स्पष्ट है आवाज द वाॅयस का जज्बा

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 09-01-2024
आवाज द वाॅयस का जज्बा स्पष्ट है
आवाज द वाॅयस का जज्बा स्पष्ट है

 

harहरजिंदर

पिछले कुछ समय में हमारे आस-पास और पूरी दुनिया में बहुत कुछ बदला है. बहुत सारी नफरत है जो न जाने कहां से आकर सोशल मीडिया के जरिये फैलने लग पड़ी है. लोग मेल जोल बढ़ाने के बजाए एक दूसरे के प्रति ज्यादा आक्रामक दिखने लगे हैं.

तकरीबन हर जगह दूसरों के प्रति सम्मान के भाव की जगह अब अक्सर अपमान का भाव दिखाई देता है. याद कीजिए जब देश आजाद हुआ था तो एक सपना था कि हम हर आंख का हर आँसू पोछेंगे, लेकिन अब जो सोच पसरने लगी है उसे देख कर तो बस आंसू ही निकलते हैं.

पिछले कुछ समय से उस गंगा जमुनी तहजीब को ही कठघरे में खड़ा किया जाने लगा है जो कभी हमारे देश की सबसे बड़ी ताकत होती थी. कुछ लोग उदारवाद को ही भला-बुरा कहने लगे हैं तो कुछ तो धर्मनिरपेक्षता पर ही सवालिया निशान लगाने लग गए हैं.

वे सारे मूल्य जिन हमने सभ्यता एक इमारत खड़ी की थी, सब पर खतरा मंडराने लगा है.इस दौर में एक ऐसे मीडिया की जरूरत काफी ज्यादा महसूस की जाने लगी है जो उन मूल्यों को आगे लाने का काम करे जो सदियों से न सिर्फ हमें जोड़ते रहे हैं, बल्कि तमाम विपरीत हालात में भी टूटने और बिखरने से रोकते रहे हैं.

ऐसी कोशिशों को फिर से खड़ा करने की जरूरत है जो हमारे मुल्क की धर्मनिरपेक्षता और उसकी डायवर्सिटी की रक्षा कर सकें. यह ऐसा काम है जिसमें मीडिया एक बड़ी भूमिका निभा सकता है.

पिछली कुछ सदी में स्थापित किए गए मानवता के वे उच्च विचार जो लगातार अपनी जमीन खोते जा रहे हैं, उन्हें फिर से खड़ा करने और मजबूत बनाने का काम ऐसा माध्यम ही कर सकता है जो जनता के हित की बात सोचता हो और सीधे उनके बीच पंहुचता हो.

आवाज द वाॅयस में यह जज्बा बहुत साफतौर पर दिखाई देता है, जो उसे बाकी मीडिया से अलग करता है और ढेर सारे वेबसाइट की भीड़ में गुम होने नहीं देता.

आवज द वाॅयस ने जो राह पकड़ी है वह बहुत आसान नहीं है. उसमें बाधाएं और कठिनाइयां तो हैं ही साथ ही इस राह में हमेशा कईं तरह के खतरे रहते हैं. किसी मकसद को लेकर अपने साथ चलने वाले संगठन कईं बार अभियानी बनकर रह जाते हैं और मीडिया वाला चरित्र अक्सर खो देते हैं.

खतरे सिर्फ इतने ही नहीं हैं. कई बार लगातार ऐसी कोशिशों को करते हुए मीडिया संगठन या तो सरकार के कट्टर विरोधी की तरह दिखने लगते हैं, या फिर सरकार के कट्टर समर्थक चापलूस की तरह बर्ताव करने लगते हैं.

खुद को तटस्थ बनाए रखते हुए परंपरागत मीडिया की तरह लंबे समय तक काम करते रहने की राह कभी आसान नहीं होती है. बेशक, हमारे सामने जो चुनौती है वह बहुत बड़ी है. लेकिन समझदारी के ये छोटे-छोटे दिए ही एक दिन घनघोर अंधेरे को हरा सकते हैं. काश आवाज द वाॅयस की तरह और भी कईं मीडिया संगठन होते तो मंजिल को पाना थोड़ा और आसान हो जाता.

( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )