राजस्थान की पहली महिला काज़ी निशात हुसैन: सामाजिक बदलाव की जिंदा मिशाल

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  onikamaheshwari | Date 17-09-2025
Nishat Hussain, Rajasthan's First Female Qazi
Nishat Hussain, Rajasthan's First Female Qazi

 

निशात हुसैन को राजस्थान की पहली महिला मुस्लिम काज़ी और मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की अथक पैरोकार होने का गौरव प्राप्त है. उनकी जीवन यात्रा साहस, दृढ़ता और सामाजिक सुधार की आवश्यकता में अटूट विश्वास से भरी है. अपने प्रयासों से, उन्होंने न केवल हज़ारों महिलाओं में उनके अधिकारों के प्रति जागरूकता फैलाई है, बल्कि उन्हें अपने जीवन की बागडोर संभालने के लिए भी प्रेरित किया है. जयपुर से आवाज द वाॅयस के प्रतिनिधि फरहान इज़राइली ने द चेंज मेकर्स सीरिज के लिए निशात हुसैन पर यह विस्तृत रिपोर्ट तैयार की है. 

उनके शुरुआती साल सांप्रदायिक सद्भाव के प्रतीक थे. वह याद करती हैं, "हमें नहीं पता था कि कौन हिंदू है और कौन मुसलमान - हम सब एक जैसे थे." करौली, एक सुदूर और अविकसित क्षेत्र में पली-बढ़ी, जहाँ लड़कियों की शिक्षा की काफी उपेक्षा की जाती थी, निशात ने इतिहास रच दिया. वह दसवीं कक्षा पास करने वाली ज़िले की पहली मुस्लिम लड़की बनीं - और 1,200 लड़कियों में से एकमात्र मुस्लिम छात्रा. निशात का जन्म करौली के सीताबाड़ी मोहल्ले में हुआ था, जहाँ उनका परिवार तीन मंदिरों के पास रहने वाला एकमात्र मुस्लिम परिवार था.

उनके पिता करौली राजघराने के प्रमुख दर्जी थे. 17 साल की उम्र में, उन्होंने जयपुर के मोहम्मद हुसैन से शादी की, जो एक राजपत्रित अधिकारी और प्रगतिशील विचारक थे और महिला अधिकारों के प्रबल समर्थक थे. उनके दृष्टिकोण ने निशात को वह दिशा और प्रोत्साहन दिया जिसकी उसे अपनी राह तलाशने के लिए ज़रूरत थी. जयपुर में, उन्होंने "निशात अकादमी" नामक एक स्कूल खोला, जिसने 350 वंचित बच्चों को शिक्षित किया, जिनमें से केवल पाँच प्रतिशत मुस्लिम थे.

लेकिन 1989 में जयपुर में हुए सांप्रदायिक दंगों के दौरान एक महत्वपूर्ण मोड़ आया. हिंसा ने उन्हें गहराई से झकझोर दिया, लेकिन इसने समाज को विभाजित करने वाली सामाजिक रूढ़ियों और अन्याय के खिलाफ लड़ने का संकल्प भी जगाया. अशांति के दौरान खतरे में पड़े उनके स्कूल को बच्चों और उनके अभिभावकों ने संरक्षण दिया, जिन्होंने कहा, "यह शिक्षा का मंदिर है. हमें नहीं पता कि यह हिंदू है या मुस्लिम, लेकिन यह हमारे बच्चों को शिक्षा दे रहा है." उस क्षण ने उनके आध्यात्मिक पुनर्जन्म को चिह्नित किया - और एक समाज सुधारक के रूप में उनके जीवन की शुरुआत.

उसी वर्ष, उन्होंने राष्ट्रीय मुस्लिम महिला कल्याण सोसाइटी की स्थापना की, जिसे आधिकारिक तौर पर 1992 में पंजीकृत किया गया. "मुस्लिम" शब्द को जानबूझकर शामिल किया गया था - यह दर्शाने के लिए कि मुस्लिम महिलाएं देशभक्त नागरिक हैं जो प्रगति और समावेशन चाहती हैं.

संगठन ने अजमेरऔर सराना जैसे संवेदनशील इलाकों में सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देने और विभिन्न समुदायों को संवाद और सहयोग के लिए एक साथ लाने के लिए काम किया. उन्होंने टाडा कानून के तहत गलत तरीके से गिरफ्तार किए गए लोगों के लिए आवाज़ उठाई और जेल सुधारों की माँग के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री भैरों सिंह शेखावत से व्यक्तिगत रूप से मुलाकात की.

शेखावत उन्हें प्यार से "बहन" कहते थे और बदले में उन्होंने उन्हें राखी बाँधी. जब उन्हें आयोग के अध्यक्ष पद की पेशकश की गई, तो उन्होंने यह कहते हुए मना कर दिया, "मुझे सिर्फ़ आशीर्वाद चाहिए, कोई पद नहीं." दंगों के बाद, जब कई लड़कियों को स्कूल छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा, निशात ने महिलाओं को दसवीं कक्षा तक अपनी पढ़ाई पूरी करने में मदद करने के लिए 20 वयस्क शिक्षा केंद्र खोले.

