फरहाना मन्नान
मैंने आँखें बंद कीं और अचानक अपने बचपन की ओर लौट गई. मेरे पिताजी दिन भर ऑफिस में काम करते थे, माँ घर पर रहती थीं और दोनों मिलकर अपनी सारी पारिवारिक ज़िम्मेदारियाँ उठाते थे. हमारे परिवार में हम दो बच्चे थे और माँ-पिता दोनों हमें पालने में पूरी कोशिश करते थे. माँ ने मुझे पड़ोस के एक किंडरगार्टन में दाखिला दिलाया था, और रोज़ मुझे वहाँ छोड़ने और लाने का काम भी वही करती थीं.
अगर कभी वह खुद नहीं जा पाती थीं, तो स्कूल वैन इस ज़िम्मेदारी को पूरा कर देती थी. स्कूल से लौटकर खेल, पढ़ाई और आराम से समय बीतता था. उस बचपन में, मेरे माता-पिता ने मुझे हर तरह से सुरक्षित महसूस कराया.
सालों बाद, जब मैं अपनी बेटी के साथ सिंजी स्थित अपने घर लौट रही थी, तो ड्राइवर ने अचानक एक कहानी सुनानी शुरू की. वह बताने लगा कि कैसे वह अपनी बेटी को पढ़ाने के लिए हर दिन कड़ी मेहनत करता है.
सीएनजी चलाकर जो पैसा कमाता है, उससे उसने अपनी बेटी का जन्मदिन मनाया, और दो दिन पहले ही उसकी एक छोटी सी इच्छा पूरी की. बात करते-करते उसकी आवाज़ भर्रा गई थी. वह समझा रहा था कि पैसे कमाना कितना कठिन होता है और फिर उसी पैसे से बच्चों की परवरिश करना कितना बड़ा काम है.
मेरे घर में काम करने वाली तीन महिलाओं और उनके बच्चों की कहानियाँ भी मेरे दिल में घर कर गई हैं. घर की सफ़ाई करने वाली एक महिला, जिसकी एक बेटी और एक बेटा है, अपनी बेटी को पढ़ाने के लिए जी-जान से जुटी हुई है, लेकिन उसका बेटा उसकी पकड़ से दूर होता जा रहा है.
फिर भी वह हार नहीं मानती. वह अपने बेटे की पसंद-नापसंद, उसके खाने-पीने और कपड़ों की चिंता में दिन बिताती है. वह हर वक़्त यही सोचती है कि कैसे अपने बेटे के भले के लिए मौजूद रह सकती है.
घर की रसोइया का 19 वर्षीय बेटा, एक निर्माणाधीन इमारत में राजमिस्त्री का काम करते हुए गिरकर मर गया.माँ आज भी उस जगह की सुरक्षा को याद करके रो पड़ती है.
एक ड्राइवर के 17 साल के बेटे की मौत इज्तेमा के दौरान वज़ू करते समय हुई, जब एक नाव अचानक उसके ऊपर गिर गई. पतवार का एक हिस्सा उसके शरीर के दाहिने हिस्से पर लगा और कुछ ही घंटों में उसकी मौत हो गई.
हमने सोशल मीडिया पर उन माँओं की तस्वीरें देखी हैं जो अपने मानसिक रूप से विकलांग बच्चों को ज़ंजीरों में बाँध कर रखती हैं. कारण ? क्योंकि उनके पास कोई सुरक्षित स्थान नहीं है जहाँ वो अपने बच्चे को थोड़ी देर के लिए छोड़ सकें.
एक माँ को मैंने देखा, जो ज़मीन में एक गड्ढा खोदकर अपने बच्चे को वहाँ छोड़कर घर का सारा काम करती थी — यह दृश्य अमानवीय था, लेकिन उसके पास कोई और विकल्प भी नहीं था.
चाय के बागानों में बच्चों को पीठ पर बाँधकर काम करना अब एक सामान्य दृश्य बन गया है. पर क्या ऐसा नहीं हो सकता कि उनके लिए कुछ घंटे सुरक्षित देखभाल की सुविधा दी जाए ? क्या यह माँओं के मानसिक स्वास्थ्य और बच्चों की सुरक्षा दोनों के लिए बेहतर नहीं होगा ?
