राकेश चौरासिया
भारत की गंगा-जमुनी तहजीब सदियों से हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच प्रेम, भाईचारा और सांप्रदायिक सौहार्द का प्रतीक रही है. कहीं हिंदू बेटियों की शादी में मुस्लिम परिवार भात भरते हैं, तो कहीं मस्जिद के निर्माण को हिंदू भाई आगे आते हैं. इन दिनों हिंदू-मुस्लिम भाईचारा कुछ देश विरोधी ताकतों के निशाने पर है. विदेशी एजेंसियां भारतीय अर्थव्यवस्था की दु्रत गति देखकर थर्रा उठी हैं और वे अंग्रेजों की ‘फूट डालो-राज करो’ की कामयाब नीति को फिर से अमल में लाना चाहते हैं.
किंतु 2024 में भी ऐसी कई खबरें नमूदार हुईं, जिन्होंने विदेशी ताकतों के नापाक मंसूबों को अंगूठा दिखाया और साबित किया कि मुल्क में सांप्रदायिक सौहार्द की जड़ें इतनी मजबूत हैं कि आसमान चांद-सूरज के रहते तक खत्म नहीं किया जा सकता.
तमाम तरह की बतकहियों के बीच, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने देश के मुस्लिमों को लेकर बड़ी बात कही. उन्होंने कहा कि देश में इस्लाम को कोई खतरा नहीं है और सभी को मिलकर देश की प्रगति में योगदान देना चाहिए. उन्होंने एक मौके पर ये भी कहा कि हर मस्जिद के नीचे मंदिर क्यों खोजना. उनके ये बयान दर्शाते हैं कि सांप्रदायिक सौहार्द की जड़ों को और ज्यादा मजबूत करने के लिए के लिए विभिन्न संगठनों द्वारा प्रयास किए जा रहे हैं.
आइए, जायज लेते हैं उन परिघटनाओं का, जो इस साल सुर्खियां बनी और आपसी भाईचारे की मिसाल बन गईं -
मुस्लिम दंपति ने जमीन का मुआवजा मंदिर को किया दान
Muslim couple donated compensation for land to the temple
मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में एक मुस्लिम दंपत्ति ने गंगा-जमुनी तहजीब की बेहतरीन मिसाल कायम की है. उन्होंने प्रशासन से मिले 7 लाख 51 हजार रुपए के मुआवजे को मंदिर कमेटी को दान कर दिया. यह खबर हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहजीब की शानदार मिसाल है. यहां के बेगमगंज के बीना नदी के किनारे एडवोकेट अजीज खां मंसूरी की बीवी हाजरा बी की भूमि पर गोकुलदास की तरी के नाम से मशहूर हनुमान जी का मंदिर बना हुआ है.
उक्त जमीन बहुउद्देशीय प्रोजेक्ट में आने की वजह से सरकार ने किसानों को मुआवजा दिया, जिसमें मंदिर का मुआवजा भी था. ऐसे में प्रशासन ने मंदिरा का मुआवजा हाजरा बी को दिया, क्योंकि जिस जमीन पर मंदिर बना है, वह जमीन हाजरा बी के नाम से राजस्व रिकॉर्ड में दर्ज है. मगर, एसडीएम सौरभ मिश्रा से मिले चेक को हाजरा बी ने अपने पति अजीज खां के साथ मिलकर मंदिर के नाम से पूरी राशि दे दी.
हाजरा बी ने अपने पति अजीज खां के सात न मिलकर हिंदू मुसलमान के बीच नफरत की दीवार खड़ी करने वालों के लिए शानदार मिसाल कायम की. वहीं मंदिर कमेटी ने भी यकीन दिलाया कि दूसरी जगह जहां मंदिर निर्माण होगा, शिलालेख पर अजीज खां का नाम भी सुनहरे आक्षरों में लिखा जाएगा.
एनुल अंसारी के लिए जितिया व्रत करती है गुंजरी देवी
Gunjari Devi observes Jitiya fast for Enul Ansari
धनबाद के टुंडी प्रखंड के रामपुर गांव में रहने वाली गुंजरी देवी की कहानी समाज के लिए साम्प्रदायिक सद्भाव और इंसानियत का एक आदर्श उदाहरण पेश करती है. 70 वर्षीय गुंजरी देवी पिछले 35 सालों से एक मुस्लिम युवक एनुल अंसारी को अपना पुत्र मानकर जितिया व्रत करती आ रही हैं.
यह व्रत वह अपने दत्तक पुत्र माणिक रजक के साथ-साथ एनुल की लंबी उम्र के लिए करती हैं. गुंजरी देवी के जीवन में संतान सुख नहीं था, लेकिन उन्होंने अपने परिजनों से माणिक रजक को गोद लिया. माणिक और एनुल बचपन से अच्छे दोस्त थे. इस रिश्ते को देखते हुए गुंजरी देवी ने सिर्फ माणिक के लिए ही नहीं, बल्कि एनुल के लिए भी जितिया पर्व शुरू किया, जो आज भी जारी है.
वह रक्षा सूत्र बांधकर दोनों बच्चों की लंबी उम्र और खुशहाली की कामना करती हैं. गुंजरी देवी कहती हैं, ‘‘मुझे कभी यह महसूस नहीं हुआ कि एनुल दूसरे धर्म से है. वह मेरे लिए हमेशा से मेरा बेटा है, और वह अपने हक से मेरे बेटे की तरह ही सब कुछ करता है.’’
एनुल अंसारी, जो अब खुद एक परिवार के मुखिया हैं, कहते हैं कि बचपन से ही गुंजरी देवी ने उन्हें अपने बेटे की तरह प्यार और स्नेह दिया. वह उनके घर जाकर हिंदू पुत्र की भांति उनके पैर छूकर आशीर्वाद लेते हैं और हर साल जितिया व्रत के दौरान उनसे प्रसाद भी प्राप्त करते हैं. एनुल कहते हैं, ‘‘मैंने उनके गर्भ से जन्म नहीं लिया, लेकिन उन्होंने मुझे एक बेटे का भरपूर प्यार दिया है.’’
अयोध्या की इस रामलीला के 80 फीसद मुस्लिम भागीदार
Ram Lila (file photo)
राम लला की नगरी अयोध्या में मुमताज नगर इलाके की एक रामलीला ऐसी है, जिसके संचालन में मुस्लिम समाज की बड़ी भागीदारी रहती है. जानकारी के अनुसार इस रामलीला कमेटी से कुल 1100 लोग जुड़े हुए हैं जिसमें से करीब 800 से ज्यादा मुस्लिम समुदाय से हैं और 11 कलाकार हैं.
मुमताज नगर रामलीला रामायण समिति के प्रबंधक सैयद माजिद अली के अनुसार लोगों की धार्मिक भावनाओं को ध्यान में रखते हुए मुख्य किरदार हिंदू कलाकार ही करते हैं. माजिद खुद पेशे से डॉक्टर हैं और उत्तर प्रदेश के स्वास्थ्य विभाग में कार्यरत हैं और यूपी में स्वास्थ्य संबंधी राष्ट्रीय कार्यक्रमों को लागू करने की जिम्मेदारी संभालते हैं.
उन्होंने बताया कि पिछले छह साल से वह रामलीला समिति से जुड़े हुए हैं. जब दशहरा आता है, तो वह हर साल छह सप्ताह के लिए खुद को भगवान राम को समर्पित कर देते हैं. माजिद ने कहा कि इस रामलीला की शुरुआत उनके पिता ने 1963 में सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देने और हिंदू-मुस्लिम भाईचारे को मजबूत करने के लिए की थी. यह रामलीला दोनों समुदाय के लोगों को एक सूत्र में बांधती है और संतुलन बनाने में मदद करती है.
बांदा के मोहर्रम में हिंदू बेटियां मायके आती हैं, बहुएं नहीं जातीं ससुराल से
Rama's Dhal in Banda Moharram
बुन्देलखण्ड के बांदा में मोहर्रम हिन्दू मुस्लिम सम्प्रदायों के बीच ऐसा समन्वय स्थापित करता है, जिसकी मिसाल पूरे देश में मिलना नामुमकिन है. मातमी त्योहार मोहर्रम यूं तो मुस्लिम समुदाय का त्योहार है, लेकिन पूरे मुल्क में बांदा एक ऐसा इकलौता जिला है, जहां एक ब्राह्मण ने मोहर्रम में अलाव खेलने और ढाल उठाने की परंपरा शुरू की थी.
एक खास बात यह भी है कि यहां मुहर्रम की वजह से बेटियां अपने मायके आ जाती हैं और बहुएं अपने मायके जाने का प्रोग्राम रद्द कर देती है. इस सांप्रदायिक सौहार्द की नींव एक मराठा सैनिक रामा ने रखी थी. करीब 275 साल पहले रामा ने मुहर्रम में ढाल सवारी की शुरुआत की थी, जो आज भी बरकरार है. बताते हैं कि सदियों पहले मुहर्रम में मुस्लिम ताजिया उठाते थे.
