पसमांदा आंदोलन और मुस्लिम एकरूपता का मिथक

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 27-05-2023
पसमांदा आंदोलन और मुस्लिम एकरूपता का मिथक
पसमांदा आंदोलन और मुस्लिम एकरूपता का मिथक

 

नदीम अहमद
 
इस समय पसमांदा मुसलमानों के विषय पर तेज़ी से बहस छिड़ी हुई हैं.इस बहस को इतिहास में उसी तरह से देखा जा सकता हैं जैसे डॉ भीमराव अम्बेडकर, महात्मा ज्योति फूले आदि दलित बुद्धिजीवियों ने शुरू की थी. इससे मालूम पड़ता हैं कि सदियों से सोई हुई पसमांदा कौम अब अपने सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक अधिकारों को लेकर बेदार हुई हैं.

                                                                                                                                                                                                                                                                                     पसमांदा मुस्लिम समाज को अब अहसास होने लगा है कि मुसलमानों के नाम पर उनका सिर्फ फायदा उठाया जा रहा है. उनको उनके सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक अधिकारों से वंचित किया जा रहा है. वर्तमान समय में एक बहुत ही रोचक बात यह है कि भले ही बहुत कम पसमांदा बुद्धिजीवियों द्वारा इस पर चर्चा हो रही है, लेकिन जितनी भी हैं अशराफो की नींद उड़ाने के लिए पर्याप्त है.
 
 शिक्षित पसमांदा बुद्धिजीवियों द्वारा बहुत तेज़ी से पसमांदा समाज को 'मूल निवासी के रूप मे जागरूक करने की कोशिश, जो इस समय गति पकड़ रही है, यदि यह कोशिश इसी तरह से रही तो इससे अशराफो  के सामने जो समस्या खड़ी होने वाली है,
 
वह है इनकी विदेशी पहचान का स्थापित होने की ओर बढ़ना. पसमांदा मुस्लिम बहुत ही सक्रिय होकर सोशल मीडिया, आपसी- संवाद, संपर्कों, सभा- सम्मेलनों आदि के ज़रिए इसको हवा दे रहे हैं.  दलितों और मुसलमानों को एक राजनीतिक वर्ग के रूप में एकजुट करने के इतिहास में कई सामाजिक-राजनीतिक प्रयास हुए हैं लेकिन इस सामाजिक-राजनीतिक मुक्ति को बढ़ावा देने में विफल रहे.
 
यह प्रयास चुनाव के समय अधिक दिखाई देता है, लेकिन चुनाव परिणामों पर एक शक्तिशाली प्रभाव बनाने के लिए दलित-मुस्लिम जैविक एकजुटता हासिल करने के लिए एकता और संबंधित बहस के विचार में कुछ मूलभूत समस्याएं हैं.
 
 तथाकथित सामाजिक न्याय राजनीतिक दलों के बीच मुस्लिम समुदाय की समझ में इस एकता की बाधाओं में से एक के रूप में पाया जा सकता है. वे गलती से मुसलमानों को एक "सजातीय समुदाय" के रूप में देखते हैं. किसी भी अन्य सामाजिक समूहों की तरह, मुसलमान भी सामाजिक रूप से 'विषम समुदाय' हैं, जो 700 से अधिक जाति समूहों में विभाजित हैं.
 
इस परिदृश्य में 'मुस्लिम समुदाय' को सामाजिक-राजनीतिक रूप से जाति समूहों के रूप में संबोधित किया जाना चाहिए न कि एक धार्मिक समूह के रूप में. साथ ही, हिंदुत्व के महारथी के नैरेटिव से यह खतरा पैदा हो गया कि सामाजिक न्याय दल और कांग्रेस पार्टी मुस्लिम समुदाय को केवल 'वोट बैंक' के रूप में इस्तेमाल करते हैं,
 
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इसलिए गोहत्या जैसे विभिन्न मुद्दों के रूप में अपने सांप्रदायिक अभियान को बचाने में सक्षम हैं. तीन तलाक, लव जिहाद, घर वापसी, गोमांस भक्षण, नागरिकता (संशोधन) अधिनियम-नागरिकों का राष्ट्रीय रजिस्टर, और अब मुसलमानों के खिलाफ एकल 'हिंदू एकता' के रूप में विभिन्न जाति समूहों को मजबूत करने के लिए नवीनतम हिजाब/बुर्का प्रतिबंध.
 
