हिंदुस्तान की तहज़ीब और अमीर ख़ुसरो

Story by  मुकुंद मिश्रा | Published by  [email protected] | Date 31-05-2021
हिंदुस्तान की तहज़ीब और अमीर ख़ुसरो
हिंदुस्तान की तहज़ीब और अमीर ख़ुसरो

 

मेहमान का पन्ना

 
 
qurban 
क़ुरबान अली 

अमीर ख़ुसरो बहुत सारी खूबियों के मालिक थे. उनकी शख़्सियत बहुत वअसी थी. वो शायर थे, तारीख़दां थे, फ़ौजी जनरल, अदीब, सियासतदां, मौसीक़ीकार, गुलूकार, फलसफ़ी, सूफ़ी और न जाने कितनी शख़्सियात के मालिक थे. मेरी राय में गुजिश्ता 800 बरस की हिंदुस्तान की तारीख़ में अगर किसी एक शख्स ने ज़ाती तौर पर हिंदुस्तान की तहज़ीब, तमद्दुन और सक़ाफ़त  को सबसे ज़्यादा मालामाल किया और ज़ीनत बख़्शी, तो बिला शुबहा, उस शख़्सियत का नाम हज़रत अबुल हसन यमीनुद्दीन ख़ुसरो है जिन्हें लोग प्यार से अमीर ख़ुसरो देहलवी और तूती-ए-हिंद के नाम से पुकारते हैं.
 
वो ख़ुद अपने बारे में लिखते हैं: " तुर्क़ हिंदुस्तानियम मन हिंदवी गोयम जबाब " यानि "मैं तुर्क हिंदुस्तानी हूं और हिंदी बोलता और जानता हूं."(दीबाचा गुर्रातुल कमाल) अमीर ख़ुसरो ने इस बर्रेसग़ीर (भारतीय उप-महाद्वीप) को एक नया और बहुत ही ख़ूबसूरत नाम दिया- हिंदोस्तान, शहरियत दी- हिंदी, और एक बहुत ही ख़ूबसूरत ज़ुबान दी- हिंदवी जो आगे चल कर हिंदी और उर्दू ज़ुबान के नाम से मशहूर हुई.
 
उर्दू के अज़ीम शायर जां निसार अख्तर ने 1970 में उर्दू शायरी का एक ज़खीम मजमुआ "हिन्दोस्ताँ हमारा" मुरत्तब किया था.इस किताब की तम्हीद में  वो लिखते हैं "खड़ी बोली मैं अरबी, फ़ारसी और तुर्की के लफ़्ज़ों की मिलावट का जो सिलसिला शुरू हुआ था और जो अमीर ख़ुसरो के ज़माने में  रेख़्ता कहलाया, एक नयी हिन्दोस्तानी ज़बान को जनम देने में  कामयाब हुआ जिसे शुरू में  हिंदी या हिन्दवी कहा गया और जो बाद में उर्दू कहलायी." (हिन्दोस्ताँ हमारा)
 
अमीर ख़ुसरो ने इस ज़बान को नया रंग-रूप दिया।एक तरफ़ जहाँ उन्होंने अपनी शायरी में फ़ारसी का इस्तेमाल करते हुए लिखा "ज़ेहाले मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल दुराये नैना बनाये बतियां, सखी पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूं अँधेरी रतियाँ." वहीँ दूसरी जानिब उन्होंने अवधी और ब्रजभाषा का इस्तेमाल करते हुए लिखा "छाप तिलक सब ले ली री मोसे नैना मिलाई के" और "बहुत कठिन है डगर पनघट की" जैसी शायरी क़ी.      
 
अमीर ख़ुसरो ने मौसीक़ी को दो ऐसे नायाब तोहफ़े दिए जिन्हें सितार और तबला के नाम से जाना जाता है.अमीर ख़ुसरो ने फ़ारसी और हिंदी में शायरी की, ख़याल को तरतीब किया ग़ज़ल, मसनवी, क़ता, रूबाई, दोबैती,और तरक़्क़ीबंद में अपनी शायरी की. इसके अलावा उन्होंने अनगिनत दोहे, गीत,कहमुकरियां, दोसुख़ने,पहेलियां, तराना और न जाने क्या क्या लिखा.
 
हज़रत अमीर ख़ुसरो - "बाबा-ए-कव्वाली" भी कहे जाते हैं जिन्होंने  मौसीक़ी के  इस सूफ़ीफन को नया अंदाज़ दिया और बर्रे-सग़ीर की शायद ही कोई ऐसी दरगाह हो जहां सालाना उर्स के दौरान अमीर ख़ुसरो का कलाम न पढ़ा जाता हो. उर्स के आख़िरी दिन यानि कुल के दिन अमीर ख़ुसरो का रंग तो लाज़िमी तौर पर गाया जाता है.
 

