राकेश चौरासिया
खालसा पंथ के प्रथम गुरू ‘गुरु नानक देव जी’ परम ज्योति से ऊर्जावान एक ‘दिव्य ज्योति’ थे. उनका संपूर्ण जीवन एक ओंकार, प्रेम, करुणा और मानवता के सुमिरन और सेवा में व्यतीत हुआ. उन्होंने अपने अनुयायियों और अनुचरों को भी मानवता-पूर्ण जीवन व्यवतीत करने और प्रत्येक जीव के प्रति सद्भाव रखने का मूल मंत्र दिया. कई लोग गुरू नानक देव जी के धर्म के बारे में प्रश्न करते हैं कि गुरू साहिब स्वयं किस धर्म का पालन करते थे? इस बारे में यही कहा जा सकता है कि साधु सर्व समाज के लिए होते हैं, उनका किसी धर्म या परंपरा का पालन करना उनका निजी विषय हो सकता है. किंतु उनका ज्ञान और उनकी देशना ही वास्तविक धर्म होता है. बुद्ध पुरुषों और दिव्य पुरुषों के बारे में संत कबीर की वाणी को उद्धृत करते हुए अक्सर कहा जाता है, ‘‘जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान, मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान.’’ इस दोहे का भावार्थ यह है कि किसी साधु की जाति नहीं होती. इसलिए किसी भी साधु की जाति जानने के बारे में उत्सुक नहीं होना चाहिए. अपितु किसी भी साधु का ज्ञान महत्वपूर्ण होता है. साधु की पहचान उसके ज्ञान से होती है. इसलिए साधु से मात्र ज्ञान पूछना और धारण करना चाहिए. जिस प्रकार, तलवार का मोल यानी कीमत होती है और म्यान का कोई मोल नहीं होता. यानी साधु का ज्ञान ही उसकी पहचान होती है.
क्या गुरु नानक देव हिंदू थे?
सिख परंपरा के नवम गुरू श्री गुरू तेग बहादुर जी के बलिदान के पश्चात उनकी गद्दी श्री गुरु गोबिंद सिंह जी को मिली थी और वे 11 नवम्बर सन् 1675 को 10वें गुरू बने थे. गुरु गोबिंद सिंह जी ने सन 1699 में बैसाखी के दिन मुगलों के अत्याचार से दीर्घकालीन संघर्ष की पटकथा लिखते हुए खालसा पंथ की स्थापना की थी. इसके बाद ही खालसा पंथ यानी सिख पंथ का प्रारंभकाल शुरू होता है. इसलिए गुरु नानक देव जी सिखों के प्रथम गुरू होते हुए भी स्वयं सिख न हुए.
हालांकि, लोक व्यवहार और आध्यात्म में गुरु नानक देव जी ने न तो पारंपरिक हिंदू धर्म का पालन किया और न ही किसी अन्य धर्म का. उनके मूल मंत्र - ‘एक ओंकार’ यानी ‘ईश्वर एक है’ और ‘सरबत दा भला’ यानी ‘सभी का कल्याण हो’, थे. और उनके यही मूल मंत्र उनके जीवन का धर्म कहा जा सकता है, जिसका कोई भी ब्रांड नेम नहीं था.
गुरु नानक देव जी ने भाई मरदाना के साथ भारत, बांग्लादेश, श्रीलंका, अरब, ईरान और चीन की कई लंबी आध्यात्मिक यात्राएं कीं और उन्होंने ज्ञान के प्रकाश से मानव को आलोकित किया और मानवता के सिद्धांत को अपने ढंग और अपनी वाणी से पुनर्प्रतिपादित किया. गुरु नानक देव जी ने सदियों पुराने रीति-रिवाजों को चुनौतियां दीं और एक सच्चे समाज सुधारक के तौर पर एक ही ईश्वर के गुणगान और सिमरन पर जोर दिया, जिसे सभी मानते हैं, लेकिन प्रभुता को अलग-अलंग ढंग, परंपरा और स्वरूपों में. गुरु नानक देव जी का जोर इस बात पर था कि ईश्वर का चिंतन और आराधना, मूल है और रीति-रिवाज गौण हैं. ‘ना कोई हिंदू, ना कोई मुसलमान’ इस सूत्र की स्थापना के साथ गुरू नानक देव जी ने सामाजिक भेदभाव की परंपराओं पर गहरी चोट की. इसके लिए उन्होंने ‘लंगर’ यानी भंडारा या सामूहिक भोज की अवधारणा की शुरुआत की, जिसमें किसी भी धर्म, जाति-पांति, अमीर-गरीब या किसी वर्ग के व्यक्ति एक साथ-एक पांत में बैठकर सहभोज करते हैं. प्रारंभिक काल में गुरू नानक देव जी के अनुयायी गांव और मोहल्लों के घरों से भोजन या खाद्य सामग्री एकत्रित करते थे, उसी से लंगर बनता था. अब चंदा या गुरुद्वारों की आय के रूप में एकत्रित धन से लंगर बनता है.
गुरु नानक देव जी ने लैंगिक समानता, पर्यावरण की सुरक्षा और सार्वभौमिक दायित्व पर आधारित समाज को मूर्तरूप देने के लिए कार्य किया. उनके प्रवचन और वाणी सभी धर्म-वर्ग के भेदभाव समाप्त करके सांप्रदायिक सद्भाव की वकालत करते जान पड़ते हैं. गुरु नानक देव जी से उनका सारा दिव्य ज्ञान भाई मरदाना जी के संगीत के साथ वाणी के तौर पर निसृत हुआ. बाबा नानक ने जिव्हा से ईश्वर का स्तुतिगान किया और उसके साथ भाई मरदाना जी के रबाब के सुरों से प्रेम और करुणा की धारा बही. पांचवें सिख गुरु अर्जन देव जी ने गुरू नानक देव जी की इन वाणियों से पूरित ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ का संकलन भाई मरदाना जी के पौत्र भाई बलवंड और सत्ता की सहायता से किया था.
ऐसा कहा जाता है कि एक मर्तबा भाई मरदाना जी ने गुरु नानक देव जी से पूछा कि उनका धर्म क्या है, ताकि वे अपने गुरू के ही धर्म में दीक्षित हो सकें. तब गुरु नानक देव जी ने भाई मरदाना जी को बताया कि एक मुसलमान को एक अच्छा-सच्चा मुसलमान बनना चाहिए और एक हिंदू को एक अच्छा-सच्चा हिंदू बनने का उपक्रम करना चाहिए. यानी गुरु नानक देव जी के कहने का आशय था कि आस्था का ब्रांड महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि आप जिस भी आस्था के हों, उस आस्था का शुद्ध रूप में और आध्यात्मिक तौर पर सत्य एवं निष्ठा से पालन करें.
सुविचारित मत है कि बाबा नानक जी ने ‘एक ओंकार’ को जीवन पर्यंत जिया और परंपराओं का खंडन किया. इसलिए उन्हें हिंदू, मुसलमान या सिख या किसी अन्य धर्म के व्यक्ति के रूप में चित्रित करना उचित न होगा. क्योंकि वे पूरी मानवता के लिए हैं.
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