इस पृष्ठभूमि में, हम इस टुकड़े में दलित वर्गों के बीच एकता के लिए विभिन्न समाज सुधारकों और विचारकों द्वारा शुरू किए गए ऐतिहासिक प्रयासों पर चर्चा करना चाहते हैं. तथाकथित सामाजिक न्याय राजनीतिक दल दलित-मुस्लिम एकता के मुद्दों पर कोई प्रभाव डालने में विफल क्यों हैं.
 
पेपर का अंतिम खंड दलित-मुस्लिम समुदाय के बीच मौजूद सामाजिक-राजनीतिक अंतर्विरोधों और पूर्वाग्रहों से जुड़ा होगा जो दोनों समुदायों के बीच एक खाई पैदा करता है .  हिंदू धर्म में अस्पृश्यता के मसले पर काफी अध्ययन किया गया है, लेकिन मुस्लिम या ईसाई धर्म में इस तरह की परिघटना के बारे में बहुत कम व्यवस्थित अध्ययन किया गया है.
 
अमूमन समाज विज्ञान के शोधों में इस प्रश्न की उपेक्षा की गई है कि क्या मुस्लिमो में भी ऐसी जातियां या समूह है जिनके साथ अस्पृश्यता का व्यवहार किया जाता है और जिन्हें 'दलितों' की श्रेणी के नजदीक या उनकी तरह माना जा सकता है ?
 
मसलन, हाल-फिलहाल में घनश्याम शाह और अन्य का अध्ययन समकालीन भारत में अस्पृश्यता के बारे में एक बेहतरीन अध्ययन के रूप में जाना जाता है किंतु इसमें भी दलित-मुस्लिमों की स्थिति के बारे में विचार नहीं किया गया है.
 
अस्पृश्यता के दायरे में जीवन के सभी क्षेत्र आते हैं लेकिन इसमें भोजन, निवास, सामाजिक मेल- मिलाप और धार्मिक स्थान में जाने की अनुमति जैसे आयाम ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं. आमतौर पर हिंदुओं के विपरीत मुस्लिम इन (अस्पृश्यता) व्यवहारों को खुलकर स्वीकार नहीं करते हैं.
 
उनके द्वारा इस बात पर ज़ोर दिया जाता है कि इस्लामिक व्यवस्था में इस तरह के व्यवहारों को धार्मिक वैधता प्राप्त नही है और इस्लाम समतावादी मूल्यों पर आधारित है. विशेष तौर पर मुस्लिम की अच्छी पहचान के बारे में जागरूक उलेमाओं आदि द्वारा यह दावा किया जाता है कि मुस्लिमों में जाति का अस्तित्व नहीं होता है.
 
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जबकि देखा यह गया है कि अगर एक मुस्लिम या गैर मुस्लिम भंगी चाहे कितना भी साफ हो उसे मस्जिद या अशरफ, मुस्लिम राजपूत या स्वच्छ माने जाने वाले काम करने वाली जातियों के यहां जाने की अनुमति नहीं होती है.
 
भंगी, चाहे मुस्लिम हो या गैर मुस्लिम उन्हें आमतौर पर उनके बर्तन में खाना दिया जाता है. उन्हें पीने के लिए इस तरह पानी दिया जाता है ताकि जार उनके होटों को न छूए. कुछ 'मुस्लिम भंगिओ' के साथ अन्य मुस्लिम खाना नहीं खाते.
 
हालांकि मुस्लिमो के बीच जातिगत भेदभावों के बारे में लंबे समय तक व्यवस्थित अध्ययन करने का प्रयास नही किया गया. इसका एक कारण यह भी हुआ कि दलित परिप्रेक्ष्य से विचार करने वाले बहुत से विद्वानों ने भी यह मान लिया कि मुस्लिम धर्म में कोई जातिगत भेदभाव नहीं होता है.
 