आज रंग है ऐ मां रंग है री,

मेरे महबूब के घर रंग है री.

सजन मिलावरा, सजन मिलावरा, मोरे आंगन को,

जग उजियारो, जगत उजियारो..

मैं तो ऐसे रंग और नहीं देखी रे,

मोहे पीर पायो निज़ामुद्दीन औलिया

निज़ामुद्दीन औलिया, निज़ामुद्दीन औलिया..

देस बदेस मैं ढूंढ़ फिरी हूं..

तोरा मन भायो निज़ामुद्दीन

ऐसी रंग दे रंग नाही छूटे

धोबिया धोवे , सारी उमरिया..

पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अपनी किताब- Discovery of India- में अमीर ख़ुसरो को बहुत ही खूबसूरत अंदाज़ में ख़िराज़े-तहसीन पेश की है. वो लिखते हैं: "अमीर ख़ुसरो फ़ारसी के अव्वल दर्जे के शायर थे और संस्कृत भी बख़ूबी जानते थे. वो अज़ीम मौसीक़ीकार थे जिन्होंने हिंदुस्तानी मौसीक़ी में कई तजुर्बे किए और सितार ईजाद किया. अमीर ख़ुसरो ने मुख़्तलिफ़ मौज़ुआत पर  लिखा, ख़ासकर हिंदुस्तान की तारीफ़ में क़सीदे पढ़े.
 
उन्होंने यहां के मज़ाहिब के बारे में फ़लसफ़े  और मन्तिक़ के बारे में, अलजबरा के बारे में, साइंस के बारे में, और फलों के बादशाह आम और ख़रबूज़े के बारे में खूब लिखा.पंडित नेहरू लिखते हैं: "हिंदुस्तान में  उनकी मक़बूलियत का राज़ आम फ़हम  ज़ुबान में की जानेवाली उनकी शायरी थी.
 
जानबूझकर उन्होंने बड़ी अक़्लमंदी से उस अदबी ज़ुबान का सहारा नहीं लिया जिसको चंद लोग ही जानते थे. वो गांव और देहात में जाकर रहे, वहां के लोगों के तौर तरीक़े और रस्मो रिवाज सीखे.वो हर मौसम में नए तरीके के गीत लिखते, और क़दीम हिंदुस्तानी क्लासिकी रिवायतों के तहत हर मौसम की अपनी एक नई धुन नए अल्फ़ाज़ के साथ तैयार करते.
 
उन्होंने ज़िन्दगी के मुख़्तलिफ़ दौर और पहलुओं पर शायरी की जिनमें बेटी का बाप के घर से विदा होना, बहू का घर आना, आशिक़ का माशूक़ से बिछड़ना, और विरह के गीत गाना, बरसात का होना, बहार का मौसम आना,  ठंड पड़ना और फिर गर्मी में ज़मीन का सूख जाना. सैकड़ों बरस पहले लिखे गए अमीर खुसरो के गीत आज भी शुमाली हिंदुस्तान के बहुत से गांवों में गाए जाते हैं.
 
ख़ासकर बरसात के मौसम में बाग़ों में या दरख़्तों पर बड़े बड़े हिंडोले/झूले डाले जाते हैं और गांव की लड़कियां और लड़के एक साथ इकठ्ठा हो कर बरखा ऋतु का जश्न मनाते हैं.अमीर ख़ुसरो ने बेइंतहा पहेलियांऔर कहमुकरियां लिखीं जो आज तक लोगों में बेहद मक़बूल हैं और ख़ुसरो को अमर बनाए हुए हैं.
 
पंडित नेहरू लिखते हैं: "मुझे नहीं मालूम ऐसी कोई दूसरी मिसाल जहां 700 बरस पहले लिखे गए गीत आज भी लोगों की याद में महफ़ूज़ हैं और बिना अल्फ़ाज़ बदले अपनी मास अपील बनाए हुए हैं.(Discovery Of India, Page 245.)
 
