क्या कहते हैं फेल होने वाले मुस्लिम छात्रों के आंकड़े

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] • 10 Months ago
क्या कहते हैं फेल होने वाले मुस्लिम छात्रों के आंकड़े
क्या कहते हैं फेल होने वाले मुस्लिम छात्रों के आंकड़े

 

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टीवी चैनल हों या अखबार सभी पास होने वाले छात्रों में खबर ढूंढते हैं. कितने पास हुए, कितने मेरिट में आए और जो टापर हैं उन्हें कितने फीसदी नंबर मिले. लेकिन इस बार हैदराबाद के एक एनजीओ इंटरमीडिएट परीक्षा में फेल होने वाले छात्रों के बारे में जानकारी जमा की तो जो नतीजे मिले वे परेशान करने वाले हैं-

सोशल डाटा इनीशियेटिव फोरम नाम के इस एनजीओ ने फेल होने वाले छात्रों के आंकड़ों का गहन अध्ययन किया तो पता चला कि फेल होने वाले छात्रों में 40 फीसदी मुस्लिम समुदाय के हैं.
 हैदराबाद शहर में तो यह प्रतिशत 50 के आस-पास था. इसका अर्थ हुआ कि पास होने वाले छात्र-छात्राओं में मुस्लिम नौजवानों का प्रतिशत दूसरो के मुकाबले काफी कम है.
 
भारत में आमतौर पर पिछड़ेपन के आकलन के लिए दलित और आदिवासी समुदाय के आंकड़ों का ही विस्तृत अध्ययन किया जाता है. कुछ एक सर्वेक्षणों को छोड़ दें तो विभिन्न धार्मिक समूहों के आंकड़ें नियमित तौर पर सामने नहीं आ पाते.
 
जस्टिस राजेंद्र सच्चर की अध्यक्षता में बने आयोग ने पहली बार यह बताया कि शिक्षा के मामले में मुस्लिम समुदाय का पिछड़ापन दलित और आदिवासी समाज से भी ज्यादा है.
 
अगर हम साक्षरता के आंकड़ों को देखें देश में औसत साक्षरता 75.3 फीसदी है, जबकि मुस्लिम समुदाय में इसके मुकाबले साक्षरता 59.1 फीसदी है. यहां विभिन्न धार्मिक समुदायों के शिक्षा स्तर की तुलना करने की कोई जरूरत नहीं. बात सिर्फ इतनी है कि जब हम पूरे भारत को साक्षर बनाने की बात करते हैं तो मुस्लिम समुदाय की शिक्षा पर ध्यान देने की खास जरूरत है.
 
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हैदराबाद से आए आंकड़ें भी यही कहते हैं कि शिक्षा संस्थानों में दाखिला लेना भर ही काफी नहीं है. इसके आगे लगातार प्रयास और ओरियंटेशन जरूरी है. कुछ सर्वेक्षणों में यह भी पाया गया है कि मुस्लिम समुदाय के छात्रों की ड्राप आउट रेट यानी पढ़ाई बीच में छोड़ देने की दर भी बाकी समुदायों के मुकाबले ज्यादा है.
 
 नेशनल सैंपल सर्वे का एक सर्वेक्षण हमें यह भी बताता है कि स्कूलों में मुस्लिम बच्चों की हाजिरी भी बाकी बच्चों के मुकाबले कम हो जाती है.मुस्लिम समुदाय की शिक्षा का जब भी जिक्र आता है तो अक्सर मदरसों का जिक्र होता है.
 
इसे अक्सर इस तरह पेश किया जाता है कि इस समुदाय के ज्यादा बच्चे पढ़ने के लिए मदरसो में जाते हैं ,जहां उन्हें कट्टर बनाया जाता है. जबकि तमाम सर्वेक्षणों में पाया गया है कि सात से 19 साल तक की उम्र के सिर्फ चार फीसदी मुस्लिम बच्चे ही मदरसों में पढ़ने जाते हैं.
 
बाकी ज्यादातर सरकारी या अर्धसरकारी स्कूलों में जाते हैं. एक बहुत छोटा प्रतिशत संपन्न परिवारों के बच्चों का है जो पढ़ाई के लिए निजी स्कूलों में दाखिला लेते हैं. यहां एक और बात का जिक्र जरूरी है.पिछले सप्ताह असम के मुख्यमंत्री हेमंत विस्व शर्मा ने राज्य में 300 मदरसों को बंद करने की बात कही थी. उनके तर्क भी वही थे जो मदरसों को लेकर अक्सर दिए जाते हैं.
 
ऐसा नहीं है कि शिक्षा के मामले में मुस्लिम समुदाय का प्रदर्शन हर जगह औसत से कम ही है. एक स्टडी से पता चलता है कि अंडमान निकोबार में मुस्लिम समुदाय की साक्षरता दर 89.8 फीसदी है.केरल में 89.4 फीसदी.
 
इसके उलट अब अगर हम सबसे कम के आंकड़े देखें तो हरियाणा में यह दर 40 फीसदी है, जबकि बिहार में 42 फीसदी. इन दोनों प्रदेशों के बाकी समुदायों में शिक्षा की दर काफी कम है.
 
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कईं स्टडीज़ से एक और बात पता लगी है कि भले ही मुस्लिम समुदाय में साक्षरता की दर दलित और आदिवासी समुदाय से कम है, लेकिन उनमें महिला साक्षरता की दर इन दोनों ही समुदायों से ज्यादा है. देश में जब हिजाब और लब जिहाद की चर्चा चलती है तो इस बात का जिक्र कोई नहीं करता.
 
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )