प्रमोद जोशी
पुतिन के भारत दौरे से भारत ने अपनी विदेश-नीति की स्वतंत्रता का परिचय दिया वहीं, रूस को अलग-थलग करने की कोशिशों को विफल करने में मदद भी की है. भारत को यह संदेश भी देना है कि हम किसी की दादागीरी के दबाव में नहीं आएँगे और अपनी स्वतंत्र सत्ता को बनाकर रखेंगे.रूस को अलग-थलग करना इसलिए भी आसान नहीं है, क्योंकि विकासशील देशों के साथ उसके रिश्ते सोवियत-युग से बने हुए हैं. रूस ने बहुत लंबे समय तक इन देशों का साथ दिया है और अब ये देश उसका साथ दे रहे हैं.
इसका अर्थ यह भी नहीं है कि भारत ने अमेरिका से दूरी बनाई है या वह वैश्विक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया में किसी एक पाले में जाकर बैठेगा. अलबत्ता यह संकेत ज़रूर दिया कि भारत और रूस की दोस्ती ख़ास है, जो समय की कसौटी पर परखी गई है.भारत को अमेरिका से रिश्तों में बदलाव आने पर धक्का जरूर लगा है. पिछले दो दशक से भारत यह कोशिश कर रहा था कि अमेरिका के साथ रणनीतिक साझेदारी विकसित हो. डॉनल्ड ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में भारत का दर्जा रणनीतिक रूप से घटाया गया है.
ट्रंप प्रशासन ने इस हफ़्ते अपनी बहुप्रतीक्षित राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति जारी की है, जिसे देखते हुए लगता है कि अमेरिका ने एशिया में चीन से शत्रुता को कम करने और यूरोप में अपने प्रभाव को बढ़ाने का फैसला किया है.

ट्रंप को जवाब
कहना मुश्किल है कि अमेरिका की यही नीति ट्रंप के बाद भी जारी रहेगी. यह भी सच है कि वहाँ की नीतियों के पीछे एक पूरी व्यवस्था का हाथ होता है, और काफी सोच-समझ कर नीतियाँ बनाई जाती हैं. इसका मतलब है कि दक्षिण एशिया की परिस्थितियों में भी बड़े बदलाव होंगे.
भारत को भी ट्रंप को समुचित जवाब देने का मौका चाहिए. ट्रंप ब्रिक्स के ख़िलाफ़ हैं. वे अमेरिका को फिर से दुनिया का बॉस बनाना चाहते हैं. उन्हें लगता है कि उनका 'मेक अमेरिका ग्रेट अगेन' के नारे के सामने ब्रिक्स आड़े आ रहा है. ब्रिक्स का मतलब है रूस, चीन, भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका के अलावा इंडोनेशिया, ईरान और तुर्की जैसे देश.
ट्रंप यह भी चाहते हैं कि भारत दूसरे देशों, खासतौर से चीन के साथ, रिश्ते बनाते समय अमेरिका को ध्यान में रखे. पर भारत के आकार और भविष्य की अर्थव्यवस्था को देखते हुए उसका किसी का पिट्ठू बन पाना संभव नहीं है.
प्रतिबंधों के बावजूद भारत का रूस से खनिज तेल खरीदना जारी है. भारतीय सेना को रूसी हथियारों पर भरोसा है और दोनों देशों के बीच नाभिकीय-ऊर्जा का सहयोग सफलता के साथ जारी है. दोनों भविष्य की जरूरतों के हिसाब से आगे बढ़ रहे हैं.भारत-रूस संबंध दशकों पुराने हैं, लेकिन व्लादिमीर पुतिन की दिल्ली यात्रा के साथ ही रणनीतिक साझेदारी और वार्षिक शिखर सम्मेलनों की परंपरा के 25साल पूरे हो गए. 2022में यूक्रेन पर रूस के आक्रमण के बाद यह उनकी पहली भारत यात्रा थी. इस युद्ध ने पश्चिमी देशों को मॉस्को के खिलाफ खड़ा कर दिया है.