 अमीर ख़ुसरो की पैदाइश उत्तर प्रदेश के एटा ज़िले के पटियाली गांव में गंगा किनारे सन् 652 हिजरी यानि 1253 ईस्वी को हुई थी. अमीर ख़ुसरो के वालिद सैफ़ुद्दीन ख़ुरासान के तुर्क़ क़बीले के सरदार थे. अमीर खुसरो 4 बरस की उम्र में देहली आ गए और 8 बरस की उम्र में मशहूर सूफ़ी हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के मुरीद बन गए. कहा जाता है 16-17 बरस की उम्र में अमीर खुसरो मशहूर शायर हो चुके थे और देहली के मुशायरों में अपनी धाक जमाने लगे थे. 
 
उसी दौरान दिल्ली के सुल्तान बलबन के भतीजे सुल्तान मोहम्मद को एक मुशायरे में अमीर खुसरो की शायरी बहुत पंसद आई और वो उन्हें अपने साथ मुल्तान ले गया और उनसे एक मसनवी लिखवाई जिसमें बीस हज़ार अशार थे.हज़रत अमीर खुसरो ने शायरी के अलावा नस्र भी  लिखी और उनकी किताबों की तादाद 99 से लेकर 199 तक बताई जाती है. (जामी सियरुल औलिया page 301-305 और अमीर राजी नफ़हातुल उन्स page 710 )
 
ख़िलजी और तुर्क दौर का मशहूर मौअर्रिख़ ज़ियाउद्दीन बरनी लिखता है कि अमीर खुसरो को अलाई दौर का शाही मौअर्रिख भी कहा जा सकता है. जिसने मिफ़ताहुल-फुतूह, ख़जाइनुल फुतूह, किस्सा देवलरानी-खिज़्र खां,नुह सिपेहर और तुग़लकनामा जैसी किताबे लिखी.
 
 अमीर खुसरो के लिखे हुए 5 दीवान बताए जाते है.

  • 1- तोहफ़तुसिगार- इसके दीबाचे में अमीर खुसरो लिखते है कि ये उनका पहला दीवान है जिसे उन्होंने 15 से 19 साल  की उम्र में लिखा.
  • 2- वस्तुल हयात- ये 19 साल से लेकर 34 बरस की उम्र की शायरी है जिसमें सुल्तान मोहम्मद और बलबन वगैरह की तारीफ में कसीदें लिखे गए है.
  • 3- गुर्रतुल कमाल- ये दीवान अमीर खुसरो ने अपने भाई अलीउद्दीन ख़ित्तात की ख्वाहिश के मुताबिक लिखा.इसमें सुल्तान जलालुद्दीन की फतेह से मुताल्लिक शायरी की है जिसे मिफ्ताहुल फतूह के  नाम से भी जानाजाता है.
  • 4- चौथा दीवान वकी़अ-ए-नकीय़- ये शायरी 715 हिज़री यानि 1315-16 ईस्वी की दौर की है.
  • 5- पांचवा दीवान निहायतुल कमाल है। ये खुसरो के आखिरी दौर की शायरी है जिसमें उन्होंने गजलों के अलावा कुतबुद्दीन मुबारक खिलजी का मार्सिया और कुछ कसीदें भी शामिल किए है.
अमीर खुसरो ने कई मनसवियां लिखी। 26 साल की उम्र में उन्होंने पहली मनसवी लिखी. किरानुस्सादैंन - इसमें देहली की बेहद तारीफ की गई है। इसलिए इसको 'मसनवी-दर-सिफते-देहली' भी कहते है.
 
खिज्र खां- देवलरानी:- इसको खिज्रनामा और इश्किया भी कहते है। दर असल देवलरानी गुजरात के एक राजा की बेहद खूबसूरत बेटी थी और खिज्र खां जो सुल्तान अलाउद्दीन का बेटा था, वो देवलरानी का आशिक हो गया और उससे शादी कर ली.  खुसरो ने खिज्र खां की जिंदगी में ही ये मसनवी पूरी कर ली थी। लेकिन बाद में उन्होंने उसकी मौत का हाल और देवलरानी के साथ जो वाकयात पेश आए उन्हें भी इस मसनवी में शामिल किया है.
 
नूह सिपहर: कुतबुद्दीन मुबारकशाह की ख्वाहिश के मुताबिक खुसरो ने ये मसनवी लिखी। इसमें 9 बाब है और हर बाब की एक अलग बहर है. इसलिए इसका नाम नुह-सिपहर यानि नौ आसमान रखा गया है। इस मसनवी की खास बात ये है कि इसमें तारीख, लिसानियात, हुब्बुलवतनी, हिंदोस्तान और हिंदुस्तानियों का दूसरे मुमालिक और वहां के शहरियों से मवाज़ना और उनकी फौक़ियत का जिक्र किया गया है. खुसरो ने ये मसनवी 65 साल की उम्र में लिखी.
 
अमीर खुसरो ने हिन्दोस्तानी शायरो खास कर उस वक़्त के फ़ारसी शायरो की बहुत तारीफ़ की है और उनकी शायरी को दुसरे मुल्क़ो की फ़ारसी शायरी से शफ़्फ़ाफ़ और अफज़ल बताया है. ग़ुर्रत्तुल कमाल के दीबाचे मैं अमीर ख़ुसरो लिखते हैं "हिन्दोस्तान के आलिम ख़ुसूसन वो जो देहली में मुक़ीम हैं, उन तमाम अहले ज़ौक़ से जो दुनिया में  कहीं भी पाये जाते हैं फ़न्ने शेर में  बरतर हैं.
 
अरब,ख़ुरासान,तुर्क वग़ैरा जो हिंदोस्तान के इन शहरों में  आते हैं जो इस्लामी हुकूमत में हैं मसलन देहली मुल्तान या लखनौती (बंगाल)अगर सारी उम्र भी यहाँ गुज़ार दें तो भी अपनी ज़बान नहीं बदल सकते और जब शेर कहेंगें तो अपने मुल्क़ के मुहावरे में  ही कहेंगे,लेकिन जो अदीब हिन्दोस्तान के शहरों में पला बढ़ा है ख़ुसूसन देहली मैं,बग़ैर किसी मुल्क़ को देखे या वहां के लोगों से मिले जुले उस मुल्क़ की तर्ज़ मैं लिख सकता है बल्कि उनकी नज़्म व नस्र मैं तसर्रुफ़ कर सकता है और जहाँ भी चला जाये वहां के असलूब के मुताबिक़ बख़ूबी लिख सकता है.    
 
शिकायतनामा मोमिनपुर पटियाली: इस मसनवी में पटियाली की शिकायत और अफ़ग़ानो ने वहां जो मज़ालिम ढाए उनका तफ़सील से ज़िक्र है.
 
तुग़लकनामा: इस मसनवी में पहले कुतबुद्दीन का हाल है फिर गयासुद्दीन तुगलक का चढ़ाई करने का हाल और जंग जीत कर गद्दीनशीन होने का हाल बयान किया गया है. खुसरो ने ये मसनवी अपनी ज़िंदगी के आखिरी दिनों में लिखी थी.
 
ख़मसए ख़ुसरो: खुसरो ने ये ख़मसा फ़ारसी शायर निज़ामी के ख़मसे के जवाब में लिखा है. इस ख़मसे में 5 मसनवियां हैं.
  •  
  • 1- मतअल-उल-अनवार: ये तसव्वुफ़ के बारे में हैंऔर इसमें 331 शेर हैं.
  • 2-शींरीं खुसरो: ये सिकंदरनामा का जवाब है. इसमें 4124 शेर हैं.
  • 3- मजनूं- लैला: इस मसनवी में खुसरो ने बेहद दिलचस्प अंदाज़ में लैला मजनूं का किस्सा बयान किया है।इसमें 2660 शेर हैं.
  • 4- आइन-ए-इसकंदरीः ये मसनवी दस्तयाब नहीं हैं.
  • 5- खमसए खुसरो की पांचवी और आखिरी मसनवी है हश्त- बहिश्त. इसमें 3382 शेर हैं. 
  • नस्र

अभी तक अमीर खुसरो की शायरी का ज़िक्र किया गया है अब कुछ बात उनकी नस्र की.

  • 1- रसायले-एजाज़ या एजाज़े-खुसवरी- ये किताब पांच बाब पर मुश्तमिल है जो हज़रत निज़ामुद्दीन औलियाकी मनकबत से शुरू होती है और इसमें फारसी असलूब के 9 हिस्सों को लिया गया है. इसमें खास ओ आम सेलेकर आलिम फाज़िल सूफीयाए एकराम, मज़दूर, किसान  और करखंदारो का ज़िक्र किया गया है. अमीर ख़ुसरो ने इस किताब को अपना बेहतरीन असलूब बताया है.
  • 2- ख़जाएनुल-फतूहः इस किताब में सुलतान अलाउद्दीन खिलजी के दौरे हुकूमत यानि 695 हिजरी से लेकर711 हिजरी तक के वाकयात का ज़िक्र है और कई जगह इसमें शेर भी कहे गए हैं.
  • 3- अफ़ज़लुलफवायद: इसमें अमीर खुसरो ने अपने पीर-ओ-मुर्शिद हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की हिकायतऔर उनके कौल यकजा किए गए हैं.

