जन्मदिवस : जिगर मुरादाबादी के दौर का इकलौता शायर मुईन अहसन जज़्बी

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  onikamaheshwari | Date 20-08-2023
 birthday of poet Moeen Ahsan 'Jazzbi'
birthday of poet Moeen Ahsan 'Jazzbi'

 

जाहिद खान

तरक़्क़ीपसंद तहरीक से जो शायर इसकी इब्तिदा से ही जुड़े हुए थे, उनमें एक आला नाम मुईन अहसन जज़्बी का भी है. तरक़्क़ीपसंद शायरी के वे अलमबरदार थे. उनका नाम मजाज़, फै़ज़, मख़्दूम और मजरूह सुल्तानपुरी जैसे शायरों के साथ एहतिराम से लिया जाता था. 

अंजुमन तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफीन के कयाम से पहले ही वे अपनी मशहूर ग़ज़ल ‘‘मरने की दुआएं क्यूं मांगू जीने की तमन्ना कौन करे’’ लिख चुके थे. इस ग़ज़ल ने उन्हें ख़ूब शोहरत दी. आलम यह था कि अपने ज़माने में उनकी शायरी हसरत मोहानी से लेकर जिगर मुरादाबादी तक पसंद करते थे. 

जिगर मुरादाबादी ने तो उनको अपने बाद के दौर का अकेला शायर बतलाया था. ख़ुद जज़्बी भी जिगर की शायरी के बड़े मद्दाह थे. उनकी शायरी में जो ज़बान की रवानगी दिखाई देती है, वह उन्होंने जिगर मुरादाबादी से ही सीखी है. जज़्बातियत, जज़्बी की शायरी की अहम शनाख़्त है. 

उन्होंने एक से बढ़कर जज़्बातियत और दर्द में डूबी ग़ज़लें लिखीं. ‘‘इंतिहा-ए-ग़म में मुझको मुस्कराना आ गया/हाथ इख़्फाए-मुहब्बत का बहाना आ गया.’’

मुईन अहसन जज़्बी दरअसल रोमानी शायर थे. हुस्न—ओ-इश्क़, जो ग़ज़ल की पहचान है, उस पर उन्होंने अनेक ग़ज़लें लिखीं. ग़ज़ल के यह ख़ूबसूरत अशआर भी उन्हीं के हैं,‘‘जब कभी किसी गुल पर जरा निखार आया/कम निगाह ये समझे कि मौसम—ए-बहार आया.’’ 

आशिक़-माशूक़ की दिल-आवेज़ हरकतें, आपस में रूठना-मनाना, शिकवे-शिकायत जज़्बी की शायरी में हैं. गोकि उनकी शायरी में रंगीन-बयानी है, तो ख़ुश-लहज़ा भी है. उनका ये अंदाज़ देखकर, पढ़ने वालों को यक़ीन ही नहीं होता कि यह भी जज़्बी का कारनामा है.

‘‘तुझ से नज़र मिला कर दीवाना हो गया मैं/कुछ राज़ बन गया कुछ अफ़्साना हो गया मैं.’’ अपनी एक दूजी ग़ज़ल में वे एलान करते हैं,‘‘अपनी निगाह-ए-शौक़ को रुस्वा करेंगे हम/हर दिल को बे-क़रार-ए-तमना करेंगे हम.’’ 

मुहब्बत की चाश्नी में डूबी उनकी इन ग़ज़लों के क्या कहने. उर्दू अदब में उन जैसे ग़ज़ल-सरा बहुत कम हुए हैं.

21 अगस्त, साल 1912 को सूबा उत्तर प्रदेश के मुबारकपुर, जिला आज़मगढ़ में जन्मे मुईन अहसन जज़्बी की इब्तिदाई तालीम मुबारकपुर में ही हुई. 

इंटर की तालीम के लिए वे जब आगरा के सेंट जॉन्स कालेज पहुंचे, तो वहीं उनकी पहली मुलाकात मजाज़ और ‘फ़ानी’ बदायुनी से हुई. 

मजाज़ और ‘फानी’ बदायुनी की सोहबत और मयकश अकबराबादी की रहनुमाई में मुईन अहसन जज़्बी की शायरी बराबर संवरती-निखरती रही.

जज़्बी की आगे की तालीम लखनऊ और दिल्ली में हुई. वे जब साल 1939 में लखनऊ पहुंचे, तो यह तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफीन का मरकज़ बना हुआ था. 

अली सरदार जाफ़री और सिब्ते हसन से नजदीकियां बढ़ीं, तो वे भी तरक़्क़ीपसंद तहरीक से जुड़ गए. यहां तक कि अंजुमन तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफीन के सरगर्म मेंबर बन गए. 

जाफ़री और सिब्ते हसन के साथ उन्होंने अंजुमन के रिसाले ‘नया अदब’ में काम किया. अलीगढ़ में एम.ए. की पढ़ाई के दौरान प्रगतिशील लेखक संगठन में उनकी सक्रियता बनी रही. 

