जौन एलिया किस लिए प्रसिद्ध है ?

Story by  राकेश चौरासिया | Published by  [email protected] | Date 04-12-2023
John Elia
John Elia

 

राकेश चौरासिया

‘‘जो देखता हूं वही बोलने का आदी हूं, मैं अपने शहर का सबसे बड़ा फसादी हूं.’’ जॉन एलिया का पूरा नाम सैयद हुसैन जौन असगर नकवी था. लिखने को अक्सर उन्हें जौन एलिया ही लिखा जाता है. जौन एलिया वक्त की नब्ज को बखूबी समझते तो थे ही, वे बेलाग-लपेट और साफ-सपाट कहने के आदी भी थे. इसलिए उनके लफ्ज किसी कटार की वार से कम न थे, जो सीधे कलेजे के पार जाते थे. बुरा लगे, तो लगा करे. अपने अकेलेपन की मस्ती में मस्त जॉन एलिया ऐसे ही थे.

उर्दू के इस महान शायर ( Urdu Poet ) जॉन एलिया ( John Eliya ) की यौम-ए-विलादत 14 दिसंबर 1931 और अमरोहा में जन्मे यह लाड़ला शायर अपने दौर में सबसे दानिशवर शायरों में शुमार रहे. जॉन एलिया भारतीय उप महाद्वीप के महज महज भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान में पढ़े-सुने जाने वाले शायर ही नहीं थे, बल्कि उनकी मकबूलियत ( Famous ) का परचम सुदूर अरब देशों से पूरी अदबी दुनिया तक भी लहराता आ रहा है. जौन एलिया ( Jaun Aliya ) ने 8 नवंबर 2002 ( Death Anniversary ) को इस फानी दुनिया से अलविदा कह दिया था. उनके चाहने वाले उनके यौम-ए-विलादत ( Birthday ) के दिन 14 दिसंबर को खिराजे अकीदत पेश कर रहे हैं, तो नए-नवेलों के लिए यह कौतुहल का मसला है और वे सवाल कर रहे हैं, जौन एलिया किस लिए प्रसिद्ध है?

जौन एलिया और उर्दू और हिंदी दोनों जुबानों में आज भी शिद्दत से पढ़े जाते हैं. वे जमाने की बदलती रवायतों को तो निशाना बनाते ही थे. मगर, खासतौर पर जौन एलिया इश्को-आशिकी के खमो-पेचों से हुए जख्मी दिलों के लिए मरहम से कम न हैं. उनकी शायरी में हर दौर के उन नौजवानों को जौन एरिया की शायरी अपने किस्से जैसी लगती है, जिन-जिन ने प्यार-मोहब्बत में चोट खाई है.

उनके निजी नाकामी और अदब की दुनिया में उरूज की कई वजहे हैं. हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बंटवारे ने न जाने कितने दिलों का कत्ल किया होगा. जौन एलिया भी उन्हीं में से एक थे. लाखों लोगों को खूंरेजी से दो-चार होना पड़ा, तो लाखों की आबादी का इधर से उधर जाना हुआ. शहरों में सन्नाटा छा गया था और मोहल्ले के मोहल्ले वीरान हो गए थे. इस अफरा-तफरी के माहौल में जौन एलिया का चमन भी उजड़ गया. 18 साल की उम्र में जौन एलिया को फरहा नाम की अपनी जाने-तमन्ना से बेहद मुश्किल अलगाव झेलना पड़ा. फरहा अपने वालिदेन के साथ कराची चली गईं और वहां जमाने के दस्तूर के मुताबिक किसी और से निकाह कर लिया. जब ये खबर जौन एलिया तक पहुंची, तो उनकी रही-सही उम्मीद भी टूट गई. हालांकि वो खुद भी कराची में जा बसे. मगर अपनी माटी छूट जाने का गम भी कम न था. इसी दौरान उनके बड़े भाई पलायन कर गए. माता-पिता का साया हट ही चुका था. निपट अकेलेपन की इस लंबी मायूसी ने जौन एलिया को दर्दे-दिल तो दिया, लेकिन महज इन जख्मों ने उनकी रहती दुनिया तक सराही जाने वाली शायरी का खाद-पानी बन गया.

