/बादलों की तरह मंडलाते हुए/लाख लश्कर आएँ कब हिलते हैं हम/आँधियों में जंग की खिलते हैं हम/मौत से हँस कर गले मिलते हैं हम/आज झंडा है हमारे हाथ में.’’

 

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मजाज़ ने अपनी नज़्मों में अंग्रेज़ी हुकूमत के हर तरह के जुल्म और नाइंसाफ़ी के खि़लाफ़ आवाज़ बुलंद की. मिसाल के तौर पर उनकी इस नज़्म पर नज़र-ए-सानी कीजिए, ‘‘बोल! अरी ओ धरती बोल !/राज सिंघासन डाँवाडोल/.......क्या अफ़रंगी क्या तातारी/आँख बची और बर्छी मारी/कब तक जनता की बेचैनी/कब तक जनता की बे-ज़ारी/कब तक सरमाया के धंदे/कब तक ये सरमाया-दारी/बोल ! अरी ओ धरती बोल !’’

 

‘‘भूका है बंगाल रे साथी, भूका है बंगाल’’ वह नज़्म है, जिससे शायर वामिक जौनपुरी की शोहरत पूरे मुल्क में फैली. इस नज़्म का पसमंज़र साल 1943 में बंगाल में पड़ा भयंकर अकाल है. इस अकाल में उस वक़्त एक आंकड़े के मुताबिक करीब तीस लाख लोग भूख से मारे गए थे. वह तब, जब मुल्क में अनाज की कोई कमी नहीं थी. गोदाम भरे पड़े हुए थे. बावजूद इसके लोगों को अनाज नहीं मिल रहा था.

 

एक तरफ लोग भूख से तड़प-तड़पकर मर रहे थे, दूसरी ओर अंग्रेज़ सरकार के कान पर जूं तक नही रेंग रही थी. बंगाल के ऐसे अमानवीय और संवेदनहीन हालात की तर्जुमानी ‘भूका है बंगाल’ नज़्म में है.‘‘पूरब देस में डुग्गी बाजी फैला दुख का जाल/दुख की अगनी कौन बुझाये सूख गए सब ताल/जिन हाथों ने मोती रोले आज वही कंगाल रे साथी/आज वही कंगाल/भूका है बंगाल रे साथी भूका है बंगाल.’’

 

इप्टा के ‘बंगाल स्कवॉड’ और सेंट्रल स्कवॉड ने ‘भूका है बंगाल’ नज़्म की धुन बनाई और चंद महीनों के अंदर यह तराना मुल्क के कोने-कोने में फैल गया. इस नज़्म ने लाखों लोगों के अंदर वतनपरस्ती, एकता और भाईचारे के जज़्बात जगाए.

 

इप्टा के कलाकारों ने नज़्म को गा-गाकर बंगाल रिलीफ़ फंड के लिए हज़ारों रुपए और अनाज बंगाल के लिए इकट्ठा किया. जिससे लाखों हमवतनों की जान बची. मजरूह की शायरी में रूमानियत और इंक़लाब का बेहतरीन संगम है. वे मुशायरों के कामयाब शायर थे.

 

खु़शगुलू (अच्छा गायक) होने की वजह से जब वे तरन्नुम में अपनी ग़ज़ल पढ़ते, तो श्रोता झूम उठते थे. ग़ज़ल में उनके बग़ावती तेवर अवाम को आंदोलित कर देते थे. उनकी एक नहीं, कई ऐसी ग़ज़लें हैं जिनमें उन्होंने समाजी और सियासी मौजू़आत को कामयाबी के साथ उठाया है. इनमें उनके बगावती तेवर देखते ही बनते हैं.

 

आलम यह था कि मुल्क की आज़ादी की तहरीक में ये ग़ज़लें, नारों की तरह इस्तेमाल हुईं. ‘‘सितम को सर-निगूं (झुका सर), जालिम को रुसवा हम भी देखेंगे/चले ऐ अज़्मे बग़ावत (बग़ावत का निश्चय) चल, तमाशा हम भी देखेंगे.’’, ‘‘जला के मश्अले-जां हम जुनूं-सिफात चले/जो घर को आग लगाए हमारे साथ चले.’’