दोनों देशों ने 2030 तक के लिए 100अरब डॉलर के व्यापार के लिए आर्थिक रोडमैप तैयार करने पर सहमति जताई है और कामगारों की गतिशीलता, उर्वरक आपूर्ति, नाभिकीय ऊर्जा सहयोग तथा रूसी नागरिकों के लिए 30दिन तक निःशुल्क पर्यटक वीज़ा देने के समझौतों पर हस्ताक्षर किए.
उभरते सवाल
सबसे बड़ा सवाल है कि जब पश्चिमी देश रूस को अलग-थलग करने की कोशिश में लगे हैं तब भारत क्यों उसके इतना क़रीब खड़ा है? इस यात्रा को इतना महत्व क्यों दिया गया? और यह भी कि इस दौरे में हासिल क्या हुआ? या अमेरिका ने इस दौरे को किस तरह से देखा?
सवाल केवल रूस से जुड़े ही नहीं हैं. अमेरिका, चीन और यूरोप के अलावा ग्लोबल साउथ के देशों से जुड़े हुए भी हैं. प्रश्न यह भी है कि रूस क्या सचमुच में अलग-थलग हो रहा है या वह अपनी ताकत को स्थापित करने में सफल हुआ है?क्या रूस भविष्य में एशिया की भूमिका को देखते हुए काम कर रहा है? रूस और चीन की निकटता के संदर्भ में भारत और रूस के संबंधों का भविष्य क्या होगा? और क्या यूक्रेन के मुद्दे पर चुप्पी रखकर यह संबंध आगे बढ़ाए जा सकते हैं?

यूक्रेन में भूमिका
क्या भारत की यूक्रेन में अब कोई भूमिका हो सकती है? ऐसी जानकारी मिली है कि आने वाले महीनों में यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की की संभावित भारत यात्रा की योजना है. यह यात्रा जनवरी 2026की शुरुआत में हो सकती है.ज़ेलेंस्की की यात्रा, पिछले साल अपनाए गए संतुलित दृष्टिकोण का पालन करते हुए, रूस-यूक्रेन युद्ध के दोनों पक्षों के साथ जुड़े रहने के भारत के प्रयासों को और मज़बूत करेगी. जुलाई 2024में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मॉस्को की यात्रा की और पुतिन से मुलाकात की; एक महीने बाद, अगस्त में, उन्होंने यूक्रेन का दौरा किया था.
भारत भी चाहता है कि यह युद्ध खत्म हो, क्योंकि इस युद्ध का भारत पर सीधा असर पड़ रहा है. रूसी तेल ख़रीदने पर ट्रंप द्वारा लगाए गए 25प्रतिशत दंडात्मक शुल्कों के कारण, भारत को सितंबर से रूसी कच्चे तेल के आयात में कटौती करनी पड़ी है, क्योंकि द्वितीयक प्रतिबंध और शुल्क दबाव भी शुरू हो गए हैं.
रक्षा-समझौतों का जिक्र नहीं
जैसाकि पहले अनुमान लगाया जा रहा था, दोनों पक्षों ने, रक्षा हार्डवेयर, परमाणु ऊर्जा परियोजनाओं और अंतरिक्ष सहयोग से जुड़े सामरिक क्षेत्रों में किसी समझौते की घोषणा नहीं की, जिसे लेकर पश्चिमी देश संवेदनशील हैं. बावजूद इसके दोनों देशों के बीच रक्षा-सहयोग पर बातचीत जारी है. ये काम चुपके से होते हैं.
पुतिन की ‘निर्बाध’ तेल आपूर्ति की पेशकश के बावजूद, भारत ने तेल आयात बढ़ाने की किसी योजना की घोषणा नहीं की. हालाँकि भारत की अर्थव्यवस्था में खनिज तेल की बड़ी भूमिका है.बहरहाल इस समय सामरिक मुद्दों को एजेंडे से हटाना इस बात का संकेत है कि सरकार पश्चिमी चिंताओं के प्रति जागरूक है. भारत सरकार व्यापार समझौतों और उच्च स्तरीय यात्राओं पर अमेरिका और यूरोपीय संघ के साथ मौजूदा वार्ताओं में व्यवधान नहीं पड़ने का ख्याल रख रही है.
