टैरिफ की मार, स्वास्थ्य पर वार: अमेरिका की फार्मेसियां बेहाल

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 17-09-2025
Tariffs hit, health attack: US pharmacies in trouble
Tariffs hit, health attack: US pharmacies in trouble

 

dराजीव नारायण

वॉशिंगटन द्वारा भारतीय आयात पर 25%का टैरिफ लगाने के कुछ ही हफ्तों बादऔर नई दिल्ली द्वारा रूस से कच्चे तेल की खरीद पर इसे 50%तक बढ़ाने के बादइसका अप्रत्याशित परिणाम भारत में नहीं, बल्कि अमेरिका की दवा दुकानों पर दिखाई दे रहा है.समय का पहिया घूम चुका है.इसकी तीखी धार अब अमेरिकी मरीजों पर पड़ रही है.फार्मेसियों की अलमारियां खाली हो रही हैं. दवाओं की कमी बढ़ रही है.जो दवाएं बची हैं उनकी कीमतें आसमान छू रही हैं.यह विडंबना जितनी क्रूर है उतनी ही चौंकाने वाली भी.भारत को दबाने की कोशिश में, अमेरिका ने अपनी ही स्वास्थ्य सेवा प्रणाली को संकट में डाल दिया है.

यह सीधा-सादा सच है कि भारत अमेरिकी दवा आपूर्ति श्रृंखला में केवल एक निर्यातक नहीं है.यह किफायती दवाओं की रीढ़ है.अमेरिका में इस्तेमाल होने वाली एक-तिहाई से ज़्यादा जेनेरिक दवाएं भारत में ही बनती हैं.

अमेरिकी फार्मेसियों में भरे जाने वाले लगभग 90%नुस्खे जेनेरिक होते हैं, जो अमेरिकी स्वास्थ्य के लिए भारत को एक अपरिहार्य साझेदार बनाता है.भारतीय प्रयोगशालाओं और संयंत्रों द्वारा कम लागत वाले विकल्प उपलब्ध न होने से, अमेरिका में मरीजों को या तो गंभीर दवा कमी का सामना करना पड़ रहा है या फिर भारी बिलों का.

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आंकड़े बताते हैं निर्भरता की कहानी

अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन (FDA) के अपने आंकड़े इस निर्भरता की नाजुकता को उजागर करते हैं.2024की पहली तिमाही में, FDA ने 323दवाओं को सक्रिय कमी वाली सूची में रखा था.इनमें से 70%से अधिक जेनेरिक थीं, जिनमें जीवनरक्षक एंटीबायोटिक्स, कैंसर की दवाएं और अन्य महत्वपूर्ण औषधियां शामिल थीं.डॉक्टरों को वैकल्पिक दवाओं की तलाश में काफी मशक्कत करनी पड़ी.अब, इस पहले से ही तनावपूर्ण व्यवस्था पर टैरिफ ने इसे चरमराने के कगार पर पहुंचा दिया है.

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भारतीय और अमेरिकी विशेषज्ञों की चेतावनी

राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा टैरिफ की घोषणा के बाद से ही, भारत का दवा क्षेत्र ऐसी स्थिति की चेतावनी दे रहा था.फार्मास्युटिकल्स एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल ऑफ इंडिया  के अध्यक्ष नमित जोशी ने कहा, "अमेरिकी बाजार भारतीय और चीनी आपूर्ति पर बहुत अधिक निर्भर है.भारत पर इसका कोई बड़ा असर नहीं होगा.हम अभी यूरोप और अन्य बाजारों पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं.हम सबसे कठिन समय में भी टिके रह सकते हैं और वापसी करेंगे."

डॉ. रेड्डीज़ लैबोरेटरीज के प्रबंध निदेशक डॉ. जीवी प्रसाद ने भी यही चेतावनी दोहराई.उन्होंने कहा, "भारत को नए बाजार और अवसर मिलेंगे.इसकी कीमत अमेरिकी उपभोक्ताओं को चुकानी होगी." सीधी-सादी व्यावसायिक सच्चाई यह है कि दवा उत्पादन केंद्रों को रातोंरात अमेरिका में स्थानांतरित करना न तो व्यावहारिक है और न ही लागत-कुशल.दशकों से, अमेरिकी स्वास्थ्य सेवा भारत के पैमाने, दक्षता और कम लागत पर निर्भर रही है.इसे रातोंरात दोहराने की कोशिश करना बहुत ज्यादा उम्मीद करना है.

