डॉ. उज़मा खातून
जब इतिहास को विभाजन के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, तो भारत के साझा अतीत को याद रखना ज़रूरी है। असली कहानी "मतभेद और संघर्ष" नहीं, बल्कि एक गहरी "गंगा-जमुनी तहज़ीब" है। यह लेख संघर्ष-केंद्रित उस आख्यान को चुनौती देता है—जो हिंदुओं और मुसलमानों को ग़लत तरीके से विरोधी समूहों के रूप में देखता है—एक विकृति के रूप में। इसके बजाय, यह विश्लेषण तारा चंद जैसे विद्वानों के मूलभूत विचारों पर आधारित है। उनकी मौलिक पुस्तक, "भारतीय संस्कृति पर इस्लाम का प्रभाव", ने "समावेशी संस्कृति" की वकालत की, जो "समावेशी और संश्लेषण" के अधिक सटीक इतिहास पर केंद्रित है।
इस दृष्टिकोण से प्रेरित होकर, हमारा ध्यान अंतर्निहित सांस्कृतिक संलयन पर होगा। हम यह पता लगाएंगे कि इस संश्लेषण ने हमारी भाषा, दर्शन, संगीत और दैनिक जीवन को कैसे आकार दिया, यह साबित करते हुए कि हमारी साझा विरासत के धागों को अलग करना असंभव है।
एक केंद्रीय बिंदु इस्लाम का 'तौहीद' (ईश्वर की एकता) और शंकर के 'अद्वैत' वेदांत से इसका कथित संबंध है, जो दार्शनिक रूप से अयथार्थ है। 'तौहीद' (एकेश्वरवाद) ईश्वर को सृष्टि (द्वैत) से पृथक, पारलौकिक रचयिता के रूप में स्थापित करता है। 'अद्वैत' (अद्वैतवाद) वास्तविकता (ब्रह्म) की एकता पर बल देता है, जहाँ 'तत् त्वम् असि' (तू ही वह है) 'आत्मा' और 'ब्रह्म' के बीच अभेद की घोषणा करता है। 'तौहीद' द्वैत को बनाए रखता है; 'अद्वैत' इसे भ्रम मानता है।
यह दावा कि इसने आठवीं शताब्दी के शंकराचार्य को प्रभावित किया, ऐतिहासिक रूप से कमज़ोर है, और इसका कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है। जब अरब व्यापारी मालाबार तट पर थे, तब उनका ध्यान वाणिज्य पर था; एक ठोस इस्लामी बौद्धिक उपस्थिति का प्रमाण दसवीं शताब्दी के बाद ही मिलता है। यह समानता वास्तविक है, लेकिन बेतुकी है। सच्चा संवाद सदियों बाद फला-फूला, जिसमें इब्न अरबी (12वीं-13वीं शताब्दी) के 'वहदत-उल-वुजूद' (सत्ता की एकता) और 'अद्वैत' वेदांत के बीच गहरी समानताएँ पाई गईं, जो एक द्वि-मार्गी प्रभाव का संकेत देती हैं।
"वैज्ञानिक मनोवृत्ति" का तर्क एक जटिल, दोतरफ़ा प्रवाह को उजागर करता है। पहला, भारत से बगदाद (8वीं-9वीं शताब्दी): इस्लामी स्वर्ण युग भारतीय बौद्धिक संपदा पर आधारित था। अब्बासी खलीफाओं ने ब्रह्मगुप्त ('सिंधिंद') द्वारा रचित संस्कृत ग्रंथों का अनुवाद किया और इस्लामी जगत में 'शून्य' और भारतीय अंक (अब 'अरबी अंक') का प्रचलन शुरू किया। अल-ख्वारिज्मी का आधारभूत कार्य ('बीजगणित') इन्हीं प्रणालियों पर आधारित था। दूसरा, फारस से वापस भारत (12वीं शताब्दी के बाद): यह संश्लेषित ज्ञान (यूनानी, फारसी, भारतीय) वापस लौटा। इसका एक प्रमुख उदाहरण 'यूनानी चिकित्सा' है। मूल रूप से यूनानी, इसे इब्न सीना जैसे विद्वानों ने परिष्कृत किया, भारत लाया, 'आयुर्वेद' के साथ इसका संबंध स्थापित किया और एक विशिष्ट 'भारत-यूनानी' परंपरा का निर्माण किया। यह प्रभाव पुनः आयातित था।