 
इसके अलावा अमीर खुसरो कि किताबों की एक लंबी  फेहरिस्त  है जिनमें ख़ालिक बारी, जवाहरुल बहर,मकतूबात-ए-अमीर खुसरो, हालाते कन्हैय्या व कृष्ण, मनाक़िबे हिंद, तारीख़ देहली शहर आशोब,  मनाजाते खुसरो, मकाला तारीखुल खुलफा
 
राहतुल मुहिब्बीन, ताराना हिंदी, मिरातुस्सफा, बहरुल अबर, अस्पनामा या फरसनामा, अहबाले अमीर खुसरो,मजमुआ रूबाइयात, मजमुआ मसनवियात और कुल्लियात शामिल हैं.
 
अमीर खुसरो सन् 1286 ई. में अवध के गवर्नर(सूबेदार) खान अमीर अली उर्फ हातिम खां के यहां दो साल तक रहे। यहां खुसरो ने इन्हीं अमीर के लिए 'अस्पनामा' उनवान से किताब लिखी. खुसरो लिखते हैं- 'वाह क्या शादाब सरजमीं है ये अवध की.
 
दुनिया जहान के फल-फूल मौजूद. कैसे अच्छे मीठी बोली के लोग. मीठी व रंगीन तबियत के इंसान. धरती खुशहाल जमींदार मालामाल. अम्मा का खत आया था. याद किया है. दो महीने हुए पांचवा खत आ गया. अवध से जुदा होने को जी तो नहीं चाहता मगर देहली मेरा वतन, मेरा शहर,दुनिया का अलबेला शहर और फिर सबसे बढ़कर मां का साया, जन्नत की छांव.
 
उफ्फ दो साल निकल गए अवध में. भई बहुत हुआ। अब मैं चला. हातिम खां दिलो जान से तुम्हारा शुक्रिया मगर मैं चला। जरो माल पाया, लुटाया, खिलाया, मगर मैं चला। वतन बुलाता है धरती पुकारती है. अब तक अमीर खुसरो की जबा़न में बृज व खडी़(देहलवी) बोली के अलावा पंजाबी, बंगला और अवधी की भी चाश्नी आ गई थी.
 
सन् 1288 ई. में खुसरो दिल्ली आ गए और बुगरा खां के नौजवान बेटे कैकुबाद के दरबार में बुलाए गए।कैकुबाद का बाप बुगरा खां बंगाल का गवर्नर था. जब उसने सुना कि कैकुबाद गद्दी पर बैठने के बाद अय्याश और बागी हो गया है तो उसने अपने बेटे को सबक सिखाने के लिए दिल्ली कूच किया, लेकिन इसी बीच अमीर खुसरो ने दोनों के दरम्यान सुलह़ करा दी . 
 
खुशी में कैकुबाद ने खुसरो को ऐजाज़ से नवाज़ा. खुसरो ने इसी जिम्न में किरानुस्सादैन नाम से एक मसनवी लिखी जो 6 माह में पूरी हुई। (688 हिज्री). इसमें उस वक्त के देहली की इमारते, मौसीकी वगैरह का जिक्र किया गया.
 
इसमें दिल्ली की खासतौर पर तारीफ की गई हैइसलिए इसे मसनवी 'दर सिफत-ए-देहली' भी कहते है इसमें शेरों की भरमार है। अमीर खुसरो अपनी इस मसनवी में लिखते हैं कि कैकुबाद को उनके पीर/गुरू निजामुद्दीन औलिया का नाम भी सुनना पसंद नही था।खुसरो आगे लिखते हैं- 'क्या तारीखी वाकया हुआ. बेटे ने अमीरों की साजिश से तख्त हथिया लिया, बाप से जंग को निकला. बाप ने तख्त उसी को सुपुर्द कर दिया.
 
बादशाह का क्य़ा ? आज है कल नहीं। ऐसा कुछ लिख दिया है कि आज भी लुत्फ दे और कल भी जिंदा रहे. अपने दोस्तों, दुश्मनों की, शादी की, गर्मी की, मुफलिसों और खुशहालों की, ऐसी-ऐसी रंगीन तस्वीरें मैंने इसमें खेंच दी है कि रहती दुनिया तक रहेंगी. कैसा इनाम? कहां के हाथी-घोडे़?
 
मुझे तो फिक्र है कि इस मसनवी में अपने पीरो मुरशिद हजरत ख्वाजा निजामुद्दीन का जिक्र कैसे पिरोऊं?  मेरे दिल के बादशाह तो वही हैं और वही मेरी इस नज्म में न हों, यह कैसे हो  सकता है?ख्वाजा से बादशाह ख़फा है, नाराज हैं, दिल में गांठ है, ये न जलता है.
 
ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया ने शायद इसी ख्याल से उस दिन कहा होगा कि "देखा खुसरो, ये न भूलो कि तुम दुनियादार भी हो, दरबार सरकार से अपना सिलसिला बनाए रखो. मगर दरबार से सिलसिला क्या हैसियत इसकी. तमाशा है, आज कुछ कल कुछ." खुसरो को किरानुस्सादैन मसनवी पर मलिकुश्ओरा ऐजाज से नवाजा गया. सन् 1290 में कैकुबादमारा गया और गुलाम सल्तनत का खात्मा हो गया.
 
अमीर खुसरो की ग़ज़लो' में ग़ज़ब की चाशनी होती थी, लेकिन इसके बावजूद भी खुसरो तसव्वुफ़ वाले अपने कलाम से पूरी तरह इंसाफ करते. खुसरो मज़हबी शख्स थे. इन्हीं के एक कसीदे से यह पता चलता है कि वो नमाज पढते थे तथा रोज़ा  रखते थे. शराब नही पीते थे और न ही उसके आदी थे. बादशाहों की अय्याशी से उन्होंने अपने दामन को सदा बचाए रखा. वो  दिल्ली में बिला  नाग़ा निजामुद्दीन औलिया साहब की ख़ानक़ाह मे जाते थे फिर भी वे  ख़ालिस सूफ़ी नहीं थे.
 
वे गाते थे, नाचते थे, हंसते थे, गाना सुनते और दाद देते  थे. शाहों और शहजादों की शराब-महफिलों में हिस्सा जरूर लेते थे. मगर हाज़िरी कि हद तक.जियाउद्दीन बरनी का कहना  है. खुसरो अब तक अपने जीवन के 38 बंसत देख चुके थे. इस बीच मालवा में चितौड़ में रणथम्भोर में बगावत की खबर बादशाह जलालुद्दीन को एक सिपाही ने ला कर दी.
 
बग़ावत को कुचलने के लिए बादशाह ख़ुद मैदाने जंग में गया. बादशाह ने जंग मैं जाने से पहले भरे दरबार में ऐलान किया- 'हम जंग को जाएगें. तलवार और साजों की झंकार भी साथ जाएगी। कहां है वो हमारा हुदहुद. वो शायर. वो भी हमारे साथ रहेगा साये की तरह. क्यों खुसरो ?
 
खुसरो उठ खडे़ हुए और बोले- 'जी हुजूर. आपका हुदहुद साये की तरह साथ जाएगा. जब हुक्म होगा चहचहाएगा सरकार. जब तलवार और पानी दोनों की झंकार थम जाती है, जम जाती है तब शायर का नगमा गूंजता है, कलम की सरसराहट सुनाई  देती है. अब जो मैं आंखों देखी लिखूंगा वो कल सैकडों साल तक आने वाली आंखें देखेंगी हूजूर." बादशाह खुश हुए और बोले- "शाबाश खुसरो. तुम्हारी बहादुरी और निडरता के क्या कहने.
 
मैदाने जंग और महफिलें रंग में हरदम मौजूद रहना। तुम को हम अमीर का ओहदा देते है. तुम हमारे मनसबदार हो. बारह सौ तनगा  सालाना आज से तुम्हारी तन्ख्वा होगी."
 
एक और वाकया है मंगोलो ने अचानक देहली पर हमला बोल दिया. अलाउद्दीन खिलजी की फ़ौज ने खूब डटकर सामना किया. मंगोलों को आखिरकार मुंह की खानी पड़ी. कुछ तो अपनी जान बचा कर भागने में कामयाब हुए तो बहुत से गिरफ्तार कर लिए गए. अमीर खुसरो आंखों देखा हाल सुनाते हुए कहते हैं "क्या खबर लाए हो हुजर फतेह की.
 
वो तुमसे पहले पहुंच चुकी है. सच-सच बताओ कितने मंगोल लश्करी मारे गए हैं? हुजूर बीस हजार से ज्यादा. कितने गिरफ्तार किए? अभी गिना नहीं मगर हजारों, जो सर झुकाएं तौंबा करें, उनके कानों में हलका टिकाओ. शहर से दस कोस दूर एक बस्ती बसाकर रहने की इजाजत है इन नामुरादों को.बस्ती होगी मंगोलपुरी. पहरा चौकी. जिनसे सरकशी का अंदेशा हो, उनके सर उतार कर मीनार बना दो. 
 
