ज़ेब अख्तर
सिनेमा को अक्सर समाज का आईना कहा जाता है, एक ऐसा माध्यम जो हमें हमारे सामूहिक अनुभवों और सच्चाइयों को दिखाता है.लेकिन कभी-कभी, यह आईना सिर्फ प्रतिबिंबित नहीं करता, बल्कि आरोप भी लगाता है.इस साल वेनिस फिल्म फेस्टिवल में "द वॉयस ऑफ हिंद रजब" का प्रीमियर एक ऐसा ही क्षण था.रेड कार्पेट की चकाचौंध और ग्लैमर, अचानक एक पाँच साल की बच्ची की धुंधली तस्वीरों के सामने फीके पड़ गए, जिसकी आखिरी पुकार रिकॉर्ड तो हुई, पर कभी सुनी नहीं गई.
27 अगस्त से 6 सितंबर, 2025 तक आयोजित इस प्रतिष्ठित समारोह में, दुनिया भर के फिल्म निर्माताओं और कलाकारों ने शिरकत की.लेकिन उस दुर्भाग्यपूर्ण शाम, फिल्म कला से कहीं बढ़कर एक अभियोग बन गई.गाजा के खंडहरों से गूंजती हिंद रजब की अंतिम प्रार्थनाओं ने सिनेमा हॉल को भर दिया और दर्शकों को हिलाकर रख दिया.यह सिर्फ एक फिल्म नहीं थी, बल्कि एक सामूहिक स्वीकारोक्ति थी, एक ऐसा दर्द जिसे हम सभी ने महसूस किया.
फिल्म के खत्म होने के बाद, दर्शक तेईस मिनट तक खड़े होकर तालियाँ बजाते रहे.यह समय हिंद की अपनी आखिरी कॉल और उसकी मौत के बीच के भयावह विराम से भी ज़्यादा था.यह प्रशंसा नहीं थी, बल्कि यह दुख, गुस्सा और अपराधबोध का मिश्रण था.हॉल में गूंजते "फ़्री फ़िलिस्तीन" के नारे इस बात की पुष्टि कर रहे थे कि सिनेमा क्षण भर के लिए कहानी से आगे बढ़कर एक राजनीतिक गवाही में बदल गया था.
लेकिन जैसे ही तालियाँ थमीं, बाहरी दुनिया अपनी जगह पर स्थिर रही.गाजा जलता रहा.ये तालियाँ, कई कूटनीतिक प्रस्तावों की तरह, हवा में उड़ गईं—तेज़, भावुक, पर सारहीन.यह एक कड़वी सच्चाई थी कि कला और वास्तविकता के बीच की खाई को भरना कितना मुश्किल है.
वेनिस में तालियाँ, गाज़ा में सन्नाटा
वेनिस में जहाँ आलोचक खड़े होकर एक फिल्म को सम्मान दे रहे थे, वहीं गाजा मलबे के नीचे दब रहा था.यह विरोधाभास घृणित था: यूरोप गाजा के बच्चों पर बनी एक फिल्म के लिए तालियाँ बजा रहा था, जबकि गाजा में ही बच्चे जिंदा दफन हो रहे थे.
अक्टूबर 2023 से अब तक, कम से कम 63,000 फिलिस्तीनी मारे जा चुके हैं.गोद में बच्चों को लिए महिलाएं, आँगन में खेलते बच्चे, और घरों में सो रहे पूरे परिवार—सब कुछ मिट गया.सहायता समूहों ने चेतावनी दी है कि यदि भूख, बीमारियों और आश्रय की कमी से होने वाली मौतों को भी शामिल किया जाए, तो यह संख्या 80,000 के करीब पहुँच जाती है.
अस्पताल कब्रिस्तान बन चुके हैं.सड़कों पर पानी की जगह धूल उड़ रही है; नल महीनों से सूखे हैं.माता-पिता अपने बच्चों के लिए रोटी के टुकड़े तलाश रहे हैं, जबकि बच्चे स्कूल के लिए नहीं, बल्कि दफनाने के लिए कतार में खड़े हैं.चालीस हजार लोग घायल हैं, जिनमें से हजारों हमेशा के लिए अपंग हो चुके हैं, और एक पूरी पीढ़ी से भविष्य की कल्पना करने का अधिकार ही छीन लिया गया है.
वेनिस में लोगों को तालियाँ बजाने का मौका मिला; गाजा में लोग लाशें गिन रहे हैं.एक शहर सिनेमा की नैतिकता का जश्न मना रहा है, जबकि दूसरा शहर मानवता की विफलता पर शोक मना रहा है.
