मजरूह सुल्तानपुरीः रक़्स करना है तो फिर पांव की ज़ंजीर न देख

Story by  मुकुंद मिश्रा | Published by  [email protected] | Date 24-05-2021
मजरूह सुल्तानपुरी
मजरूह सुल्तानपुरी

 

आवाज विशेष । मजरूह सुल्तानपुरी पुण्यतिथि

ज़ाहिद ख़ान

“मैं अकेला ही चला था ज़ानिब-ए-मंज़िल मगर

लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया’’

उर्दू अदब में ऐसे बहुत कम शे’र हैं, जो शायर की पहचान बन गए और आज भी सियासी, समाजी महफिलों और तमाम ऐसी बैठकों में कहावतों की तरह दोहराए जाते हैं. इस शे’र को लिखे हुए एक लंबा अरसा बीत गया, मगर शे’र की तासीर ठंडी नही हुई.

1 अक्टूबर, 1919 को उत्तर प्रदेश, आज़मगढ़ जिले के निज़ामाबाद गांव में जन्मे, असरार-उल हसन ख़ान यानी मजरूह सुल्तानपुरी के घरवालों और ख़ुद उन्होंने कभी यह ख़्वाब में भी नहीं सोचा था कि आगे चलकर गीत-ग़ज़ल उनकी ज़िंदगी बन जाएंगे और वे अपने नग़मों और शायरी से ही दुनिया भर में जाने-पहचाने जाएंगे.

मजरूह सुल्तानपुरी के वालिद चाहते थे कि वे अच्छी पढ़ाई कर, नौकरी हासिल करें और इसी चाहत में उन्हें मदरसे भेज दिया गया. जहां उन्होंने उर्दू, अरबी और फारसी ज़बान सीखी. शुरुआती तालीम के बाद उन्होंने ‘तक्मील उत्तिब कॉलेज’ लखनऊ से यूनानी चिकित्सा में डिग्री हासिल की और सुल्तानपुर में प्रैक्टिस करने लगे. लेकिन उनकी किस्मत में तो कुछ और ही मंजूर था. शे’र-ओ-अदब की चर्चा सुनते-सुनते, उनके अंदर भी शे’र कहने का शौक पैदा हुआ. अपने इस शौक के बारे में उनका खुद का यह कहना था,‘‘मैंने अपने जमालियाती ज़ौक (सौंदर्य बोध) की तस्कीन के लिए सन् 1940 में शायरी शुरू की. इब्तिदा गीत-नुमा नज़्मों से हुई. लेकिन बेहद जल्द में ग़ज़ल की तरफ आ गया.’’

बहरहाल कुछ ही समय में वे बाकायदगी से शायरी करने लगे. हकीमी करने के साथ-साथ मुशायरों में अपनी आमद बढ़ा दी. इस सिलसिले में उन्होंने उस दौर के मशहूर शायर जिगर मुरादाबादी को अपना उस्ताद बना लिया. जिगर साहब से उन्होंने बहुत कुछ सीखा. उनमें से एक सीख यह थी कि,‘‘अगर किसी का कोई अच्छा शे’र सुनो, तो कभी नकल ना करो, बल्कि जो गुज़रे (आत्मानुभव), वही कहो.’’ एक लिहाज से कहें, तो उर्दू अदब में मजरूह सुल्तानपुरी का आगाज जिगर मुरादाबादी की शायरी की रिवायतों के साथ हुआ और आखिरी वक़्त तक उन्होंने इसका दामन नहीं छोड़ा.

मजरूह सुल्तानपुरी की शायरी का शुरुआती दौर, आज़ादी के आंदोलन का दौर था. उस वक्त जो भी इंक़लाबी मुशायरे होते, वे उनमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते. उनकी ग़ज़लों में तरन्नुम और सादगी का दिलकश मेल होता था. मजरूह की शुरू की ग़ज़ल को यदि देखें, तो उनमें एक बयानिया लहजा है, लेकिन जैसे-जैसे उनका तज़ुर्बा बढ़ा, उनकी ग़ज़ल की ज़बान और मौज़ूआत में नुमायां तब्दीली पैदा हुई और इशारियत (सांकेतिकता) और तहदारी (गहराई) में भी इज़ाफा हुआ.

तरक़्क़ीपसंद तहरीक के शुरुआती दौर का अध्ययन करें, तो यह बात सामने आती है कि तरक़्क़ीपसंद शायर और आलोचक ग़ज़ल विधा से मुतमईन नहीं थे. उन्होंने अपने तईं ग़ज़ल की पुरजोर मुख़ालिफत की, उसे जानबूझकर नजरअंदाज़ किया. यहां तक की शायर-ए-इंक़लाब जोश मलीहाबादी, तो ग़ज़ल को एक काव्य विधा की हैसियत से मुर्दा करार देते थे. विरोध के पीछे अक्सर यह दलीलें होती थीं कि ग़ज़ल नए दौर की जरूरतों के लिहाज़ से नाकाफ़ी ज़रिया है. कम अल्फाजों, बह्रों-छंदों की सीमा का बंधन खुलकर कहने नहीं देता. लिहाजा, उस दौर में उर्दू अदब में मंसूबाबंद तरीके से नज़्म आई.

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, अली सरदार जाफरी, साहिर लुधियानवी, कैफ़ी आज़मी, वामिक जौनपुरी और मज़ाज वगैरह शायरों ने एक से बढ़कर एक नज़्में लिखीं. हालांकि इन लोगों ने ग़ज़ल भी लिखीं, लेकिन मजरूह ने सिर्फ ग़ज़ल लिखी.

मजरूह सुल्तानपुरी ने ना सिर्फ ग़ज़ल लिखीं, बल्कि वे उन शायरों में शामिल रहे, जिन्होंने ग़ज़ल की हमेशा तरफदारी की और इसे ही अपने जज़्बात के इज़हार का ज़रिया बनाया. ग़ज़ल  के बारे में उनका नज़रिया था,‘‘मेरे लिए यही एक मोतबर ज़रिया है. ग़ज़ल की ख़ुसूसियत उसका ईजाजो-इख़्तिसार (संक्षिप्तता) और जामइयत (संपूर्णता) व गहराई है. इस ऐतिबार से ये सब से बेहतर सिन्फ़ (विधा) है.’’ ग़ज़ल के ज़ानिब मजरूह की ये बेबाकी और पक्षधरता आखिर समय तक कायम रही. ग़ज़ल के विरोधियों से उन्होंने कभी हार नहीं मानी. अलबत्ता रिवायती ग़ज़ल के घिसे-पिटे मौजू और तर्जे बयान को उन्होंने अपनी तरफ से बदलने की पूरी कोशिश की. जिसमें वे कामयाब भी हुए.

मजरूह की शायरी में रूमानियत और इंक़लाब का बेहतरीन संगम है. ऐसी ही उनकी एक ग़ज़ल के कुछ अश्आर इस तरह से हैं,

‘‘अब अहले-दर्द (दर्दवाले आशिक) ये जीने का अहतिमाम (प्रबंध) करें

उसे भुला के ग़मे-ज़िंदगी (जीवन के दुःख) का नाम करें.

...........

गुलाम रह चुके, तोड़ें ये बंदे-रुसवाई (बदनामी की ज़ंजीर)

खुद अपने बाजू-ए-मेहनत (परिश्रम करने वाली बांहों का) का अहतिराम करें.’’

मजरूह सुल्तानपुरी की इस बात से हमेशा नाइत्तेफ़ाकी रही, कि मौजूदा ज़माने के मसायल को शायराना रूप देने के लिए ग़ज़ल नामौज़ू है, बल्कि उनका तो इससे उलट यह साफ मानना था,‘‘कुछ ऐसी मंज़िलें हैं, जहां सिर्फ ग़ज़ल ही शायर का साथ दे सकती है.’’

मजरूह की एक नहीं, कई ऐसी ग़ज़ल हैं जिसमें विषय से लेकर उनके कहन का अंदाज निराला है. मसलन,

‘‘सर पर हवा-ए-जुल्म चले सौ जतन के साथ

अपनी कुलाह कज है उसी बांकपन के साथ.’’,

और,

‘‘जला के मश्अले-जां हम जुनूं-सिफात चले

जो घर को आग लगाए हमारे साथ चले.’’

मजरूह, मुशायरों के कामयाब शायर थे. ख़ुशगुलू (अच्छा गायक) होने की वजह से जब वे तरन्नुम में अपनी ग़ज़ल पढ़ते, तो सामयीन झूम उठते थे. ग़ज़ल में उनके बग़ावती तेवर अवाम को आंदोलित कर देते. वे मर मिटने को तैयार हो जाते.

मजरूह सुल्तानपुरी के कलाम में हालांकि ज्यादा ग़ज़लें नहीं हैं. उनकी किताब ‘ग़ज़ल’ में सिर्फ 50 ग़ज़लें ही संकलित हैं, लेकिन इन ग़ज़लों में से किसी भी ग़ज़ल को कमजोर नहीं कह सकते. उन्होंने अदबी कलाम कम लिखा, लेकिन बेहतर और लाज़वाब लिखा. मजरूह की एक नहीं, ऐसी कई ग़ज़लें हैं जिनमें उन्होंने समाजी और सियासी मौज़ूआत को कामयाबी के साथ उठाया है. इनमें उनके बगावती तेवर देखते ही बनते हैं. मुल्क़ की आज़ादी की तहरीक में ये ग़ज़लें, नारों की तरह इस्तेमाल हुईं.

‘‘सितम को सर-निगूं (झुका सर), जालिम को रुसवा हम भी देखेंगे

चले ऐ अज़्मे बगावत (बगावत का निश्चय) चल, तमाशा हम भी देखेंगे .’’

मजरूह सुल्तानपुरी की शुरुआती दौर की ग़ज़लों पर आज़ादी के आंदोलन का साफ असर दिखलाई देता है. दीगर तरक़्क़ीपसंद शायरों की तरह, उनकी भी ग़ज़लों में मुल्क़ के लिए मर-मिटने का जज़्बा नज़र आता है. ये ग़ज़लें सीधे-सीधे अवाम को संबोधित करते हुए लिखी गई हैं.

‘‘आहे-जां-सोज (जान को जला देने वाली आह) की महरूमी-ए-तासीर (प्रभाव की विफलता) न देख

हो ही जाएगी कोई ज़ीने की तद्बीर (उक्ति) न देख

.......

यह जरा दूर पे मंज़िल, यह उजाला, यह सुकूं

ख़्वाब को देख अभी ख़्वाब की ताबीर न देख

देख ज़िंदां से परे, रंगे-चमन, जोशे-बहार

रक़्स करना है तो फिर पांव की ज़ंजीर न देख.’’

अवामी मुशायरों में तरक़्क़ीपसंद शायर जब इस तरह की ग़ज़लें और नज़्में पढ़ते थे, तो पूरा माहौल मुल्क़ की मुहब्बत से सराबोर हो जाता था. लोग कुछ कर गुज़रने के लिए तैयार हो जाते थे. अप्रत्यक्ष तौर पर ये अवामी मुशायरे अवाम को बेदार करने का काम करते थे. खास तौर से मजरूह की शायरी उन पर गहरा असर करती.

‘‘तकदीर का शिक़वा बेमानी, ज़ीना ही तुझे मंज़ूर नहीं

आप अपना मुक़द्दर बन न सके, इतना तो कोई मजबूर नहीं .’’

मजरूह सुल्तानपुरी ने साल 1945 से लेकर साल 2000 तक हिंदी फिल्मों के लिए गीत भी लिखे. अपने पचपन साल के फ़िल्मी सफ़र में उन्होंने 300 फिल्मों के लिए तकरीबन 4,000 गीतों की रचना की.

फिल्मी गीतों ने मजरूह सुल्तानपुरी को खूब इज्जत, शोहरत और पैसा दिया. बावजूद इसके वे अदबी काम को ही बेहतर समझते थे. अपने फिल्मी गीतों के बारे में उनका कहना था,‘‘फिल्मी शायरी मेरे लिए ज़रिया-ए-इज्जत नहीं, बल्कि जरिया-ए-मआश (जीविका का साधन) है. मैं अपनी शायरी को कुछ ज्यादा मैयारी (ऊंचे स्तर की) भी नहीं समझता. इसके जरिए मुझे कोई अदबी फायदा भी नहीं पहुंचा है, बल्कि फिल्मी मशरुफ़ियत मेरी शेर-गोई (काव्य लेखन) की रफ्तार में हाइल रही.’’

यह बात सही भी है. फिल्मी गानों की मशरुफ़ियत के चलते, वे ज्यादा अदबी लेखन नहीं कर पाये. लेकिन उन्होंने जो कुछ भी लिखा, वह उन्हें ऊंचे ग़ज़लकार के दर्जे में शामिल करने के लिए काफी है.

अदब की ख़िदमत और फिल्मी दुनिया में लिखे गीतों के लिए मजरूह सुल्तानपुरी, अपनी ज़िंदगी में ही कई अवार्डों से नवाजे गए. ‘ग़ालिब अवार्ड’, ‘इकबाल सम्मान’ और ‘वली अवार्ड’ जैसे अदबी अवार्डो के अलावा उन्हें फिल्म ’दोस्ती’ के गाने ’चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे’ के लिए फिल्मफेयर अवॉर्ड मिला. मजरूह सुल्तानपुरी फिल्मी दुनिया में ऐसे गीतकार थे, जिन्हें सबसे पहले ‘दादा साहब फाल्के अवार्ड’ मिला.

24 मई, साल 2000 को 80 साल की उम्र में वे इस फ़ानी दुनिया से हमेशा के लिए रुख़सत हो गए.