इनके बाप दादा को खोपडि़यों के मीनार बनाने का बहुत शौक था और अब इनके सर उतारते जाओ, मीनार बनाते जाओ. इन्हें दिखाते  जाओ. शहर की दीवार बनाने में जो गारा लगेगा, उसमें पानी नहीं, देहली पर चढ़ाई करने वालों का खून डालो, लहू डालो. सुना मीरे तामीर, सुर्ख गारा(गाढ़ा) खून. शहर पना की सुर्ख दीवार. अह हा हा. तैयारी की जाय. गुजरात की ओर फौज रवाना हो. किसी तरह की कोई देरी न हो। दरबार बर्खास्त."
 
ख़ुसरो आगे कहते हैं "शाही तलवार पर मंगोलों का जो गंदा खून जम गया था, सुलतान अलाउद्दीन खिलजी सिकंदर सानी उसे गुजरात पहुंचकर समुन्दर के पानी से धोना चाहता था. अपने दिल का हाल बयां करते हैं खुसरो कुछ इस तरह--- ''फौज चली. मैं क्यों जाऊं ? मेरा दिल तो दूसरी तरफ जाता है,
 
मेरे पीर मेरे ......मुर्शिद,  मेरे महबूब के तलवों में मैं बल बल जाऊं.'' रात गए जमुना किनारे गयासपुर गांव के बाहर, जहां अब हुमायूं का मकबरा है, चिश्ती सूफी खानकाह में एक फकीर बादशाह, नागारों, मोहताजों, मुसाफिरों, फकीरों दरवेशों,साधुओं, उलेमाओं, संतों, सूफियों जरूरतमंदों, गवैयों, और बैरागियों को खिला पिला कर अब अपने तन्हा हुजरे में जौ की बासी रोटी और पानी का कटोरा लिए बैठा है.
 
ये हैं ख्वाजा निजामुद्दीन चिश्ती. ख्वाजा निजामुद्दीन उर्फे़ महबूबे इलाही उर्फे़ सुल्तान उल मशायख, जिन्होंने ज़िंदगी भर रोजा़ रखा और बानवे साल तक अमीरों और बादशाहों से बेनियाज़ अपनी फकीरी में बादशाही करते रहे." अमीर खुसरो जब भी दिल्ली में होते इन्ही के कदमों में रहते.
 
राजो-न्याज़ की बातें करते और रुहानी शांति की दौलत समेटा करते. अपने पीर से कठिन और नाजुक हालात में सलाह मशवरा किया करते और वकतन-फवकतन अपनी गलतियों की माफी अपने गुरू व खुदा से मांगा करते थे.खुसरो और निजामुद्दीन अपने दिल की बात व राज की बात एक-दूसरे से अक्सर किया करते थे.
 
कई बादशाहों ने इस फकीर, दरवेश या सूफी निजामु्द्दीन  औलिया की जबरदस्त मकबूलियत को चैलेंज किया मगर वो अपनी जगह से न हिले. कई बादशाहों ने निजामुद्दीन की ख़ानक़ाह में आने की इजाजत उनसे चाही मगर उन्होंने कबूल न की.
 
एक रात निजामुद्दीन चिश्ती की खानकाह में हजरत अमीर खुसरो हाजिर हुए. आते ही बोले- 'ख्वाजा जी मेरे सरकार, शहनशाह अलाउद्दीन खिलजी ने आज एक राज़ की बात मुझसे तन्हाई में की. कह दूं क्या? ख्वाजा जी ने कहा कहो "खुसरो तुम्हारी जुबान को कौन रोक सकता है." खुसरो ने संजीदा हो कर कहा कि "अलाउद्दीन खिलजी आपकी इस खानकाह में चुपके से भेस बदल कर आना चाहता  है.
 
जहां अमीर-गरीब,हिन्दू-मुस्लमान, ऊंच-नीच, का कोई भेद भाव नहीं. वह अपनी आंखों से यहां का हाल देखना चाहता है. उसमें खोट है, चोर है, दिल साफ, नही उसका। उसे भी दुश्मनों ने बहका दिया है, वरगला दिया है कि हजारों आदमी दोनों वक्त यहां लंगर से खाना खाते हैं तो कैसे ?
 
इतनी दौलत कहां से आती है ? और साथ ही शाहजादा खि़र्ज खां क्यों बार-बार हाज़िरी दिया करते हैं.' ख्वाजा बोले - तुम क्या चाहते हो खुसरो ? खुसरो कुछ उदास हुए बेमन से बोले- हुजूर, बादशाहे वक्त के लिए हाज़िरी की इजाज़त.' ख्वाजा साहब ने फरमाया- "खुसरो तुम से ज्यादा मेरे दिल का राज़दार कोई नही. सुन लो. फकीर के इस तकिय़े के दो दरवाजे हैं.
 