इसी दौरान महाराष्ट्र से बाजीराव पेशवा की सेना में शामिल रहे रामा ने 1750 ईस्वी में मोहर्रम में ढाल सवारी की शुरुआत की. मुहर्रम की नवमी को दहकते आग के अंगारों पर अकीदतमंदों ने ढोल ताशे की धुन पर थिरकते हुए हैरतअंगेज नजारा पेश किया.
इसके बाद आग से खेलने वाले अकीदतमंद भी ढाल सवारी उठाने लगे थे. इसके लिए रामा ने शहर के अलीगंज मोहल्ले में एक इमामबाड़ा भी स्थापित किया. बताया जाता है कि रामा की ढाल इतनी वजनी थी जिसे कोई दूसरा उठा नहीं पाता है, आज भी यह ढाल सवारी इमाम बाड़े में मोहर्रम में रखी जाती है. पत्रकार नजरें आलम ने बताते हैं कि इस त्यौहार को हिंदू-मुस्लिम एक साथ मिलकर मनाते हैं. रामा के वंशज आज भी उस इमामबाड़े को हर साल मोहर्रम में खोलते हैं.
यहां जाने में मुस्लिमों ने कभी भी परहेज नहीं किया. मुहर्रम के पहले ढाल सवारी उठाने वाले अकीदतमंद धूनी लेने के लिए इसी इमामबाड़े में आते हैं. यहां से धूनी लेकर मुस्लिम कर्बला की ओर जाते हैं. इस मोहर्रम को देखने के लिए गैर प्रांतों के लोग भी यहां आते हैं. बहू और बेटियां मोहर्रम के 10 दिन तक होने वाले कार्यक्रमों में शरीक होती हैं.
मस्जिद में मनाया गया गणेश उत्सव
Ganesh festival celebrated in the mosque
सांप्रदायिक सौहार्द और एकता की अनूठी मिसाल पेश करते हुए महाराष्ट्र के सांगली जिले के गोटखिंडी गांव की एक मस्जिद में पिछले 44 सालों से वार्षिक गणेश उत्सव मनाया जा रहा है और इस उत्सव के दौरान भगवान गणेश की मूर्ति स्थापित करती है.
हर साल की तरह इस साल भी युवाओं के एक समूह श्न्यू गणेश मंडलश् के सदस्यों ने मस्जिद के अंदर उत्सव मनाया और दोनों समुदायों के बीच सौहार्द की एक स्थायी मिसाल कायम की है. न्यू गणेश मंडल के अध्यक्ष इलाही पठान ने कहा कि हिंदू और मुसलमान हर साल गणेश उत्सव को बड़े उत्साह और भक्ति के साथ मनाते हैं.
मंडल के पूर्व अध्यक्ष अशोक पाटिल ने एक मराठी समाचार चौनल से कहा, ‘‘यह परंपरा 1961 में शुरू हुई थी, जब भारी बारिश के कारण स्थानीय मुसलमानों ने अपने हिंदू पड़ोसियों को मस्जिद के भीतर भगवान गणेश की मूर्ति रखने के लिए आमंत्रित किया था.’’
हालांकि यह उत्सव कई सालों तक नहीं मनाया गया, लेकिन 1980 में न्यू गणेश मंडल का गठन किया गया और तब से यह अनूठी परंपरा जारी है. पाटिल ने कहा, ‘‘इस मस्जिद में गणेश की मूर्ति स्थापित करने की परंपरा शुरू हुए 44 साल हो गए हैं.’’ मंडल के एक दूसरे सदस्य ने कहा कि पश्चिमी महाराष्ट्र के सांगली शहर से 32 किलोमीटर दूर स्थित गोटखिंडी गांव में मुहर्रम, दिवाली और ईद जैसे त्यौहार भी एक साथ मनाए जाते हैं.
अधिवक्ता मसूद मंजर करवाते हैं मां दुर्गा की पूजा
Advocate Masood Manzar organises worship of Maa Durga
गया में मां दुर्गा की पूजा में केवल हिंदू ही नहीं, बल्कि मुस्लिम भी हिस्सा लेते हैं. फतेहगंज पूजा पंडाल समिति में अधिवक्ता मसूद मंजर भी हैं. हालांकि इस मोहल्ले में एक भी मुस्लिम घर नहीं है, लेकिन 1998 में मसूद मंजर आपसी सौहार्द और भाईचारा बनाए रखने के लिए मोहल्ले के लोगों के सहयोग से पूजा पंडाल समिति स्थापित किया था. तभी से यह परंपरा चली आ रही है.
