राजीव नारायण
दिल्लीवासी भले ही अपने डिज़ाइनर शोरूम पर इतराते हों और मुंबईकर अपनी बुटीक वाली सड़कों पर शेखी बघारते हों, लेकिन जब बात हाई-एंड ऑनलाइन शॉपिंग की आती है, तो भारत के महानगर अब पिछड़ते हुए दिख रहे हैं.असली हलचल नागालैंड, मिज़ोरम, मणिपुर और मेघालय की पहाड़ियों में है, जहाँ भारत के 'दूर-दराज़' के खरीदार एक डिजिटल खुदरा क्रांति की अगुवाई कर रहे हैं.राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (NSO) के सर्वेक्षण के अनुसार, ये सात बहनें सिर्फ़ ऑनलाइन शॉपिंग नहीं कर रही हैं—वे बड़ी खरीदारी कर रही हैं, स्टाइलिश खरीदारी कर रही हैं और इतनी तेज़ी से कर रही हैं कि गुरुग्राम के चमकते मॉल भी अब फीके लगने लगे हैं.
ये आँकड़े किसी सीमित संस्करण वाले गैजेट की तरह ही आकर्षक हैं.पिछले साल, नागालैंड ने प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय में 17.4प्रतिशत की चौंकाने वाली बढ़ोतरी दर्ज की, जबकि ग्रामीण मिज़ोरम में यह वृद्धि 14.2प्रतिशत रही। मेघालय के शहरी क्षेत्रों में 22प्रतिशत की शानदार वृद्धि हुई, वहीं मणिपुर 21.8 प्रतिशत के साथ उसके करीब रहा.
यह कोई मामूली बढ़ोतरी नहीं है, बल्कि खर्च में एक ऐसी छलांग है जिसने सांख्यिकीविदों को भी अपनी स्प्रेडशीट दोबारा जाँचने पर मजबूर कर दिया है.यह नया खर्च सिर्फ़ रोज़मर्रा की चीज़ों पर ही नहीं, बल्कि महंगे कपड़ों, पर्सनल केयर आइटम, गैजेट्स और यहाँ तक कि उन स्किनकेयर सीरम और लिपस्टिक पर भी हो रहा है, जिनकी कीमत प्रति औंस सोने से भी ज़्यादा है.
संस्कृति और कनेक्टिविटी का संगम
इस बदलाव के कई कारण हैं, जिनमें सबसे बड़ा है इंटरनेट की पहुँच.पहाड़ों में स्मार्टफोन उसी तेज़ी से फैले हैं, जिस तेज़ी से व्हाट्सएप ग्रुप में मीम्स फैलते हैं.आज स्मार्टफोन आम बात हो गई हैऔर उनके साथ आती हैं रील, प्रभावशाली लोगों के सुझाव और टिकटॉक ट्यूटोरियल.
अब यह कल्पना करना मुश्किल नहीं है कि शुक्रवार को सियोल में लॉन्च हुई एक लिपस्टिक का शेड शनिवार तक कोहिमा में किसी की शॉपिंग कार्ट में हो सकता हैऔर अगर कूरियर देवता मेहरबान हों, तो सोमवार तक किसी के होठों पर.इस क्षेत्र के युवाओं के लिए, जो डिजिटल रूप से काफी सक्रिय हैं, हाई-एंड शॉपिंग सिर्फ उपभोग नहीं, बल्कि एक वैश्विक संस्कृति से जुड़ने का जरिया बन गई है.
इसका एक कारण यह भी है कि उत्तर-पूर्व के लोग अपनी विरासत पर गर्व करते हुए भी, वैश्विक रुझानों से गहराई से जुड़े हुए हैं.इसलिए, यहाँ के खरीदार k-ब्यूटी मॉइस्चराइज़र के साथ अपनी पारंपरिक जैकेट पहनते हैं, या ऐसे स्नीकर्स ऑर्डर करते हैं जो आइज़ोल की घुमावदार गलियों में भी उतने ही स्टाइलिश लगते हैं, जितने ब्रुकलिन की सड़कों पर.
ई-कॉमर्स कंपनियाँ भी इस आकर्षण को पहचान रही हैं और ऐसे खास कलेक्शन पेश कर रही हैं जो परंपरा और आधुनिकता का मिश्रण होते हैं.जो क्षेत्र कभी हथकरघा और हस्तशिल्प की भूमि के रूप में जाना जाता था, वह अब हाई-स्ट्रीट फैशन के लिए एक नया केंद्र बन रहा है, जहाँ वर्दीधारी बाइक सवार कार्डबोर्ड के डिब्बों में सपनों की डिलीवरी करते हैं.
विकास की रफ्तार और चुनौतियाँ
बढ़ती वित्तीय क्षमता इस बदलाव का सबसे बड़ा आधार है.NSO के आंकड़े साफ बताते हैं कि उत्तर-पूर्व के घरों में अब खर्च करने लायक आय है, और लोग इसका इस्तेमाल सिर्फ़ अपनी ज़रूरतों से आगे बढ़कर, अपनी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए कर रहे हैं.
