हरजिंदर
जब चुनाव होते हैं तो धर्म कितना महत्वपूर्ण हो जाता है इसे समझना हो तो हमें तेलंगाना जाना होगा जहां इन दिनों राज्य विधानसभा का चुनाव चल रहा है. इस राज्य की कुल जमा आबादी को देखें तो यहां पर 13 फीसदी मुसलमान हैं. राज्य विधानसभा की 119 सीटों में से लगभग 45 सीटें ऐसी हैं जहां चुनाव के नजरिये से यह आबादी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. इनमें हैदराबाद की वे सात सीटें भी शामिल हैं जहां मुस्लिम वोटर बहुसंख्यक हैं.
इसी इलाके के नेता हैं असदुद्दीन ओवैसी जो पिछले कुछ साल से लगातार यह कोशिश कर रहे हैं कि उन्हें राष्ट्रीय स्तर के मुस्लिम नेता के रूप में पहचाना जाए. इसलिए उत्तर प्रदेश हो या बिहार वे हर जगह चुनाव लड़ने पहंुच जाते हैं. बिहार में तो उन्हें आंशिक कामयाबी भी मिली है.
इसलिए जब उनके अपने राज्य तेलंगाना में चुनाव हो रहा है तो उनसे यह उम्मीद तो की ही जा सकती थी कि वे कम से कम 45 सीटों पर तो अपने उम्मीदवार उतारेंगे ही, लेकिन नहीं, उनकी पार्टी मजलिस-ए-इत्ताहदुल मुसलमीन ने तय किया है कि वह अपने चुनावी लड़ाई को सिर्फ हैदराबाद तक ही सीमित रखेगी.
पार्टी के इस फैसले ने उन लोगों को सवाल उठाने का एक और मौका दे दिया है जो अभी तक ओवैसी की राजनीतिक नीयत पर शक करते रहे हैं.पार्टी सिर्फ आठ सीटों पर चुनाव लड़ रही है, जिनमें जुबली हिल की वह सीट भी शामिल है जहां से भारत के पूर्व क्रिकेट कप्तान और सांसद मुहम्मद अजहरुद्दीन कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं.
कांग्रेस की बहुत सारी उम्मीदें इस बार मुस्लिम वोटों पर टिकी हैं. इसे लेकर ओवैसी की पार्टी व कांग्रेस के बीच खासी ठनी हुई है. दोनों एक दूसरे को आरएसएस का एजेंट बता रहे हैं. प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रेवांथ रेड्डी अपने भाषणों में कहते हैं कि ओवेसी अपनी लंबी शेरवानी के नीचे खाकी नेकर पहनते हैं.
जवाब में ओवैसी उन्हें ‘आएएसएस अन्ना‘ और ‘आरएसएस का टिल्लू‘ कहते हैं. कांग्रेस ने मुस्लिम समुदाय का समर्थन हासिल करने के लिए इस बार पांच मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया है.
हालांकि पूरे राज्य में कांग्रेस की मुख्य लड़ाई ओवेसी से नहीं मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव की भारत राज्य समिति यानी बीआरएस से है.
कांग्रेस की तरफ से बीआरएस की छवि एक ऐसी पार्टी की बनाने की हो रही है जिसने अंदर खाने में भाजपा से समझौता कर लिया है. इस चुनाव में कांग्रेस यह भी लगातार कह रही है कि राष्ट्रीय स्तर पर सांप्रदायिक ताकतों को हराने का काम सिर्फ कांग्रेस ही कर सकती है, बीआरएस नहीं.
के चंद्रशेखर राव की छवि मोटे तौर पर एक धर्मनिरपेक्ष नेता की रही है, इसलिए राज्य की पिछले दो चुनावों में मुसलमानों के ज्यादातर वोट उन्हीं की पार्टी को मिलते रहे हैं. उन्होंने मुस्लिम समुदाय के लिए कुछ योजनाएं भी बनाई हैं.
उनके कार्यकाल में प्रदेश में मुस्लिम समुदाय के लिए जगह जगह शादी खाना का निर्माण कराया गया. उन्होंने एक और योजना भी बनाई - ‘शादी मुबारक‘, जिसके तहत गरीब मुस्लिम परिवारों को शादी के लिए एक लाख रुपये का अनुदान भी दिया जाता है.
इस बार उनकी पार्टी ने सिर्फ दो ही मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिए हैं.हालांकि इस बार ओवैसी की पार्टी एमआईएम और बीआरएस में कोई समझौता नहीं है, लेकिन राज्य की राजनीति में दोनों पार्टियां एक दूसरे के करीब मानी जाती हैं.
उम्मीद यह है कि अगर चुनाव नतीजों के बाद बीआरएस बहुमत से थोड़ा दूर रहती है तो एमआईएम ही उसकी मदद को आगे आएगी. पिछले एक चुनाव में तो ओवैसी ने चंद्रशेखर राव के लिए खुले तौर पर मुस्लिम समुदाय से अपील की थी कि इस बार वोट ‘मामू‘ को ही देना है.
पड़ोसी राज्य कर्नाटक में जिस तरह कांग्रेस मुस्लिम समुदाय के वोट हासिल करने में कामयाब रही थी उससे उसे लगने लगा है कि यही कमाल वह तेलंगाना में भी दोहरा सकती है. इसलिए मुस्लिम मतों के लिए उसने अपनी सक्रियता बढ़ा दी है. बड़ी बात यह है कि उसकी यह सक्रियता ओवेसी और चंद्रशेखर राव दोनों को परेशान कर रही है.
तीनों ही दलों की राजनीति यह मानकर चल रही है कि अपनी धार्मिक पहचान के साथ एकमुश्त वोट देंगे. कोई यह नहीं सोच रहा है कि लोग चाहे किसी भी समुदाय के हों वे अपनी स्वतंत्र सोच से भी वोट दे सकते हैं. सबसे बड़ी बात यह है कुछ नारे लगाने के अलावा मुसलमानों की वास्तविक समस्याओं की गंभीर चर्चा हमेशा की तरह इस चुनाव में भी नहीं हो रही.
( लेखक वरष्ठि पत्रकार हैं )