अलीगढ़ में उनके हमराह अली सरदार जाफरी, मजाज़, सिब्ते हसन के अलावा जांनिसार अख़्तर, ख़्वाजा अहमद अब्बास और हयातुल्लाह अंसारी आदि थे. 

इस ग्रुप ने उस वक़्त अलीगढ़ यूनीवर्सिटी में एक हलचल मचाई हुई थी. इस ग्रुप की हंगामा—ख़ेज़ दास्तानों की चर्चा यूनीवर्सिटी के बाहर भी होती थी.

मुईन अहसन जज़्बी ने पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद कुछ अरसे तक दिल्ली में मासिक पत्रिका ‘आजकल’ में अस्टिंट एडीटर के तौर पर ख़िदमत दी. कुछ मुद्दत तक मुंबई रहे. 

मुईन अहसन ‘जज़्बी’ के स्वर कोकिला सरोजिनी नायडू से बहुत अच्छे तआल्लुक थे. उन्हीं की पहल पर जज़्बी को अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी में फैलोशिप मिली और उन्होंने अपनी पीएचडी मुकम्मल की. 

साल 1945 में वे अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में लेक्चरर हो गए और यहीं से रिटायर हुए. उर्दू अदब में मुईन अहसन जज़्बी का आग़ाज़ धमाकेदार रहा. साल 1934 में लाहौर से छपने वाले मासिक रिसाले ‘हुमायूं’ में जब उनकी ग़ज़ल ‘‘मरने की दुआएं क्यूं मांगू’’ शाए हुई, तो इसने हंगामा कर दिया. ग़ज़ल ख़ूब मक़बूल हुई. 

इतनी कि यह ग़ज़ल जज़्बी की पहचान बन गई. दर्द में डूबी इस ग़ज़ल के जज़्बात, हर नौजवान को अपने से लगे. ‘‘मरने की दुआएं क्यूं मांगूं, जीने की तमन्ना कौन करे/ये दुनिया हो या वो दुनिया अब ख़्वाहिश-ए-दुनिया कौन करे.’’ जज़्बी ने कम लिखा, मगर मानी—ख़ेज़ लिखा. उनके बेश्तर अश्आर और मिस्रे, मुहावरों का दर्जा रखते हैं. 

साल 1960 के बाद तो उनकी बहुत कम रचनाएं सामने आईं. शायरी में वे हमेशा इस बात के क़ायल रहे, जब तक शायरी अंदर से न आए, शायर के जज़्बात उसे लिखने पर मजबूर न करें, तब तक उस पर हाथ न आजमाया जाए.

मुईन अहसन जज़्बी की एक और ग़ज़ल ‘मौत’ भी काफ़ी मक़बूल हुई. इस ग़ज़ल के फ़ै़ज़ भी मुरीद थे. यह लंबी ग़ज़ल है और इस ग़ज़ल का एक-एक शे’र नायाब है. 

आज भी इसको सुनने से अलग ही नशा तारी हो जाता है. ‘‘अपनी सोई हुई दुनिया को जगा लूं तो चलूं/अपने ग़मखाने में एक धूम मचा लूं तो चलूं/....मेरे माथे पे अभी तक है शराफ़त का ग़ुरूर/ऐसे वहमों से अभी ख़ुद को निकलूं तो चलूं.’’ जज़्बी उर्दू अदब की क्लासिकी रिवायत की नुमाइंदगी करते हैं. रवायती अल्फ़ाज़, अलामात और इस्तिआरों को उन्होंने नये मायने दिए. उन्हें आगे बढ़ाया. 

ग़ज़ल की रवायत से वाबस्ता रहते हुए सियासी मौजूआत को इस तरह पेश किया कि ग़ज़ल की ख़ूबसूरती भी बरक़रार रही और अपनी बात का इज़हार भी कर दिया. नज़्म की बजाय मुईन अहसन जज़्बी ने ग़ज़ल ही ज़्यादा लिखी. उनकी इन ग़ज़लों में बला का हुस्न नज़र आता है.

मुईन अहसन जज़्बी ने अपनी ज़िंदगी के तजुर्बों से जो सीखा, उसे ही अल्फ़ाज़ों में बयां किया है. उनकी शायरी में सिर्फ़ नाउम्मीदी और माज़ी के शिकवे-शिकायत ही नहीं है, मुस्तक़बिल का एक ख़्वाब भी है. 

उम्मीद का एक चिराग़ है, जिसकी रोशनी पूरे जहां को मुनव्वर करती है. ‘‘ज़िंदगी है तो बहरहाल बसर भी होगी/शाम आई है, तो आने दो सहर भी होगी.’’ दरअसल, अपनी पूरी ज़िंदगानी में जज़्बी ने जो उतार-चढ़ाव देखे थे, वह तज़्किरा उनकी शायरी में बार-बार आता है. 