एक लंबी ख़ामोशी रहने के बाद पिछले दो दशकों में समाज विज्ञान में इस मुद्दे पर बहस की शुरुआत हुई है, और कई अध्ययन हुए हैं. इन अध्ययनों में मुस्लिमों में अस्पृश्यता के अस्तित्व को रेखांकित किया गया है. मसूद आलम फलाही ने अपनी पुस्तक में यह दिखाया है कि सफाई के काम में लगे मुस्लिम जातियों को बहिष्करण और भेदभाव का सामना करना पड़ता है.
 
दलित मुस्लिमों पर काम करने वाले विद्वानों ने ' धर्मग्रंथ इस्लाम और ' व्यवहारिये इस्लाम' के बीच अंतर किया है. उन्होंने दलित मुस्लिम और अन्य सामाजिक समूहों की सामाजिक आर्थिक असमानताओं को रेखांकित किया है.
 
उनके साथ होने वाले अस्पृश्यता के व्यवहारों को सामने लाने का प्रयास किया है. आफताब आलम ने अपने अध्ययन में इस बात पर ज़ोर दिया है कि शुद्धता और अशुद्धता की अवधारणा, स्वच्छ और गंदी जातियां मुस्लिम समूहों के बीच भी मौजूद है.
 
अशराफ मुस्लिमों द्वारा दलित मुस्लिमो को गंदा और अशुद्ध माना जाता है. उनके अनुसार मुस्लिमो के बीच विभिन्न प्रकार की अस्पृश्यता मौजूद हैं. अशराफ दलित मुस्लिमो द्वारा उपयोग में लाए गए गिलास या बर्तन में पानी पीने से मना कर देते हैं.
 
दलित मुस्लिमो को पानी का स्रोत छूने की अनुमति नहीं देते हैं. उन्हें खाने के लिए बचा -खुचा भोजन दिया जाता है. पृथक बस्तियों में रहते हैं. दलित मुस्लिमो के साथ मस्जिदों में भी भेदभाव किया जाता है.कुछ मामलों में उन्हें आखिरी पंक्ति में बैठने के लिए कहा जाता है.
 
इस तरह के भेदभावों से बचने के लिए कुछ स्थानों पर दलित मुस्लिमो ने अपनी मस्जिदें बना ली है. अली अनवर ने अपनी पुस्तक 'मसावत की जंग 'में यह दिखाया है कि रोजमर्रा के जीवन में अशराफ लोगों के भेदभाव और अवमानना का व्यवहार किया जाता है.
 
इस तरह का भेदभाव मस्जिदों में होता है. यहां तक कि लोगों की मृत्यु के बाद भी होता है. दलित जातियों के सामाजिक-आर्थिक और कर्मकाण्डीय हैसियत या स्थिति की तुलना अनुसूचित जाति की श्रेणी में सम्मिलित अन्य जातियों से करते हुए अली अनवर ने यह तर्क दिया है कि 'हमारी यात्रा कमोबेश एक जैसी सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक स्थिति से आरंभ हुआ.
 
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हमने उनकी तरह कपड़े धोए. हमे भी उनकी तरह धोबी कहा गया. सिर्फ एक अंतर यह था कि उनका नाम हिंदू था और हमारा मुस्लिम. हमारी तरह उन्होंने भी गंदगी साफ करने का काम किया. मुख्य अंतर यही था कि उन्हें डोम और भंगी कहा गया. हमे मेहतर या हलालखोर कहा गया. अली अनवर का मुख्य ज़ोर इसी बात पर है कि मुस्लिमों के भीतर भी हिंदू दलित जैसी स्थिति और हैसियत वाले समुदाय हैं.
 
जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, मुस्लिम समूहों को सजातीय के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए. सच्चर समिति और अन्य सरकारी रिपोर्टों के अनुसार, समुदाय की 80-85% आबादी पसमांदा (पिछड़े वर्ग) हैं जो सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से दलितों और अन्य पिछड़े वर्गों के समान हैं ( ओबीसी) बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक, हिंदू-मुस्लिम,धर्मनिरपेक्षता-सांप्रदायिकता जैसे द्विआधारी के आसपास की राजनीति केवल विशेषाधिकार प्राप्त उच्च जाति और कुछ विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के हित को दर्शाती है.
 
दलित और पसमांदा इन उच्च जाति और वर्ग विमर्शों और राजनीति में जगह और अपने हितों को खोजने में विफल रहे. उदाहरण के लिए, बीआर अम्बेडकर ने बहुमत के शासन और हिंदुत्व राष्ट्रवाद का कड़ा विरोध किया, उन्होंने कहा "यदि हिंदू राज एक तथ्य बन जाता है, तो निस्संदेह, यह इस देश के लिए सबसे बड़ी आपदा होगी."
 
कार्यकर्ता और अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज ने भी इसी तरह की टिप्पणियां की थीं। उनका तर्क है कि "भारत में हिंदू राष्ट्रवाद के उभार को लोकतंत्र की समतावादी मांगों के खिलाफ ऊंची जातियों के विद्रोह के रूप में देखा जा सकता है." इसलिए, उनके अनुसार, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ/भारतीय जनता पार्टी (आरएसएस/बीजेपी) के शासन में उछाल बहुसंख्यक शासन का प्रतिबिंब नहीं है, बल्कि यह संवैधानिक लोकतंत्र के खिलाफ उच्च जाति की शत्रुता है.
  
दलित-पसमांदा-ओबीसी एकता की जटिल सामाजिक वास्तविकता है. सामाजिक न्याय के योद्धा मान्यवर कांशीराम के अनुभवों से कोई भी आसानी से समझ सकता है. उन्होंने मुस्लिम समाज में जाति व्यवस्था और सामाजिक-राजनीतिक भेदभाव पर प्रकाश डाला.
 
मसलन, उन्होंने मुस्लिम समाज के साथ अपने काम का अनुभव दिया था. उनके अनुसार, "मैंने सोचा कि उनके नेतृत्व के माध्यम से मुसलमानों से संपर्क करना बेहतर होगा. करीब 50 मुस्लिम नेताओं से मिलने के बाद मैं उनका ब्राह्मणवाद देखकर दंग रह गया.
 
इस्लाम हमें समानता स्थापित करने और अन्याय के खिलाफ संघर्ष करने की शिक्षा देता है लेकिन मुसलमानों के नेतृत्व में सैयद, शेख, मुगल और पठान जैसी तथाकथित उच्च जातियों का वर्चस्व है. बाद वाले नहीं चाहते कि अंसारी, धूनिया, कुरैशी अपने स्तर तक उठें” अम्बेडकर की किताब पाकिस्तान ऑर द पार्टीशन ऑफ इंडिया  में भी इसी तरह के विचार व्यक्त किए गए थे.
 
उन्होंने कहा, "जाति व्यवस्था को ही लीजिए. इस्लाम भाईचारे की बात करता है. हर कोई अनुमान लगाता है कि इस्लाम गुलामी और जाति से मुक्त होना चाहिए. गुलामी के बारे में कुछ कहने की जरूरत नहीं है. यह अब कानून द्वारा समाप्त कर दिया गया है. लेकिन अगर गुलामी चली गई है, तो मुसलमानों के बीच जाति बनी हुई है.  
 
20 वीं शताब्दी की शुरुआत में जब कई जाति-विरोधी आंदोलनों का आयोजन किया गया. प्रमुख नेताओं ने उनका नेतृत्व किया. भारत के निचली जाति के मुसलमानों के बीच भी इसी तरह के जाति-विरोधी और आत्म-गरिमा के आंदोलन स्पष्ट थे.
 