अगर एक से बादशाह दाख़िल हुआ तो दूसरे से हम बाहर निकल जाएंगे. हमें शाहे वक्त से शाही हुकूमत से, शाही तखत से क्या लेना देना ?" खुसरो ने पूछा कि क्या ये जवाब बादशाह तक पहुंचा दे ? तब ख्वाजा ने फरमाया- "अगर अलाउद्दीन खिलजी ने नाराजगी से तुमसे पूछा कि खुसरो ऐसे राज़  तुम्हारी जबान से ?
 
खुसरो इसमें तुम्हारी जान को खतरा है ? तुमने मुझे यह राज़ आ बताया ही क्यों ?  खुसरो भारी आवाज में बोले- 'मेरे ख्वाजा जी बता देने में सिर्फ जान का खतरा था और न बताता तो ईमान का खतरा था.'  ख्वाजा ने पूछा 'अच्छा खुसरो तुम तो अमीर के अमीर हो.शाही दरबार और बादशाहों से अपना सिलसिला रखते हो.
 
क्या हमारे खाने में तुम आज शरीक होगे ? यह सुनते ही खुसरो की आंखों से आंसू टपक आए. वे भारी आवाज में बोले- "यह क्या कह रहें हैं पीर साहब. शाही दरबार की क्या हैसियत ? आज तख़त है कल नही ? आज कोई बादशाह है तो कल कोई और. आपके थाल के एक सूखे टुकड़े पर शाही दस्तरखान कुर्बान. राज दरबार झूठ और फरेब का घर है. 
 
मगर मेरे खवाजा ये क्या सितम है कि तमाम दिन रोज़ा, तमाम रात इबादत और आप सारे जहां को खिला कर भी ये खुद एक रोटी, जौ की सूखी-बासी रोटी, पानी में भिगो-भिगो कर खाते हैं.' ख्वाजा साहब ने फरमाया, ' खुसरो ये टुकड़े भी गले से नही उतरते.
 
आज भी दिल्ली शहर की लाखों मखलूखों में न जाने कितने होंगे जिन्हें भूख से नींद न आई होगी. मेरी ज़िंदगी में खुदा का कोई भी बंदा भूखा रहे. मैं कल खुदा को क्या मुंह दिखाऊंगा ?  तुम इन दिनों दिल्ली में रहोगे न. कल हम अपने पीर फरीदुद्दीन गंज शकर की दरगाह को जाते हैं.
 
हो सके तो साथ चलना. खुसरो हमने तुम्हें 'तुर्क अल्लाह' का खिताब दिया है. बस चलता तो वसीयत कर जाते कि तुम्हें हमारी कब्र में ही सुलाया जाए. तुम्हें जुदा करने को जी नहीं चाहता मगर दिन भर कमर से पटका बांघे दरबार करते हो जाओ कमर खोलो आराम करो. तुम्हारे नफ़्ज़  का भी तुम पर हक है. शब्बा ख़ैर.
 
मौलाना अब्दुल माजिद दरियाबादी ने बहुत ही ख़ूबसूरत अल्फ़ाज़ में अमीर ख़ुसरो का ख़ाका कुछ यूँ बयाँ किया है "अमीर ख़ुसरो, अमीरों में अमीर, फ़क़ीरों में फ़क़ीर, आरिफ़ों (इल्म) का सरदार, शायरों का ताजदार,शेर-ओ-अदब के दीवान उसकी अज़मत के गवाह, ख़ानक़ाहें और सज्जादे उसके मरतबाए रूहानी से आगाह सर. मुशायरा आ जाये तो मीर महफ़िल उसे पाइए. ख़ानदाने चिश्त एहले बहिश्त के कूचे में आ निकले तो हल्क़ा-ए-ज़िक्र बा फ़िक्र में सरे मसनद जलवा उसका देखिये।अच्छे अच्छे शेख़ दम  उसका भर रहे हैं. मार्फ़त और तरीक़त के खीक़ीपोश कलमा उसके नाम का पढ़ रहे हैं. (इन्शाए माजदी पेज 318-319). 
 
 
 (लेखक वरिरष्ठ पत्रकार हैं जो हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी में लिखते हैं और बीबीसी वर्ल्ड सर्विस के साथ 14 साल काम किया है.)