इस पूजा पंडाल समिति के मुखिया और अंगरक्षक के तौर पर एक मुस्लिम व्यक्ति हैं. गया शहर के कोतवाली थाना क्षेत्र में स्थित फतहगंज मोहल्ला है. यहां विगत 26 वर्षों से दुर्गा पूजा के अवसर पर मां दुर्गा की पूजा हो रही है. जिसके लिए एक औपचारिक आयोजन स्थल भी बनाया जाता है.
इस मोहल्ले में एक भी मुस्लिम घर नहीं है लेकिन 1998 में मसूद मंजर ने आपसी सौहार्द और भाईचारा बनाए रखना के लिए मोहल्ले के लोगों के सहयोग से पूजा पंडाल समिति को स्थापित किया था. तभी से यह परंपरा चली आ रही है. मंजर ने बताया, ‘‘अक्सर त्योहार के मौके पर सांप्रदायिक सद्भाव को बिगाड़ने की कोशिश सामाजिक तत्वों की होती हैं.
ऐसे में उस समय के वार्ड पार्षद और मेरे मित्र प्रमोद नवतिया के साथ हमलोग मिलकर बात की कि प्रत्येक साल दुर्गा प्रतिमा स्थापित करें और हम भी इस में शामिल रहेंगे. हम यहां से साम्प्रदायिक सद्भाव के भावना का संदेश देंगे. उसके बाद 1998 से यहां दूर्गा पूजा पंडाल स्थापित होने लगी और इसमें कई लोगों का सहयोग मिला है.’’
एक ही मंडप में हुए विवाह और निकाह
Marriage and Nikaah take place in the same pavilion
समाज में भले ही किन्नरों को हेय दृष्टि से देखा जाता हो, लेकिन भरतपुर में एक किन्नर नीतू मौसी ऐसी हैं, जिसका नाम जुबां पर आते ही लोगों की धारणा ही बदल जाती है. शहर निवासी किन्नर नीतू मौंसी हर साल गरीब बेटियों की शादी अपने खर्चे पर कराती हैं.
नीतू मौंसी हर साल 10 गरीब कन्याओं की शादी कराती हैं. वह पिछले 13 वर्षों में 130 गरीब हिंदू-मुस्लिम बेटियों की शादी करा चुकी हैं. एक ही पांडाल के नीचे हिंदू-मुस्लिम की बेटियों की शादी कराकर वह सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल पेश कर चुकी हैं. साल भर में जो भी बधाई मिलती है, उसका 80 प्रतिशत वह गरीब कन्याओं की शादी में खर्च कर देती है.
कन्या भ्रूण हत्या पर वह कहती हैं कि लोगों को बेटियों को जन्म देकर पालन-पोषण करना चाहिए, इससे प्रकृति का संतुलन बना रहे. किन्नर नीतू मौसी ने बताया कि 13 साल से गरीब कन्याओं की शादी करा रही हूं. इसमें हिंदू एवं मुस्लिम दोनों बेटियों को शामिल करती हूं. इस बार उन्होंने 10 में से 8 हिन्दू और दो मुस्लिम समाज की बेटियों की शादी कराई.
महाशिवरात्रि पर मुसलमानों ने पहनाई पगड़ी
Muslims wear turbans on Mahashivratri
राजस्थान के डीडवाना में महाशिवरात्रि के अवसर पर एक विशेष परंपरा निभाई जाती है, जो सांप्रदायिक सौहार्द का प्रतीक है. यहां के धाम के महंत बनने के लिए मुस्लिम समाज के लोग पगड़ी पहनाते हैं. सदियों पुरानी इस परंपरा में दोनों समुदायों के पूर्वजों ने मिलकर साम्प्रदायिक सद्भावना की नींव डाली थी, जो आज भी कायम है.
इस परंपरा के अनुसार, जब भी नए महंत की नियुक्ति होती है, मुस्लिम समुदाय के लोग उन्हें पगड़ी पहनाकर सम्मानित करते हैं. यह परंपरा दर्शाती है कि धार्मिक विविधता के बावजूद आपसी सम्मान और सहयोग से समाज में एकता बनी रहती है.
ये कहानियां इस बात का प्रतीक हैं कि मजहबों की भिन्नता के बावजूद हिंदू और मुसलमानों के रिश्ते कितने गहरे और मजबूत हैं. मानवीय रिश्ते किसी भी धर्म, जाति, या समुदाय की दीवारों से नहीं बंधे होते. ये चंद बानगियां पूरे समाज के लिए एक प्रेरणा हैं, जो साम्प्रदायिक सद्भाव और मानवीय मूल्यों की महत्ता को दर्शाता है. आवश्यक है कि समाज के सभी वर्ग मिलकर पूर्वाग्रहों को त्यागें और एक समावेशी और शांतिपूर्ण समाज के निर्माण में योगदान दें.