तारिक सोहराब गाजीपुरी
रोहित और मनोज दो दोस्त थे और पोस्ट ग्रेजुएशन की डिग्री लेने के बाद दोनों एक सरकारी संस्थान में आधिकारिक पद पर नौकरी करने लगे, लेकिन कुछ कारणों से 3 महीने बाद ही रोहित को उनके पद से बर्खास्त कर दिया गया. फिर वह दूसरे संस्थान में शामिल हो गए, लेकिन वहां से उन्हें 2 महीने बाद बर्खास्त कर दिया गया. अब वह बेरोजगार है और अपनी योग्यता के आधार पर उपयुक्त नौकरी की तलाश में है. दूसरी ओर उनके मित्र मनोज अपने संस्थान में लगातार प्रगति करते रहे और संस्थान भी उन्हें अपने संस्थान के सबसे अच्छे कर्मचारियों में से एक मानता है.
इस प्रकार यह लघुकथा हमारे विचारों की वास्तविकता को उजागर करती है. रोहित की समस्याएंे रोहित ने ही पैदा की थीं, क्योंकि उसने अपनी लापरवाही से संस्था के मूल्यों को नजरअंदाज किया था, लेकिन मनोज ने अपने कर्तव्यों के प्रति सकारात्मक रुख अपनाते हुए अपनी संस्था का नाम रोशन किया.
लगभग सभी देश अपना प्रशासन संस्थाओं के आधार पर चलाते हैं. हमारे देश भारत की अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था है, जिसे लोकतंत्र के एक आदर्श संप्रभु राज्य के रूप में जाना जाता है, जहां हमें लोगों के कल्याण के लिए विभिन्न प्रशासनिक संस्थाएं मिलती हैं, लेकिन सवाल यह उठता है कि हम अपनी संस्थाओं को कैसे देखते हैं.
क्या हम अपनी संस्थाओं का सम्मान करते हैं या नहीं. हमारे सामाजिक बुद्धिजीवियों के अनुसार, जब हम ‘सम्मान’ शब्द पर प्रकाश डालते हैं, तो हम वास्तव में दो व्यक्तियों के बीच सम्मान की बात करते हैं. जहां तक संस्थानों का सवाल है, चाहे सरकार हो. या निजी, वे हमारे जीवन में समृद्धि प्रदान करने वाली हमारी संपत्ति हैं. संस्थान, लोगों की खातिर स्थापित किया गया है और इसे नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए, ‘सम्मान’ का एक पहलू अभी भी थोड़ा ध्यान देने योग्य है और वह उस संस्थान के लिए सम्मान है, जिससे आप संबंधित हैं. वास्तविक तथ्यों में, भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में, यह निश्चित रूप से एक संगठनात्मक संस्था है, जो न्याय और भाईचारे के आधार पर राष्ट्रों की सेवा करती है.
उदाहरण के लिए, हम आम तौर पर देखते हैं कि अपराध के मामले में, पुलिस विभाग से संबंधित संस्था दबे-कुचले लोगों की समस्याओं को हल करने के लिए आगे आती है. एक बार, एक ट्रेन-यात्री हैरान हो गई, क्योंकि ट्रेन में किसी ने उसका पैसों वाला बैग चुरा लिया था. मैं भी वहीं था, क्या बताऊं, जब महिला को अपना बैग नहीं मिला, तो वह रोने लगीं और कहने लगीं कि उनके बैग में 20 हजार रुपये थे. अचानक कहीं से दो दयालु पुलिस अधिकारी वहाँ प्रकट हुए. उन्होंने महिला से पूछा कि वह क्यों रो रही है. जब उन्हें विवरण पता चला, तो उन्होंने कुछ देर सोचा, इधर-उधर घूमे, उस चोर को पकड़ लिया, जिसने उनका पैसों वाला बैग चुराया था और अंत में बैग महिलाओं को सौंप दिया. अब बात सोचिये. क्या पुलिस विभाग से संबंधित संस्था के अभाव में उस मासूम महिला के लिए चोर की तलाश करना संभव था?