हमारे आसपास ऐसी असंख्य कहानियाँ हैं. सभी माँ-बाप सिर्फ एक ही चीज़ चाहते हैं: उनके बच्चे सुरक्षित रहें. लेकिन क्या आज की सामाजिक व्यवस्था में यह संभव है ? कभी सड़क पार करते हुए डर लगता है, कभी निर्माणाधीन इमारतों से गिरती चीज़ों का डर.
10 जनवरी 2024 को ढाका के मोघबाजार में एक बैंक कर्मचारी दीपनबिता बिस्वास दीपू की सिर पर ईंट गिरने से मौत हो गई थी. जांच के बाद भी इस घटना का समाधान नहीं निकला.
बाज़ार में खाने का सामान खरीदते हुए भी अब भरोसा नहीं होता — सब्ज़ियों और फलों में फ़ॉर्मेलिन, जूस में मिलावट, मछलियों में केमिकल्स. एक महिला की कहानी याद है, जिसने गर्भपात झेला और बाद में पता चला कि फ़ॉर्मेलिन की वजह से गर्भस्थ शिशु को नुकसान पहुँचा.
बच्चे जब खेलने जाते हैं, तो अपहरण का डर, संपत्ति के झगड़ों में बच्चों की हत्या की खबरें, तालाबों में डूबने की घटनाएँ, खुले मैनहोल, लटकते बिजली के तार, भवन निर्माण में नियमों की अनदेखी — क्या ये सब मिलकर हमारे बच्चों को हर पल असुरक्षा में नहीं धकेलते ?
हमारे देश में नियमों की कमी नहीं है, लेकिन अमल की कमी है. मानसिक सुरक्षा भी दरक रही है. एक ओर पाँच का जीपीए, अच्छी नौकरी, दाखिला — इन सब की चिंता है; दूसरी ओर हमारा वातावरण इतना गंदा है कि उसमें स्वास्थ्य की कल्पना भी मुश्किल है.
हर दिन अख़बारों में बच्चों के साथ बलात्कार की खबरें आती हैं. कभी घर के भीतर, तो कभी परिवार के ही किसी सदस्य द्वारा। हर ओर खतरे हैं — स्कूल जाते हुए, खेलते हुए, सोते हुए.
सवाल उठता है: क्या मेरा बच्चा सुरक्षित है?
स्कूल, अस्पताल, पार्क, शॉपिंग मॉल — ये सब किसी योजना के तहत नहीं बन रहे. इमारतें बिना सोच-समझ के बन रही हैं। ज़रा सोचिए, जब ये पुरानी हो जाएँगी, तब क्या होगा ?
हमारी योजना विहीनता, हमारे बच्चों के भविष्य को भी अंधेरे में धकेल रही है. कुछ लोग कहते हैं — "देखते हैं, पहले बना तो लें!" यही लापरवाही हमें हादसों तक ले जाती है.
मुझे आज भी वो पिता याद हैं, जिनकी बेटी BUET में पढ़ती थी और एक हादसे में जान गंवा बैठी. उसकी चीख आज भी मेरे कानों में गूंजती है: “भैया, मेरी छाती फट रही है!”
हम अपने बच्चों को खोते जा रहे हैं — किसी दुर्घटना में, किसी बीमारी में, या सिस्टम की विफलता में। और फिर सोचते हैं: क्या हम कुछ कर सकते थे?
हाँ, कर सकते हैं. कानून लागू हो, प्रशासन ईमानदार हो, भ्रष्टाचार खत्म हो, हर जगह सुरक्षा के मानक तय हों — तो शायद हालात बदल सकते हैं.
लेकिन तब तक, हम हर माँ-बाप की तरह बस यही पूछते रहेंगे —
क्या मेरा बच्चा सुरक्षित है?
फरहाना मन्नान
संस्थापक और सीईओ, चाइल्डहुड
शिक्षा लेखिका और शोधकर्ता