'एम्बुलेंस दादा' करीमुल हक: एक शख्स जिसने इंसानियत को मिशन बना दिया

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 23-11-2025
'Ambulance Dada' Karimul Haque: A man who made humanity his mission
'Ambulance Dada' Karimul Haque: A man who made humanity his mission

 

जावेद अख्तर/ कोलकाता

भारत के ग्रामीण इलाकों की सादगी और संघर्ष के बीच ऐसी कई कहानियाँ छिपी हैं जो इंसानियत की असली परिभाषा पेश करती हैं। इन्हीं में से एक कहानी है पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी ज़िले के मालबाजार के राजाडांगा गाँव में जन्मे करीमुल हक की, जिन्हें आज पूरा देश ‘एम्बुलेंस दादा’ के नाम से जानता है। यह कहानी एक ऐसे व्यक्ति की है जिसने गरीबी, अभाव और कठिनाइयों के बावजूद अपने दम पर हज़ारों ज़िंदगियाँ बचाईं और यह साबित किया कि सच्ची सेवा के लिए न दौलत चाहिए, न ऊँचा पद,सिर्फ़ करुणा और दृढ़ संकल्प चाहिए।

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7 जून 1968 को जन्मे करीमुल हक एक मज़दूर परिवार से थे। उनके पिता, स्वर्गीय लालुआ मोहम्मद, एक दिहाड़ी मज़दूर थे और घर की हालत बेहद खराब थी। करीमुल ने राजाडांगा पेंदा महम्मद हाई स्कूल से शिक्षा शुरू की, लेकिन परिवार की आर्थिक स्थिति ने उन्हें स्कूल छोड़कर कमाई के लिए मजबूर कर दिया।

उन्होंने रेलवे स्टेशन पर कुली का काम शुरू किया और वहीं से उन्हें सेवा की राह मिली। यात्रियों से मिली छोटी-छोटी टिप्स को वे अपनी ज़रूरतों के लिए नहीं बल्कि दूसरों की मदद के लिए बचाते थे। यही टिप्स आगे चलकर उनके जीवन का सबसे बड़ा उद्देश्य बन गईं।

करीमुल के जीवन का सबसे दर्दनाक मोड़ 1995में आया, जब उनकी माँ गंभीर रूप से बीमार पड़ीं। उन्होंने हर संभव कोशिश की कि किसी तरह माँ को अस्पताल पहुँचा सकें, लेकिन गाँव में एम्बुलेंस नहीं थी और आस-पास से कोई मदद नहीं मिल पाई।

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इलाज न मिलने के कारण उनकी माँ की घर पर ही मृत्यु हो गई। यह हादसा उनके दिल में हमेशा के लिए बस गया। उस दिन उन्होंने खुद से वादा किया कि वे अपने गाँव में किसी को भी एम्बुलेंस की कमी के कारण मरने नहीं देंगे। यही वादा उनके जीवन का मिशन बन गया।

करीमुल ने अपनी मामूली आय और टिप्स से कुछ पैसे जोड़े और ऋण लेकर एक मोटरसाइकिल खरीदी। यही मोटरसाइकिल आगे चलकर ‘बाइक एम्बुलेंस’ बनी। 1998में उन्होंने अपने गाँव और आस-पास के 20 से अधिक गाँवों में बीमार या घायल लोगों को अस्पताल पहुँचाने की सेवा शुरू की।

इन इलाकों में सड़कें टूटी हुई थीं, बिजली नहीं थी और सबसे नज़दीकी अस्पताल लगभग 45किलोमीटर दूर था। इन परिस्थितियों में करीमुल की बाइक ही लोगों के लिए जीवनरेखा बन गई। वे दिन-रात बिना थके किसी भी आपात स्थिति में लोगों की मदद के लिए तैयार रहते। धीरे-धीरे लोग उन्हें प्यार से “एम्बुलेंस दादा” कहने लगे।

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करीमुल ने किसी से एक पैसा नहीं लिया। वे जो कुछ भी कमाते थे, वह पेट्रोल, दवाइयों और फर्स्ट-एड किट खरीदने में खर्च कर देते थे। 2020तक उन्होंने अपनी मोटरसाइकिल एम्बुलेंस से 5,500 से अधिक लोगों को अस्पताल पहुँचाया। आज भी वे मालबाजार के एक चाय बागान में काम करते हैं और लगभग 5000 रुपये मासिक कमाते हैं, लेकिन उस पूरी रकम को अपनी सेवा के लिए समर्पित करते हैं।

उन्होंने सिर्फ मरीजों को पहुँचाने तक ही अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई, बल्कि स्थानीय डॉक्टरों से प्रशिक्षण लेकर ग्रामीणों को प्राथमिक चिकित्सा सिखाने की पहल भी की। वे समय-समय पर स्वास्थ्य शिविर आयोजित करते हैं ताकि लोग मामूली बीमारियों में भी उचित देखभाल पा सकें।

करीमुल की सेवाओं ने उन्हें समाज में एक मिसाल बना दिया। उन्होंने अपनी छोटी कमाई से अपने गाँव में ‘आशा की किरण’ नाम का एक छोटा स्वास्थ्य केंद्र भी शुरू किया, जहाँ गरीबों को प्राथमिक चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराई जाती है।

उनका यह केंद्र उस क्षेत्र के लिए एक वरदान साबित हुआ है, जहाँ पहले लोग इलाज के अभाव में दम तोड़ देते थे। 2020 में कोविड-19महामारी के दौरान जब पूरा देश लॉकडाउन में था, तब भी करीमुल पीछे नहीं हटे। उन्होंने गरीबों और प्रवासी मजदूरों को खाना, कपड़े और ज़रूरी वस्तुएँ बाँटकर इंसानियत की एक मिसाल पेश की। उन्होंने यह दिखाया कि सेवा का कोई रूप छोटा नहीं होता—बस नीयत सच्ची होनी चाहिए।

करीमुल हक की निःस्वार्थ सेवाओं को भारत सरकार ने भी सराहा और 2017 में उन्हें देश के चौथे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्मश्री पुरस्कार से नवाज़ा गया। उस दिन से वे न केवल अपने गाँव बल्कि पूरे देश के लिए प्रेरणा बन गए।

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1 जनवरी 2021 को वे अभिनेता सोनू सूद के साथ टीवी शो कौन बनेगा करोड़पति में नज़र आए, जहाँ उनकी कहानी सुनकर पूरा देश भावुक हो उठा। उसी वर्ष उनकी जीवन यात्रा पर आधारित किताब ‘बाइक एम्बुलेंस दादा’ प्रकाशित हुई, जिसे पत्रकार और सामाजिक उद्यमी बिस्वजीत झा ने लिखा और पेंगुइन रैंडम हाउस इंडिया ने प्रकाशित किया।

करीमुल का परिवार आज भी सादगी से भरा जीवन जीता है। उनकी पत्नी अंजुया बेगम, दो बेटे राजू और अहाचनुल और दो विवाहित बेटियाँ हैं। बेटे पान की दुकान और मोबाइल मरम्मत का छोटा व्यवसाय चलाते हैं। परिवार की मामूली आमदनी का अधिकांश हिस्सा ईंधन और दवाइयों में चला जाता है। फिर भी करीमुल कहते हैं, “अगर किसी की जान बचा लूँ, तो वही मेरी सबसे बड़ी कमाई है।”

उनकी कहानी यह सिखाती है कि बदलाव लाने के लिए बड़ी पूँजी नहीं, बल्कि बड़ा दिल चाहिए। वे दिखाते हैं कि एक व्यक्ति भी पूरे समाज की सोच बदल सकता है। आज उनके काम से प्रेरित होकर कई राज्यों में बाइक एम्बुलेंस सेवाएँ शुरू की जा चुकी हैं। उनका मिशन न केवल बीमारों को अस्पताल पहुँचाने का है, बल्कि यह भी है कि हर व्यक्ति को स्वास्थ्य सेवा का अधिकार मिले, चाहे वह कितना भी दूर या गरीब क्यों न हो।

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करीमुल हक की कहानी केवल पश्चिम बंगाल की नहीं, बल्कि पूरे भारत की कहानी है,एक ऐसी कहानी जो हमें याद दिलाती है कि इंसानियत अब भी जिंदा है। उन्होंने जो विरासत छोड़ी है, वह आने वाली पीढ़ियों को यह सिखाती है कि जब दिल में दूसरों के लिए करुणा हो, तो असंभव कुछ नहीं रहता।

वे आज भी उसी सादगी के साथ अपने गाँव में रहते हैं, बिना किसी दिखावे के, केवल एक वचन निभाने के लिए—“किसी को भी एम्बुलेंस की कमी से मरने नहीं दूँगा।” यही वचन उन्हें भारत के सच्चे ‘एम्बुलेंस दादा’ बनाता है, और यही कहानी हमें यह विश्वास दिलाती है कि एक अकेला इंसान भी पूरे समाज में उम्मीद की नई किरण जगा सकता है।