राष्ट्रपति पुतिन की यात्रा शुरू होने के ठीक पहले रूसी संसद ‘स्टेट ड्यूमा’ ने भारत के साथ एक महत्वपूर्ण सैन्य समझौते को मंजूरी दी. यह समझौता दोनों देशों के बीच लंबे समय से लंबित ‘रेसिप्रोकल एक्सचेंज ऑफ लॉजिस्टिक्स एग्रीमेंट’ (रेलोस) है. इस समझौते के अनुसार, दोनों देशों की सेनाएं एक-दूसरे को सैन्य सहायता प्रदान करेंगी, अर्थात एक देश की सेनाएं दूसरे देश के सैन्य बुनियादी ढांचे का उपयोग कर सकेंगी.
अब यह भी महसूस किया जा रहा है कि रक्षा के इर्द-गिर्द बनी साझेदारी में, टिकाऊ बदलाव के लिए गहरे आर्थिक जुड़ाव की जरूरत होगी. पुतिन की 4-5दिसंबर को भारत की यात्रा, यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद उनकी पहली यात्रा थी और भारत पर रूसी तेल खरीदना बंद करने के पश्चिमी दबाव की पृष्ठभूमि के मद्देनज़र इसका महत्व था.

पुतिन से जुड़े जोखिम
ऐसे में पुतिन का स्वागत करना एक प्रकार का जोखिम भी है, जिनके नाम पर अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय का वारंट है. पुतिन की परीक्षा यूक्रेन में ही है.उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि वे अमेरिकी शांति प्रस्ताव को बिना किसी बदलाव के स्वीकार नहीं करेंगे और उन्होंने यूक्रेन पर हमले तेज कर दिए हैं, जिससे यूरोप के साथ तनाव और बढ़ गया है.
इन परिस्थितियों में पुतिन को आमंत्रित करना यह दर्शाता है कि मोदी सरकार मॉस्को और पश्चिमी देशों को भी संदेश दे रही है कि पश्चिमी देशों द्वारा उन्हें अलग-थलग करने के प्रयासों के बावजूद पुतिन हमारे मित्र बने हुए हैं.उन्होंने जहाँ लगातार शांति प्रयासों की बात की है, वहीं युद्ध के लिए रूस की सीधी आलोचना करने से भी बचा है. दूसरी तरफ अमेरिका जहाँ रूस से खनिज तेल खरीदने के भारत को हतोत्साहित कर रहा है, वहीं भारत अब रूस के साथ आर्थिक रूप से जुड़ने के दूसरे तरीके खोज रहा है.

आर्थिक-सहयोग
इस संबंध में, श्रम गतिशीलता समझौते, रूस में एक यूरिया संयंत्र संयुक्त रूप से स्थापित करने के लिए एक समझौता ज्ञापन और मोदी की 2024की मॉस्को यात्रा के दौरान शुरू किए गए आर्थिक रोड मैप पर गौर करना ज़रूरी है. इस रोड मैप में व्यापार को प्रोत्साहित करना, समुद्री गलियारों का उपयोग करके संपर्क विकसित करना और प्रतिबंधों को दरकिनार करने के लिए राष्ट्रीय मुद्रा भुगतान प्रणाली को सक्षम करने की व्यवस्था शामिल है.
दोनों देशों के संबंधों को अगर आँकड़ों की नज़र से देखें तो पता चलता है कि दोनों देशों के बीच का व्यापार जो 5साल पहले 8अरब डॉलर का था अब 68अरब डॉलर तक जा पहुँचा है. इस व्यापार से खनिज तेल को हटा देंगे, इसे बढ़ाना आसान नहीं होगा.
रूस में बहुत ज्यादा ज़मीन और प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध हैं. भारत अपनी श्रमिक संपदा का वहाँ भी इस्तेमाल कर सकता है. इस लिहाज से श्रम गतिशीलता समझौता महत्वपूर्ण है.रूस को 50 लाख कुशल श्रमिकों की जरूरत है. यूरोप और अमेरिका में आव्रजन पर लग रही रुकावटों की स्थिति में भारत के लिए यह अच्छा अवसर है. रूसी व्यवसायी भी भारत से ज्यादा सामान खरीदना चाहते हैं. वहाँ भारतीय उपभोक्ता सामग्री को भी स्थान मिल सकता है.
(लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं)
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