इस्लामी सिद्धांत "सभी मनुष्यों की समानता" का संदेश लेकर आया, जिसने जाति व्यवस्था को एक वैचारिक चुनौती दी। इसका प्रभाव जटिल था, जो "राजधानी (शहर) बनाम देहात (गाँव)" के विभाजन में देखा जा सकता था। मुस्लिम शासन एक शहरी परिघटना थी; दिल्ली और आगरा जैसे शहर फारसीकृत, महानगरीय केंद्र बन गए। इसके विपरीत, ग्रामीण भारत स्वायत्त रहा, और उसका जाति-आधारित ताना-बाना काफी हद तक अपरिवर्तित रहा। यह कथन कि "लोगों ने अपना पंथ बदला, लेकिन अपनी जीवनशैली नहीं" एक समाजशास्त्रीय सत्य है। इस्लाम मुख्यतः शांतिपूर्ण सूफी उपदेशों और स्वैच्छिक धर्मांतरण के माध्यम से फैला, जो मुख्यतः "निम्न" जाति समूहों द्वारा भेदभाव से मुक्ति पाने के प्रयास के माध्यम से फैला।
हालाँकि, इस्लाम के समानता के संदेश के बावजूद, धर्मांतरित भारतीय समुदायों ने कई इस्लाम-पूर्व सामाजिक संरचनाओं को बनाए रखा। भारतीय मुस्लिम समाज के भीतर एक नया पदानुक्रम विकसित हुआ: 'अशरफ' (उच्च-स्थिति वाले, विदेशी वंश का दावा करने वाले), 'अजलाफ' (निम्न-स्थिति वाले स्थानीय धर्मांतरित), और 'अरज़ल' ("अछूत" समूहों से धर्मांतरित)। अरबी शब्द 'अशरफ़', 'अजलाफ़' और 'अरज़ल' अरब समाज में पहले से मौजूद "ऊँच-नीच" की भावना को दर्शाते हैं, जिसके ख़िलाफ़ पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का पूरा संघर्ष था। इन भारतीय धर्मांतरित समुदायों, खासकर 'जुलाहा' (बुनकर) या 'क़साब' (कसाई) जैसे 'अजलाफ़' और 'अरज़ल' समूहों ने 'बिरादरी' (रिश्तेदारी) व्यवस्था को जारी रखा, जो हिंदू 'जाति' व्यवस्था की तरह काम करती थी। उन्होंने अपनी जीवनशैली, रोज़गार और स्थानीय मान्यताओं (जैसे, स्थानीय देवताओं को 'पीर' के रूप में सम्मान देना) को बरकरार रखा और इन रीति-रिवाजों को अपने नए इस्लामी धर्म में पिरोया।
संश्लेषण का असली मंच सूफ़ी दरगाहों और भक्ति सत्संगों में था। ये लोकप्रिय आंदोलन समान आधार पर परस्पर क्रिया करते थे: दोनों ने प्रेम ('भक्ति'/'इश्क') पर ज़ोर दिया, खोखले कर्मकांडों की आलोचना की, एक आध्यात्मिक मार्गदर्शक (गुरु/पीर) पर ज़ोर दिया और समानता का उपदेश दिया। चिश्ती सूफ़ियों द्वारा प्रचलित 'लंगर' (सामुदायिक रसोई) एक क्रांतिकारी सामाजिक साधन था, जो जाति-भेद के बिना सभी को एक साथ बैठकर (पंगत) भोजन करने के लिए बाध्य करता था।
यह संश्लेषण काव्यात्मक भी था, जो वैष्णव भक्ति के साथ आदान-प्रदान में देखा जा सकता है। 16वीं शताब्दी का 'हक़ीक़-ए-हिंदी' चिश्ती सूफ़ियों द्वारा हिंदू भक्ति गीतों (कृष्ण, राधा) को 'साम' में गाने को उचित ठहराता है, और इन प्रतीकों को इस्लामी रहस्यवाद के समतुल्य मानता है। जायसी के 'पद्मावत' (अवधी में) जैसे सूफ़ी 'प्रेमाख्यानों' ने हिंदू लोककथाओं और सूफ़ी रहस्यवाद का मिश्रण किया। सूफ़ी 'साम' और हिंदू 'कीर्तन' संगीत के माध्यम से ईश्वर तक पहुँचने के साझा प्रयास थे, जिनमें अक्सर एक 'स्त्री स्वर' (प्रेमिका के रूप में आत्मा) को अपनाया जाता था।