अमेरिका के चिकित्सा विशेषज्ञ भी इस स्थिति से उतने ही परेशान हैं.जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय की डॉ. मारियाना सोकल ने संक्षेप में कहा, "शुल्क का मतलब है दवाओं की बढ़ती कीमतें और कमी, खासकर जेनेरिक दवाओं में."

ING के स्वास्थ्य सेवा प्रमुख स्टीफन फैरेली ने तो दवा उत्पादों पर शुल्क के प्रति अपनी नाराजगी को सही ठहराने के लिए आंकड़े भी पेश किए: "नए शुल्कों के तहत कैंसर की दवाओं के 24हफ्ते के कोर्स पर अमेरिकी मरीजों को $8,000-10,000 (लगभग ₹7.5लाख से ₹8लाख) तक ज्यादा खर्च करने पड़ेंगे." ऑनलाइन दवाएं बेचने वाली कॉस्टप्लस ड्रग्स के सह-संस्थापक मार्क क्यूबन ने कहा कि नए शुल्कों के कारण "लागत वहन करने की कोई गुंजाइश नहीं बचती और हर डॉलर सीधे मरीजों पर पड़ेगा."

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आंकड़े झूठ नहीं बोलते

जेनेरिक दवाओं पर अमेरिका की निर्भरता बहुत अधिक है.पिछले साल अमेरिका को भारत से $7 बिलियन (₹60,000 करोड़ से अधिक) की दवाएं निर्यात की गईं, जो किफायती दवाओं के भंडार का एक बड़ा हिस्सा है.टैरिफ के कारण यह निर्यात कम हो रहा है और मरीज सीधे तौर पर प्रभावित हो रहे हैं.

फार्मेक्सिल के नमित जोशी बताते हैं कि भारत के पैमाने की भरपाई के लिए पर्याप्त आंशिक क्षमता विकसित करने में भी अमेरिका को कम से कम तीन साल लगेंगे.यह अंतर अल्पावधि में पाटना असंभव है.इस बीच, आपूर्ति में आने वाली हर रुकावट,चाहे वह कैंसर विज्ञान में हो, एंटीबायोटिक्स में हो या साधारण दर्द प्रबंधन में,अमेरिकियों और उनके परिवारों को महसूस होगी.

ट्रम्प प्रशासन की रणनीति जन स्वास्थ्य के तर्क पर नहीं, बल्कि राजनीतिक नाटक पर आधारित प्रतीत होती है.भारतीय दवाओं पर शुल्क लगाकर, वॉशिंगटन व्यापार पर अपनी सख्ती दिखाना चाहता है.लेकिन यह गणना घातक रूप से गलत है, क्योंकि ये टैरिफ भारतीय दवा कंपनियों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाते, जो अब यूरोप, अफ्रीका और मध्य पूर्व की ओर बढ़ रही हैं.इसके बजाय, ये टैरिफ अमेरिकी सामर्थ्य पर प्रहार करते हैं.

इंडियन फार्मास्युटिकल अलायंस के महासचिव सुदर्शन जैन कहते हैं: "भारतीय दवाओं को शुरुआत में सबसे कठोर टैरिफ ब्रैकेट से इसलिए बचा लिया गया था,क्योंकि वे अमेरिका में किफायती स्वास्थ्य सेवा के लिए बेहद जरूरी हैं." इन टैरिफ को बढ़ाकर, अमेरिका ने मरीजों की सुरक्षा और उनके बजट के साथ खिलवाड़ किया है.

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एक गहराता संकट

दवाओं की कमी कोई सैद्धांतिक बात नहीं है.यह पूरे अमेरिका की फार्मेसियों में देखी जा रही है.कैंसर रोगियों को वैकल्पिक उपचारों पर स्थानांतरित किया जा रहा है क्योंकि महत्वपूर्ण कीमोथेरेपी दवाएं उपलब्ध नहीं हैं.बाल चिकित्सा अस्पतालों में, एंटीबायोटिक्स और इंजेक्शन की राशनिंग की जा रही है.