उन्होंने जयपुर का पहला परामर्श केंद्र भी स्थापित किया, जहाँ सभी धार्मिक पृष्ठभूमि की महिलाएँ मार्गदर्शन ले सकती थीं. वह कहती हैं, "हर दिन कम से कम एक घर बचाया जाता है." उन्होंने पुरुषों को महिलाओं के अधिकारों और सम्मान के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए परामर्श कार्यशालाएँ भी आयोजित कीं.

एक और सामाजिक मानदंड को चुनौती देते हुए, निशात ने महिलाओं को काज़ी बनाने के विचार को आगे बढ़ाया. उन्होंने मुंबई में इस्लामी न्यायशास्त्र और भारतीय संविधान का अध्ययन करते हुए पाँच वर्षीय पाठ्यक्रम पूरा किया.

जहाँ आरा और अफ़रोज़ के साथ, निशात राजस्थान की पहली महिला काज़ियों में से एक बनीं. हालाँकि उन्हें काफ़ी विरोध का सामना करना पड़ा, लेकिन एक प्रसिद्ध इस्लामी विद्वान ने उनके रुख़ को मान्यता दी, जिन्होंने इस्लामी इतिहास में 250 महिला काज़ियों के अस्तित्व का हवाला दिया.

उन्होंने तीन तलाक़ के ख़िलाफ़ देशव्यापी अभियान में भी अहम भूमिका निभाई. राजस्थान में भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की संयोजक के रूप में, उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दायर की. हज़ारों महिलाओं की गवाही और समर्थन से, इस आंदोलन को बल मिला, जिसकी परिणति 2017 में सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक फ़ैसले के रूप में हुई, जिसमें तीन तलाक़ को असंवैधानिक घोषित किया गया. निशात के अनुसार, इससे मुसलमानों में तलाक़ के मामलों में 95 प्रतिशत की कमी आई है.

पिछले 32 वर्षों में, उनके संगठन ने हज़ारों महिलाओं को न्याय दिलाया है—यहाँ तक कि तीन अंतरराष्ट्रीय मामलों को भी संभाला है. उनके काम के लिए, उन्हें राष्ट्रीय एकता पुरस्कार और शांति दूत सम्मान सहित कई सम्मान मिले हैं. फिर भी, वह विनम्रता से कहती हैं, "मेरी सच्ची खुशी पुरस्कारों से नहीं, बल्कि लोगों के विश्वास से आती है."

निशात का पारिवारिक जीवन भी उतना ही प्रेरणादायक है. उनके दो बेटे और बेटी दुबई में एक महिला कल्याण संगठन चलाते हैं. उनके पोते अब्दुल मुकीत को नौ साल की उम्र में अबू धाबी में उनके पर्यावरण संबंधी कार्यों के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सम्मानित किया था.

हिजाब पर उनके विचार एक संतुलित और आधुनिक दृष्टिकोण को दर्शाते हैं. वह कहती हैं, "कुरान शालीनता की बात करता है, चेहरा ढकने की नहीं." "गरिमा किसी ड्रेस कोड से ज़्यादा मायने रखती है." उनके कार्यालय में, बुर्का पहने महिलाएँ बिना किसी दबाव या पूर्वाग्रह के दूसरों के साथ काम करती हैं.

निशात का मानना ​​है कि मुस्लिम महिलाओं की स्थिति धीरे-धीरे सुधर रही है. ज़्यादा महिलाएँ अपनी आवाज़ उठा रही हैं और परिवार लड़कियों की शिक्षा पर ज़्यादा ज़ोर दे रहे हैं. लेकिन वह युवाओं में नशे, जुए और अन्य विनाशकारी आदतों की बढ़ती प्रवृत्ति पर भी चिंता व्यक्त करती हैं. वह कहती हैं, "अगर पुरुष सहयोग करें, तो समाज वास्तव में बेहतर हो सकता है."

उनका संगठन मुस्लिम, दलित और आदिवासी समुदायों के बीच एकता बनाने के लिए भी काम कर रहा है. हाल ही में एक "चावल वितरण" अभियान में, उन्होंने विभिन्न जातियों और धर्मों के लोगों को भोजन वितरित किया और इस संदेश पर ज़ोर दिया: "भाईचारा बनाए रखें और संविधान की रक्षा करें."

जयपुर के जौहरी बाज़ार स्थित उसी साधारण कार्यालय से, जहाँ से उनकी यात्रा शुरू हुई थी, निशात हुसैन सामाजिक परिवर्तन की मुहिम का नेतृत्व कर रही हैं. अपनी उम्र के बावजूद, उनका जुनून, ऊर्जा और अटूट प्रतिबद्धता आज के युवाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत है. उनका जीवन इस विश्वास का प्रमाण है कि असली बदलाव सत्ता या पद से नहीं, बल्कि इरादे की पवित्रता से आता है.