उदाहरण के लिए, मौलाना अली हुसैन "आसिम बिहारी पहले पसमांदा आंदोलन के नेता थे .उन्होंने बीड़ी मजदूर समाज की स्थापना की. उनके लिए पसमांदा बुनकर के साथ काम किया. बिहार में सासाराम के हाजीराम मोहम्मद फरखुंद अली के नेतृत्व में 1926 के अखिल भारतीय मोमिन सम्मेलन ने बुनकरों के पारंपरिक शिल्प को पुनर्जीवित करने, स्वाभिमान, धार्मिक धार्मिक आचरण और आर्थिक स्वतंत्रता को बढ़ावा देने के उद्देश्यों के साथ एक संगठन शुरू किया.
 
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विभिन्न रूपों के समकालीन पसमांदा संगठन भी सामाजिक-आर्थिक सीमांत समुदायों की समान स्थिति के बीच एक बड़े गठबंधन के लिए लगातार जोर दे रहे हैं.  माना जाता है कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर दलित और मुस्लिम भारत के सबसे वंचित तबकों में सम्मिलित हैं. हाल के दशकों में हिंदुत्ववादी राजनीति के उभार के बाद मुस्लिमों का हशियाकरण बड़ा है; दलितों का एक तबका जरूर भाजपा के निकट गया है,
 
लेकिन एक बड़ा भाग अभी भी भाजपा से दूर है. यही स्थिति मुस्लिम पसमांदा समाज की भी है. हालांकि भाजपा के नजदीक या दूर जाने से दलितों के खिलाफ होने वाले उत्पीड़न की घटनाओं पर कोई गहरा प्रभाव नहीं पड़ा है.
 
अर्थात अभी भी दलित विविध स्तरों पर वंचना, अस्पृश्यता और शोषण सहने के लिए मजबूर है. मुस्लिमों में दलित मुस्लिमों की स्थिति ज्यादा खराब है, क्योंकि उन्हें अपने समुदाय के भीतर भी बहिष्कारण और कई मामलों में अस्पृश्यता का सामना करना पड़ता हैं.
 
कुल- मिलाकर एक धार्मिक समूह के रूप में भी मुस्लिमों की स्थिति बहुत बेहतर नहीं मानी जा सकती हैं. ऐसे में सिर्फ राजनीतिक स्तर पर ही नहीं, बल्कि जीवन के अन्य आयामों में भी दलित और संपूर्ण मुस्लिम समुदाय के बीच सहयोग का प्रश्न काफ़ी प्रासंगिक हो जाता हैं.
 
आखिर इस तरह के सहयोग की क्या संभावनाएं हैं. इसके रास्ते में किस तरह की मुश्किलें हैं ? क्या हाल के समय में इस तरह के सहयोग या गठजोड़ निर्माण की प्रक्रिया ने उन सभी मुद्दों को गंभीरता से लिया है, जो इन दो समुदायों के जीवन को प्रभावित करती हैं.

संदर्भ-
 
1- Imtiaz Ahmad (ed.), Caste and Social Stratification among Muslims in India,

2-Yoginder Sikand, “A New Indian Muslim Agenda: The Dalit Muslims and the All India Backward Muslim Morcha”, Journal of Muslim Minority Affairs

3-Ahmad I. (1978). Caste and social stratification among Muslims in India, 2nd ed. Manohar Publications

4-Ansari K. A. (2009). Rethinking the Pasmanda movement. Economic and Political Weekly,

5-Bashir K., , & Wilson M. (2017). Unequal among equals: Lessons from discourses on ‘Dalit Muslims’ in modern India. Social Identities: Journal for the Study of Race, Nation and Culture,

6-Hassan H. (2012). A sociological study of Dalit Muslim in India. Unpublished M.Phil. dissertation. Jawaharlal Nehru University.

7-All India Pasmanda Muslims Mahaz. Pasmanda Jagao Desh Bachao (Brochure)

8-मसूद आलम फलाही, हिंदुस्तान में जात-पात और मुसलमान, आइडियल फाउंडेशन, मुम्बई, संस्करण 2009


शोध छात्र (राजनीति विज्ञान)
लखनऊ विश्वविद्यालय,लखनऊ
मो०-7830795958