हकीकत के आईने में संस्था के प्रति सम्मान व्यक्तियों के बीच सम्मान के समान ही दिखता है और पारस्परिक रिश्ते की तरह इसे थोपा नहीं जा सकता. और एक पारस्परिक रिश्ते की तरह, कर्म शब्दों से अधिक महत्वपूर्ण हैं. सभी फैंसी लोगों और प्रेरक पोस्टर लोगों के साथ उचित व्यवहार करने और पारदर्शी मानव संसाधन नीतियों की पूर्ति नहीं कर सकते.
लोगों को यह विश्वास होना चाहिए कि जिस संगठन में वे काम करते हैं, वह कुछ ऐसा है जिसका वे हिस्सा बनना चाहते हैं, एक ऐसा स्थान, जहां वे मूल्यवान महसूस करते हैं और जहां उनका सम्मान किया जाता है. एक संगठन के रूप में उनका कार्यस्थल एक ऐसा स्थान होना चाहिए, जहाँ ‘एचआर’ एक गंदा शब्द न हो! मेरी राय में, किसी भी प्रशासनिक सरकार के अधीन संस्थाएं मूल्यवान हैं, क्योंकि वे देश में रहने वाले लोगों की मदद के लिए आयोजित की जाती हैं. इसलिए, संस्थाओं को उचित सम्मान देना होगा क्योंकि उनके अपने दायरे में अपने मूल्य हैं.
हमारी संस्थाएं हमें दूसरों के प्रति सहयोगी होने का अवसर भी प्रदान करती हैं. बहुत सी जगहों पर संस्थाओं में काम करने वाले सहयोगी विचारधारा वाले लोग दूसरों का सम्मान करते हुए और उनकी मदद करते हुए पाए जाते हैं. इसके सर्वोत्तम उदाहरण न्यायालयों, बैंकों, कृषि या शैक्षणिक संस्थानों में पाए जाते हैं, कहने का तात्पर्य यह है कि हम अपने संस्थानों की उपेक्षा नहीं कर सकते. बात बस इतनी सी है कि कर्तव्यों के पालन के प्रति व्यक्ति की सोच सकारात्मक होनी चाहिए.
हमारे अंदर दूसरों का सम्मान करने की भावना होनी चाहिए. मौलाना अबुल कलाम आजाद, दादा भाई नूरो जी, महात्मा गांधी, अटल बिहारी वाजपेई जी और हमारे अनगिनत सुधारकों आदि ने देश की मदद के लिए कई संस्थाएं स्थापित करने में हमारा सहयोग किया.
लेकिन इन सबके बावजूद इस देश में रहने वाले कुछ लोग संस्थानों का सही तरीके से मूल्यांकन करने में असफल हैं. ऐसे लोगों को उनके नकारात्मक विचारों के कारण रूढ़िवादी मानसिकता वाला कहा जाता है. वे संस्थानों में खामियां ढूंढने की कोशिश करते हैं, जैसे कि इस लेख की शुरुआत में, मैंने रोहित के बारे में कुछ संकेत दिया था, जिसे उसके नकारात्मक विचारों के कारण उसके कार्यस्थल से बर्खास्त कर दिया गया था.
अब प्रश्न यह है कि ऐसे लोगों में पाए जाने वाले दोषों को कैसे दूर किया जाए, यह निःसंदेह चिंतन का विषय है. न्यायालय में न्यायाधीश निर्णय देते हैं, लेकिन कभी-कभी न्याय पर आधारित उनके निर्णय उन लोगों के लिए कड़वे होते हैं जिनके विरुद्ध न्यायाधीशों ने निर्णय दिये होते हैं.
इस प्रकार यदि विरोधी पक्ष का कोई व्यक्ति यह कहे कि न्यायालय के सभी समूह पक्षपाती हैं, तो यह कदापि सत्य नहीं कहा जायेगा. वास्तविकता यह है कि संस्थाएं हमारे विकास की संपत्ति हैं. दूसरे शब्दों में, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से हमने जो भी विकास हासिल किया है, वह समय के साथ हमारी आवश्यकताओं के तहत निर्मित होने वाली संस्थाओं के कारण है.