खड़े होकर तालियाँ बजाना आसान है
यह सबसे तीखी विडंबना है.दुनिया सिनेमाघरों में खड़ी हो सकती है, लेकिन युद्ध के मैदानों में नहीं.दर्शक एक फिल्म समारोह में सुरक्षित रूप से "फ़्री फ़िलिस्तीन" का नारा लगा सकते हैं, लेकिन सरकारें मिसाइलों, टैंकों और अरबों डॉलर के सैन्य अनुबंधों के खिलाफ खड़े होने के विचार से ही कांप उठती हैं.
संयुक्त राष्ट्र ने 2023 के अंत में 121 देशों के समर्थन से एक युद्धविराम प्रस्ताव पारित किया.युद्ध एक दिन के लिए भी नहीं रुका। अंतर्राष्ट्रीय न्यायालयों ने नाकेबंदी को अवैध घोषित किया, लेकिन इजरायल ने उनकी अनदेखी कर दी.मानवीय एजेंसियों ने पहुंच की मांग की, लेकिन ट्रक सीमाओं पर इंतजार करते रहे और बच्चे भूख से मरते रहे.
इस बीच, यूरोपीय शक्तियाँ केवल कड़े बयान जारी कर रही हैं: बेल्जियम फिलिस्तीन को मान्यता देने का वादा कर रहा है, फ्रांस बस्तियों की निंदा कर रहा है, और स्पेन अपनी "चिंताएँ" जता रहा है.संयुक्त अरब अमीरात ने इजरायल की योजनाओं को "रेड लाइन" बताया है.
ये सभी बयानबाजी में नेक लगते हैं, लेकिन हकीकत में निरर्थक हैं.गाजा के लिए, ये जीवन रेखाएँ नहीं, बल्कि केवल प्रेस विज्ञप्तियाँ हैं.और इसीलिए, वेनिस में बजने वाली तालियाँ अंतरराष्ट्रीय राजनीति की तरह लगती हैं: शोरगुल वाली, दिखावटी, और शक्तिहीन.
केवल कुछ घंटों तक चला युद्धविराम
9 सितंबर को, ऐसी खबरें आईं कि इजरायल ने पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा मध्यस्थता किए गए युद्धविराम समझौते को स्वीकार कर लिया है.इस समझौते के तहत, हमास को बंधकों को रिहा करना था और हथियार डालने थे, जबकि इजरायल कई फिलिस्तीनी कैदियों को रिहा करने वाला था.हमास के अधिकारियों ने तुरंत इसका पालन करने की अपनी तत्परता की पुष्टि की.ट्रम्प ने खुद हमास को चेतावनी दी थी कि यह "उनका आखिरी मौका" है.
लेकिन इस घोषणा के कुछ ही घंटों के भीतर, इजरायल ने कतर की राजधानी दोहा में एक हमला कर दिया, जिसमें वरिष्ठ हमास नेताओं को निशाना बनाया गया.हमास के एक प्रतिनिधि ने वैश्विक मीडिया को बताया कि इस हमले में उनकी वार्ता टीम को भी निशाना बनाया गया था, जबकि जुलाई से उनकी इजरायल के साथ कोई सीधी बातचीत नहीं हुई थी.कतर के विदेश मंत्रालय ने इस हमले की निंदा करते हुए इसे अंतरराष्ट्रीय कानून का "गंभीर उल्लंघन" बताया.युद्धविराम, इससे पहले हुए कई युद्धविरामों की तरह, शुरू होने से पहले ही टूट गया.
वह बच्ची जो एक सवाल बन गई
फिल्म का केंद्र हिंद रजब है, जिसकी धीमी, फुसफुसाती आवाज मदद के लिए रिकॉर्ड की गई थी.पत्रकारों, सहायताकर्मियों और दुनिया ने उसकी पुकार सुनी, लेकिन उन लोगों ने नहीं जो उसे बचा सकते थे.उसका जीवन शांति में समाप्त हो गया, जबकि उसकी आवाज़ सबूत के रूप में हमेशा के लिए सुरक्षित रही.उसकी कहानी देखना असहनीय है.फिर भी, यह भारत में गहराई से गूंजती है, जहाँ विभाजन, दंगों और विस्थापन की यादें सामूहिक स्मृति में अंकित हैं.भारतीय रातोंरात खोए घरों और आग में जलकर खाक हुए बचपन के दर्द को अच्छी तरह जानते हैं.
हमारा अपना सिनेमा भी लंबे समय से त्रासदी को बच्चों की आँखों से देखता रहा है: "दो बीघा ज़मीन" के भूखे बेटे, "बूट पॉलिश" के अनाथ भाई-बहन, और "सलाम बॉम्बे!" में बेसहारा सड़क के बच्चे.मासूम आँखें राजनीतिक शब्दों की परत को हटाकर समाज की नंगी क्रूरता को उजागर करती हैं.
लेकिन एक बड़ा फर्क है.उन फिल्मों में, मासूमियत उम्मीद की एक किरण जगाती थी."द वॉयस ऑफ़ हिंद रजब" में, उम्मीद की कल्पना से पहले ही मासूमियत बुझ जाती है.हिंद की कहानी सिर्फ गाजा की नहीं है.यह हर जगह नैतिक व्यवस्था के पतन की कहानी है.उसकी चीख उस दुनिया के सामने एक आईना है जो अपनी आँखें फेर लेना पसंद करती है.
भूगोल बदलता है, त्रासदी बनी रहती है
नक्शा बदल दो, और दुख खुद को दोहराता है.सीरिया, यमन, सूडान, यूक्रेन—हर जगह, बच्चे सबसे ज़्यादा नुकसान उठाते हैं.इस त्रासदी का भूगोल एक है, लेकिन इसके पते कई हैं.उन्हें जोड़ने वाली चीज़ राजनीति नहीं, बल्कि त्याग है.
वेनिस ने हिंद के लिए तालियाँ बजाईं, लेकिन जीवित लोगों के लिए कौन खड़ा होगा? प्रतिरोध में खड़े होने से ज्यादा आसान तालियाँ बजाना है.हथियारों की आपूर्ति में कटौती करने से ज्यादा आसान सिनेमाघरों में रोना है.प्रतिबंध लगाने से ज्यादा आसान है #FreePalestine का हैशटैग करना.वेनिस के दर्शकों ने वही किया जिसमें दुनिया माहिर है—अभिनय नहीं, बल्कि भाव-भंगिमाएँ। लेकिन भाव-भंगिमाएँ न तो मुर्दों को दफना सकती हैं और न ही भूखों को खाना खिला सकती हैं.
सिनेमा एक ज़मीर है, या एक दिलासा ?
यहाँ कला के बारे में एक गहरा सवाल है.क्या सिनेमा सचमुच एक ज़मीर है, या सिर्फ एक दिलासा? दर्शक नेकी के आँसू महसूस करते हैं, गाजा के लिए "महसूस" करके थिएटर से हल्का महसूस करते हैं, और फिर आगे बढ़ जाते हैं.
यह फिल्म हमें यह सवाल पूछने पर मजबूर करती है: क्या हम जिम्मेदारी से बचने के लिए कला का उपयोग कर रहे हैं? क्या "द वॉयस ऑफ़ हिंद रजब" कार्रवाई के लिए एक आह्वान है, या सिर्फ एक उत्सव का मुख्य आकर्षण जिसे रोशनी बुझते ही भुला दिया जाएगा ? इसका जवाब सिनेमा पर नहीं, बल्कि हम पर निर्भर करता है.
वह प्रश्न जो कभी नहीं मिटेगा
हिंद रजब की आवाज आज भी कायम है क्योंकि वह हमें भूलने नहीं देती.हिंद की रिकॉर्ड की गई फुसफुसाहटें भाषणों से भी ज़्यादा, संकल्पों से भी ज़्यादा, यहाँ तक कि तालियों से भी ज़्यादा गूँजती हैं.उसका सवाल, "क्या कोई मेरे लिए आएगा ?"
अनुत्तरित है, हर सरकार, हर नागरिक, हर दर्शक के मन में मंडरा रहा है.वेनिस में खड़े होकर तालियाँ बजाना आसान था.युद्ध के खिलाफ खड़ा होना मुश्किल है.एक के लिए भावना की जरूरत होती है, दूसरे के लिए साहस की.इतिहास यह याद नहीं रखेगा कि वेनिस में लोगों ने कितनी देर तक तालियाँ बजाईं.वह याद रखेगा कि गाजा को कितनी देर तक खून बहाने के लिए छोड़ दिया गया.
और इस तरह, हिंद की आवाज हमें परेशान करती रहती है, एक फिल्म की तरह नहीं, बल्कि एक घाव की तरह.वह तालियाँ नहीं माँग रही.वह पूछ रही है कि क्या हम कभी खड़े होंगे, दर्शक बनकर नहीं, आलोचक बनकर नहीं, राजनेता बनकर नहीं—बल्कि बस, आखिरकार, इंसान बनकर.