महानगरीय भारत में, खरीदारों का यह बदलाव धीरे-धीरे हुआ है, लेकिन उत्तर-पूर्व में यह बहुत तेज़ी से हुआ है.एक साल आप ऑनलाइन खाना पकाने का तेल खरीद रहे हैं, और अगले ही साल आप डिज़ाइनर घड़ियाँ खरीद रहे हैं। अर्थशास्त्री इसे उपभोग की टोकरी में बदलाव कह सकते हैं; लेकिन यहाँ के खरीदार इसे बस अपनी 'स्टाइल की इच्छा-सूची' से तालमेल बिठाना कहते हैं.
बेशक, इस खरीदारी की होड़ के साथ कई चुनौतियाँ भी आती हैं, जिन्हें कोई भी पैसा तुरंत हल नहीं कर सकता.लॉजिस्टिक्स अभी भी एक बड़ी समस्या बनी हुई है.सड़कें घुमावदार हैं, और कूरियर सेवाएँ धीमी हैं, जिसका मतलब है कि 'दो दिन में डिलीवरी' अक्सर 'अगर किस्मत अच्छी रही तो दो हफ़्ते' में तब्दील हो जाती है.शिपिंग शुल्क कभी-कभी एक साधारण लिपस्टिक को भी लग्ज़री खरीदारी जैसा बना सकता है.वापसी की प्रक्रिया भी थकाऊ होती है, जिससे कई बार उपभोक्ता पार्सल आने के बाद उसे वापस भेजने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाते.
इसके बावजूद, खरीदारी का उत्साह कम नहीं हुआ है.उपभोक्ता इन देरी को मज़ाक में लेते हैं, शिपिंग लागत को मुँह बनाकर स्वीकार करते हैं और खराब कनेक्टिविटी का मज़ाक उड़ाते हैं, न कि शोक मनाते। हाई-एंड वस्तुओं की चाहत इतनी प्रबल होती है कि वे कार्ट को नहीं छोड़ते.
अगर लचीलेपन का कोई ब्रांड एंबेसडर होता, तो वह शायद एक मिज़ो शॉपर होता, जो अपने सीरम के आने का धैर्यपूर्वक इंतज़ार करता है और मज़ाक में कहता है कि डिलीवरी से पहले ही इसकी समय सीमा समाप्त हो सकती है.
बाज़ार की रानी
नागालैंड और मिज़ोरम इस लहर के निर्विवाद रूप से अग्रणी हैं.दीमापुर ऑनलाइन आभूषणों, जूतों और कपड़ों की खरीदारी से गुलज़ार है, जबकि आइज़ोल के खरीदारों ने उच्च-स्तरीय सौंदर्य उत्पादों को चावल की शराब जितना ही ज़रूरी बना दिया है.मेघालय और मणिपुर भी पीछे नहीं हैं, जहाँ घर तेजी से स्टाइलिश आवासों में तब्दील हो रहे हैं, जो सबसे अच्छे महानगरीय उपनगरों को टक्कर दे रहे हैं.
यह सच है कि आकार के मामले में महानगर अभी भी हावी हैं, लेकिन पूर्वोत्तर में क्रेज़ और विकास दर उन्हें सुस्त दिखाती है.यह एक तेज़ धावक और मैराथन धावक को देखने जैसा है—महानगरों के पास अभी भी दूरी है, लेकिन पहाड़ियाँ कहीं ज़्यादा ऊर्जा के साथ दौड़ रही हैं.
ई-कॉमर्स कंपनियों के लिए, भारत के उत्तर-पूर्व में ऑनलाइन बाज़ार का बढ़ना एक सपना भी है और तार्किक रूप से एक दुःस्वप्न भी.यह बाज़ार युवा, आकांक्षी और ज़रूरतमंद है, लेकिन बुनियादी ढाँचा अभी भी बहुत कुछ हासिल नहीं कर पाया है.सरकार के पास, अपनी ओर से, बेहतर सड़कें, तेज़ इंटरनेट और कुशल कूरियर सेवाएँ बनाकर इस गति को सुचारू बनाने का एक शानदार मौका है.इससे उत्तर-पूर्व न केवल एक आशाजनक बाज़ार, बल्कि एक नया चलन स्थापित करने वाला केंद्र भी बन सकता है.
तो, अगली बार जब कोई यह सोचे कि भारत की उपभोक्ता संस्कृति दिल्ली के मॉल या मुंबई के बुटीक से तय होती है, तो उन्हें बता दें कि असली ट्रेंडसेटर तो शिलांग के कैफ़े और कोहिमा के हॉस्टल में बैठे हैं.भारत के महानगर भले ही साइज़ के बादशाह हों, लेकिन पूर्वोत्तर स्टाइल की रानी है.
जैसा कि NSO की स्प्रेडशीट पुष्टि करती है, जब बात हाई-एंड शॉपिंग की आती है, तो पहाड़ियाँ सिर्फ़ संगीत से ही नहीं, बल्कि ऑनलाइन शॉपिंग नोटिफिकेशन से भी गुलज़ार रहती हैं.क्योंकि सेवन सिस्टर्स ने तय कर लिया है कि हाई-एंड होना सिर्फ़ ख्वाहिश नहीं है, यह तो पहले से ही उनकी शॉपिंग कार्ट में है.
✍️ लेखक वरिष्ठ पत्रकार और संचार विशेषज्ञ हैं।