‘‘मुस्तकिल बोलता ही रहता हूं,

कितना खामोश हूं मैं अंदर से.’’

 

‘‘करब-ए-तन्हाई वो शे है - के खुदा!

आदमी को पुकार उठता है.’’

 

जौन एलिया की शादी भी हुई और चार बच्चे भी हुए, लेकिन बेगम से तलाक हो गया, तो वे फिर निपट अकेले रह गए. उनके ख्यालों के आईने में अकेलेपन, बेचैनी, जुस्तजू मोहब्बत की तड़प और चीखें साफ दिखती हैः

 

ये है इक जबर, इत्तेफाक नहीं

जौन होना कोई मजाक नहीं

 

चबा लें क्यों न खुद अपना ही ढांचा

तुम्हें रातिब क्यों मुहैय्या करें हम


नहीं दुनिया को जब परवा हमारी

तो फिर दुनिया की परवा क्यों करें हम

 

जौन एलिया ने अपनी बेजोड़ विचारोत्तेजक शायरी के कारण एक शायर के रूप में बेपनाह शोहरत पाई. वो अपनी शायरी में प्रेम, हानि, अस्तित्ववाद और सामाजिक मुद्दों के विषयों पर रोशनी डालते थे. उनकी अनूठी शैली, समृद्ध भाषा और अपने पाठकों की भावनाओं से जुड़ने की क्षमता ने उनकी स्थायी लोकप्रियता में योगदान दिया है. जटिल भावनाओं और दार्शनिक विचारों को प्रासंगिक और सुलभ तरीके से व्यक्त करने की एलिया की क्षमता ने व्यापक दर्शकों को प्रभावित किया है, जिससे एक शायर के रूप में उनकी स्थायी लोकप्रियता बढ़ी है.

उस जमाने में डेविड ह्यूम, इमैनुएल कांट, कार्ल मार्क्स, अरस्तू, प्लेटो, आर्किमिडीज, सुकरात आदि जैसे दार्शनिकों के बारे में बात करते समय भारत और पाकिस्तान में कोई भी उनके करीब नहीं था. ‘‘अंजुमन में ये मेरी खामोशी, बुर्द-बारी नहीं है - वहशत है.’’ उनके ज्ञान का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वह दिन, रात, मिनट और सेकंड यहां तक कि वैदिक कैलेंडर की सभी गणनाएं जानते थे. वह अंग्रेजी, उर्दू, अरबी, फारसी, संस्कृत, हिंदी और हिब्रू पढ़ने, लिखने और बोलने में सिद्धहस्त थे.

 

तंज? जोड़ी-ए-तबस्सुम में...

क्या तकल्लुफ की क्या जरूरत है?


शहर आबाद कर के शहर के लोग...

अपने अंदर बिखरते जाते हैं...


यूं जो ताकता है आसमान को तू...

कोई रहता है आसमान में क्या...?


आप जो हैं अजल से ही बेनाम,

नाम मेरा कभी तो लीजिये.

 

वो लिखते रहे और लिखते रहे. उन्हें शायद खुद इसका अंदाजा न होगा कि उनकी शायरी आने वाली पीढ़ियों के लिए सरमाया हो जाएगी. तीन दशकों के बाद 1991 में उनकी पहली किताब ‘शायद’ साथ हुई थी. उनके आखिरी दौर में, उनके दोस्त खालिद अहमद अंसारी ने सात किताबें साया करवाईं थीं. 

 

आप बस मुझमें ही तो हैं, तो आप

मेरा बेहद ख्याल कीजियेगा.


है अगर वाकाई शराब हराम,

आप होठों से मेरे पीजियेगा.


इंतेजार हूँ अपना मैं दिन रात,

अब मुझे आप भेज दीजिएगा.


है मेरे जिस्म-ओ जान का मजा क्या?

मुझसे बस ये कभी ना पूछियेगा.


मुझसे मेरी कमाई का सर-ए-शाम,

पै पै हिसाब लिजियेगा.


जिंदगी क्या है, इक हुनरमंद बनना है

तो करीने से जहर पीजिएगा.


मैं जो हूँ ‘जौन-एलिया’ हूँ जनबा

इस का बेहद लिहाज कीजिएगा