सबसे स्थायी विरासत एक साझा भाषा है। स्थानीय 'खड़ी बोली' से, 'हिंदुस्तानी' फ़ारसी और अरबी से उधार लेकर सैन्य शिविरों (तुर्की 'ओरदु', इसलिए 'उर्दू'), बाज़ारों और सूफ़ी दरगाहों की 'भाषा' बन गई। यह मिश्रण—भारतीय व्याकरण, फ़ारसी-अरबी शब्दावली—19वीं शताब्दी में राजनीतिक रूप से 'हिंदी' (देवनागरी) और 'उर्दू' (फ़ारसी-अरबी) लिपियों में विभाजित हो गया, लेकिन वे एक ही बोलचाल की भाषा बनी रहीं। यह संश्लेषण पोशाक ('शेरवानी') और 'मुगलई भोजन' ('बिरयानी') में दिखाई देता है। यह सिर्फ़ ऊपर से नीचे तक नहीं था: 'खिचड़ी', एक देशी व्यंजन, शाही रसोई द्वारा अपनाया गया था। 'हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत' ने भी फ़ारसी प्रभावों को आत्मसात किया, जिससे नए 'राग', वाद्य (तबला), और नए रूप ('ग़ज़ल', 'क़व्वाली') का निर्माण हुआ।
इस्लाम का संस्थागत प्रभाव भी गहरा है। मुगलों ने एक केंद्रीकृत प्रशासन की शुरुआत की, जिसकी झलक राजा टोडरमल द्वारा विकसित 'ज़ब्त' राजस्व प्रणाली में मिलती है। इस प्रणाली में स्थानीय भारतीय प्रथाओं को फ़ारसी नौकरशाही मॉडल के साथ एकीकृत किया गया था। इसका सबसे स्थायी प्रभाव कानूनी बहुलवाद है।
मुगलों ने आपराधिक मामलों में इस्लामी कानून का इस्तेमाल करते हुए, हिंदुओं को नागरिक मामलों में अपने सामुदायिक कानूनों (धर्मशास्त्रों) का पालन करने की अनुमति दी। विडंबना यह है कि इस मुगल व्यवस्था को अंग्रेजों ने संहिताबद्ध किया। वॉरेन हेस्टिंग्स के 1772 के नियमों ने इस सिद्धांत को स्थापित किया और 'एंग्लो-मुहम्मडन कानून' की रचना की। इसकी परिणति 1937 का मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) अनुप्रयोग अधिनियम था, जो एक औपनिवेशिक युग का कानून था और आज भी भारत में मुस्लिम 'पर्सनल लॉ' पर आधारित है।
भारत में 'शुद्ध' हिंदू या 'शुद्ध' मुस्लिम संस्कृति का विचार एक ऐतिहासिक मिथक है। यह 'गंगा-जमुनी तहज़ीब' एक जीवंत वास्तविकता है। इसका मतलब यह नहीं है कि इतिहास संघर्षों से मुक्त था; ये रिश्ते अक्सर असमान सत्ता संरचनाओं के भीतर गढ़े जाते थे। हालाँकि, केवल संघर्ष पर ध्यान केंद्रित करना और संश्लेषण को नज़रअंदाज़ करना एक विकृति है। भारतीय संस्कृति का ताना-बाना हिंदू (वैदिक, उपनिषदिक, लोक) और इस्लामी (फ़ारसी, तुर्किक, अरब) धागों से जटिल रूप से बुना गया है—इन्हें "अलग करना असंभव" है। यह सम्मिश्रण हमारे भोजन, भाषा, संगीत और कानून में मौजूद है: एक सतत, जीवंत संवाद जो आधुनिक भारत को परिभाषित करता है।
( डॉ. उज़मा खातून एक लेखिका, स्तंभकार और सामाजिक विचारक हैं)