 

मजरूह सुल्तानपुरी की शुरुआती दौर की ग़ज़लों पर आज़ादी के आंदोलन का साफ़ असर दिखलाई देता है. दीगर तरक़्क़ीपसंद शायरों की तरह, उनकी भी ग़ज़लों में मुल्क के लिए मर-मिटने का जज़्बा नज़र आता है. ये ग़ज़लें सीधे-सीधे अवाम को संबोधित करते हुए लिखी गई हैं.‘‘देख जिंदां से परे, रंगे-चमन, जोशे-बहार/रक्स करना है तो फिर पांव की जंजीर न देख.’’

 

अवामी मुशायरों में तरक़्क़ीपसंद शायर जब इस तरह की ग़ज़लें और नज़्में पढ़ते थे, तो पूरा माहौल मुल्क की मोहब्बत से सराबोर हो जाता था. लोग कुछ कर गुज़रने के लिए तैयार हो जाते थे. अप्रत्यक्ष तौर पर ये अवामी मुशायरे अवाम को बेदार करने का काम करते थे.

 

तमाम तरक़्क़ीपसंद शायरों के साथ जां निसार अख़्तर ने भी शायरी को रिवायती रूमानी दायरे से बाहर निकालकर, जिंदगी की तल्ख़ हक़ीकतों से जोड़ा. उनकी शायरी में इंक़लाबी अनासिर तो हैं ही, साम्राज्यवाद और सरमायेदारी की भी सख़्त मुख़ालिफ़त है.

 

वतनपरस्ती और क़ौमी यकजहती पर उन्होंने कई बेहतरीन नज़्में लिखी. सर्वहारा वर्ग का आहृान करते हुए, वे अपनी एक इंक़लाबी नज़्म में कहते हैं,‘‘मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं/जो शाने पर बग़ावत का अलम लेकर निकलते हैं/किसी जालिम हुकूमत के धड़कते दिल पे चलते हैं.’’ अपने ज़माने में सैयद ‘मुत्तलबी’ फ़रीदाबादी की हैसियत एक अवामी शायर की थी. किसानों और आज़ादी की तहरीक में उन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी की. मुशायरों और सियासी जलसों के वे लोकप्रिय शायर थे.

 

सैयद मुत्तलबी फ़रीदाबादी ने अपनी इंन्क़िलाबी नज़्मों में हमेशा इंसानियत मुख़ालिफ़ करतूतों की सख़्त मज़म्मत की. ‘मथुरा का एक दर्दनाक मंज़र’ नज़्म में वे इन ताक़तों को ललकारते हुए कहते हैं,‘‘लानत ए सरमायदारी ! लानत ए शाहंशाही/ये मनाजिर हैं, तुम्हारी ही फ़कत जल्वागरी/मस्ज़िदों और मंदिरों के साया-ए-दीवार में/पेट भरने के लिए अंधे भी मज़दूरी करें.’’

 

साल 1947 में आज़ादी मिलने के बाद सैयद मुत्तलबी फ़रीदाबादी, शायर-ए-मज़दूर एहसान दानिश और अहमद नदीम क़ासमी भले ही मुल्क के बंटवारे में लाखों लोगों के साथ पाकिस्तान हिज़रत कर गए, मगर इसे कभी भुलाया नहीं जा सकता कि गु़लाम मुल्क में अंग्रेज़ी हुकूमत के खि़लाफ़ उनकी क़लम ने खू़ब आग उगली. अपनी ग़ज़लों, नज़्मों से उन्होंने अवाम को बराबर बेदार किया.

 

शायरी में कभी मुखर होकर, तो कभी इशारों में उन्होंने अपनी बात कही. अहमद नदीम क़ासमी की ऐसी ही एक ग़ज़ल के चंद अशआर, ‘‘हुक्मरानों ने उकावों का भरा है बहु रूप/भोली चिड़ियों को जगाना भी तो फ़नकारी है.’’ इन चंद मिसालों से जाना जा सकता है कि तरक़्क़ीपसंद तहरीक से जुड़े शायरों ने मुल्क की आज़ादी के लिए अपना सब कुछ झौंक दिया था.

 

अंग्रेज़ी हुकूमत के सैकड़ों जुल्म सहे, जे़ल में हज़ारों यातनाएं सहीं. अपने परिवार से दूर रहे, लेकिन बग़ावत का झंडा नहीं छोड़ा. उसे बुलंद करे रहे. मुल्क की आज़ादी में उनकी बेमिसाल कुर्बानियां शामिल हैं.