ये केवल असुविधाएं नहीं, बल्कि जीवन-मरण का जोखिम हैं.मौजूदा कमी के ऊपर लगाए गए टैरिफ इस संकट को और बढ़ा रहे हैं.अस्पतालों को घटती आपूर्ति के लिए अधिक भुगतान करने के लिए मजबूर किया जा रहा है.फार्मेसियां या तो यह लागत रोगियों पर डाल रही हैं या अपनी अलमारियों को खाली छोड़ रही हैं.बीमा कुछ हद तक इस कमी को पूरा कर रहा है, लेकिन पूरी तरह से नहीं.इससे बिना बीमा वाले या कम बीमा वाले लोगों को सबसे अधिक परेशानी हो रही है.

इस व्यापार गतिरोध के पीछे भू-राजनीति छिपी है.भारत पर 25%का जुर्माना लगाकर, अमेरिकी मरीजों को वैश्विक ऊर्जा व्यापार पर डोनाल्ड ट्रम्प के राजनीतिक बयान को सब्सिडी देने के लिए मजबूर किया जा रहा है.तेल के बदले भारत के दवा निर्यात को दंडित करना न केवल अनुचित है, बल्कि प्रतिकूल भी है.यह एक साझेदार देश को अलग-थलग कर देता है और अमेरिका के घरेलू संकट को और बढ़ा देता है.

अपनी ओर से, भारत पहले से ही दवा व्यवसाय को पुनर्संयोजित करने की प्रक्रिया में है.निर्यातकों ने खाड़ी, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में निर्यात बढ़ा दिया है.कई लोगों के लिए, अमेरिकी बाजार का नुकसान दर्दनाक है, लेकिन घातक नहीं। असली नुकसान अमेरिकी उपभोक्ता को हो रहा है, जो इतनी आसानी से आपूर्ति स्रोत नहीं बदल सकते.

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मरीज ही भुगत रहा है

जब व्यापार युद्ध स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में फैलते हैं, तो मरीज ही भुगतता है.इस मामले में, लागत डॉलर से कहीं अधिक होगी.यह कैंसर के मरीजों द्वारा उपचार में देरी, मधुमेह के मरीजों द्वारा दवाओं की राशनिंगऔर अस्पतालों द्वारा बीमा न कराने वालों को इनकार करने के बारे में है.

ये उस टैरिफ व्यवस्था के अनुमानित परिणाम हैं जो दवाओं को एक हथियार की तरह इस्तेमाल करती है.अमेरिकी अधिकारी इस तर्क के पीछे छिपने की कोशिश कर सकते हैं कि वे घरेलू उद्योग की रक्षा कर रहे हैं, लेकिन वास्तविकता बहुत कठोर है.अमेरिका में कोई भी घरेलू दवा उद्योग इस खालीपन को भरने के लिए तैयार नहीं है.ऐसा उद्योग बनाने में वर्षों, अरबों डॉलर और बड़े पैमाने पर नियामक व्यवस्था को सुव्यवस्थित करने में लगेंगे.तब तक, टैरिफ केवल बीमारी और अस्वस्थता को बढ़ाएंगे.

महासागर के दोनों ओर का संदेश एकमत है.हैदराबाद में डॉ. प्रसाद से लेकर बाल्टीमोर में डॉ. सोकल तक, दिल्ली में जोशी से लेकर लंदन में फैरेली तक, चेतावनियां एक ही हैं.अमेरिकी टैरिफ ऊंची कीमतों, भारी कमी और टाले जा सकने वाले कष्टों का नुस्खा हैं.

अमेरिका को यह तय करना होगा कि वह अपने नागरिकों के स्वास्थ्य से ज्यादा व्यापारिक अस्थिरता के दिखावे को महत्व देता है या नहीं। देश भर की दवा दुकानों में इसके प्रमाण पहले से ही दिखाई दे रहे हैं.खाली अलमारियां, बढ़े हुए बिल और बेचैन मरीज, जो भू-राजनीति में स्वास्थ्य सेवा को मोहरे की तरह इस्तेमाल करने की मूर्खता के स्पष्ट प्रमाण हैं.

—लेखक वरिष्ठपत्रकार और संचारविशेषज्ञ हैं.