वे लोगों को इशारों-इशारों में कुछ बातों की तरफ आगाह भी करते हैं. ‘‘हम दह्र के वीराने में जो कुछ भी नज़ारा करते हैं/अश्कों की ज़ुबां में कहते हैं, आहों में इशारा करते हैं.’’ ‘फ़रोज़ां’, मुईन अहसन जज़्बी का पहला ग़ज़ल का मजमुआ है, जो साल 1943 में शाया हुआ था.

वहीं ‘सुखन-ए-मुख़्तसर’ (साल 1960) उनकी ग़ज़लों का दूसरा मजमूआ है. साल 1985 में आई ‘गुदाज़—ए—शब’ जज़्बी की आख़िरी किताब है. उन्होंने शाइरी के अलावा आलोचना की कई अहम किताबें भी लिखीं. ‘हाली का सियासी शऊर’ मौजू़ पर उनकी एक पीएचडी है. 

इस पीएचडी पर जज़्बी ने काफ़ी रिसर्च की थी. यही वजह है कि ‘हाली का सियासी शुऊर’ शायर अल्ताफ़ हुसैन हाली को समझने के लिहाज़ से बेहतर किताब तस्लीम की गई.

उर्दू अदब की बेमिसाल ख़िदमत के लिए मुईन अहसन जज़्बी को कई सम्मान और पुरस्कारों से नवाज़ा गया. ‘ग़ालिब अवार्ड’, ‘इम्तियाज़-ए-मीर अवार्ड’, ‘महाराष्ट्र उर्दू अकादमी अवार्ड’, ‘हरियाणा उर्दू अकादमी अवार्ड’ और ‘इक़बाल सम्मान’ के अलावा उन्हें अमेरिका के प्रतिष्ठित सम्मान ‘कनीज हसनैन मैमोरियल अवार्ड’ से भी सम्मानित किया गया.

मुईन अहसन जज़्बी इंसानियत के बड़े पैरोकार थे। किसी भी आर्ट को सीखने के लिहाज़ से वह इसका होना बेहद ज़रूरी मानते थे. उनका मानना था,‘‘अच्छा आदमी ही अच्छा शायर हो सकता है. जिन लोगों में इंसानियत नहीं है, वे कोई बड़ा काम नहीं कर सकते.’’ वहीं उनके तईं ‘‘ग़ज़ल में थॉट, कंटेंट असल चीज़ है.’’ उनकी यह बात सही भी है. 

बिना विचार के बेहतर नज़्म निगारी, नस्र निगारी कुछ भी नहीं हो सकता. मुईन अहसन जज़्बी ने दीगर तरक़्क़ीपसंद अदीबों की तरह आज़ादी की तहरीक में अपनी सक्रिय हिस्सेदारी की. 

अपने कलाम से वे अवाम को बेदार करते रहे. एक लंबे संघर्ष के बाद मुल्क को आजादी मिली, मगर उसके साथ ही वह दो हिस्सो में बंट गया. पार्टीशन को मुईन अहसन जज़्बी मुल्क की सबसे बड़ी ट्रैजिडी मानते थे. 

इस घटनाक्रम पर उन्होंने उस वक़्त ‘तक़्सीम’ के उन्वान से एक नज़्म भी लिखी थी, जो काफ़ी चर्चित रही. ‘‘क्या यही इंक़िलाब है, कल्ब इधर, जिगर उधर/नाला ए-बेकरार इधर, शोरिशे-चश्मे-तर उधर .’’

मुईन अहसन जज़्बी की दिली तमन्ना थी कि उनकी कुल्लियात उनके जीते-जी छप जाए. लेकिन अफ़सोस, वह हो न सका. 

जज़्बी के इंतिक़ाल के बाद साहित्य अकादमी, दिल्ली ने उनके सारे अदब को ‘कुल्लियात-ए-जज़्बी’ के नाम से शाया किया. इस कुल्लियात में ‘गुदाज—ए-शब’ के बाद लिखे गये उनके तमाम कलाम के अलावा कुछ अप्रकाशित रचनाएं भी शामिल हैं. 

मुईन अहसन जज़्बी ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था,‘‘यदि किसी की शायरी उसकी मौत के पचास साल बाद तक ज़िंदा रह जाती है, तो मान लें कि वह शायरी है और शायर बड़ा है.’’ 

उनकी ग़ज़ल ‘‘मरने की दुआएं क्यों मांगू’’ साल 1934 और ‘‘अपनी सोई हुई दुनिया को जगा लूं’’ साल 1941 में आईं थीं. 

इन ग़ज़लों को आये हुए आठ दशक से ज़्यादा हो गए, मगर आज भी यह ग़ज़ल उसी तरह मक़बूल हैं. इस लिहाज़ से हम कह सकते हैं कि जज्बी अज़ीम शायर थे और उनकी शायरी माया-ए-नाज़ है.