व्यक्तिगत मतभेद या सैद्धांतिक ?

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 29-05-2024
Individual differences or ideological ones?
Individual differences or ideological ones?

 

suhailसोहेल वाराइच

मेरा इमरान खान और पीटीआई से कोई व्यक्तिगत मतभेद नहीं .' इमरान खान एक करिश्माई शख्सियत हैं. उन्होंने क्रिकेट हीरो के तौर पर पूरे देश को खुशियां दीं. तहरीक-ए-इंसाफ पाकिस्तान के मध्यम वर्ग की आकांक्षाओं और आदर्शों का प्रवक्ता है. इमरान खान की वजह से प्रवासी पाकिस्तानी  राजनीति से जुड़े .

इमरान खान के राजनीति में आने से पहले पाकिस्तान के युवा पाकिस्तानी राजनीति से बिल्कुल उदासीन रहते थे, लेकिन अब वे पूरी तरह से राजनीतिक हो गए हैं.मैंने ये विचार कई बार अपने लेखों और टीवी वार्ताओं में व्यक्त किये हैं. इस स्थिति के बावजूद, इमरान खान और तहरीक-ए-इंसाफ के साथ मेरे सैद्धांतिक मतभेद हैं . शायद भविष्य में भी रहेंगे. नवाज़ शरीफ़ का भी यही हाल है.

निजी तौर पर मेरी उनसे कोई असहमति नहीं है, लेकिन आजकल तहरीक-ए-इंसाफ़ के व्यक्तित्वों की आलोचना को दबाने की उनकी नीति पर गहरी सैद्धांतिक असहमति है. यह नैतिक सिद्धांतों के ख़िलाफ़ है, लेकिन सैद्धांतिक असहमति है. लोकतांत्रिक समाज में यह आवश्यक है और इससे देश को लाभ होता है.

मैं सत्ता को सबसे महत्वपूर्ण अंग मानता हूं . लोकतांत्रिक चिंतक फरीद जकारिया के अनुसार जिस देश में शांति और स्थिरता नहीं , वहां लोकतंत्र स्थापित नहीं हो सकता . सत्ता के बिना देश में शांति स्थापित नहीं हो सकती. मानो वहां लोकतंत्र हो ही नहीं सकता.

लेबनान और सीरिया में शांति नहीं है, इसलिए वहां लोकतंत्र स्थापित होने की कोई गुंजाइश नहीं है. जिस तरह मुक्तदा ने कराची में कार्रवाई की और फासीवाद, आतंकवाद और गुंडागर्दी के लिए जिम्मेदार लोगों को निपटाया और फिर सेना ने भी आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ी.

इससे साबित हुआ कि इस व्यक्तिगत चिंता के बावजूद शांति स्थापित किए बिना राजनीति नहीं चल सकती. मैं राजनीति में मुक्तदरा की हस्तक्षेप भूमिका से पूरी तरह असहमत हूं . मैं 1986 में अपनी पत्रकारिता की शुरुआत से  लगातार अपनी असहमति व्यक्त करता रहा हूं. मुझे लगता है कि संवैधानिक और लोकतांत्रिक सरकारों के साथ ही हम एक कल्याणकारी देश का सपना पूरा कर सकते हैं.

यह हमारे लिए दुर्भाग्यपूर्ण है कि अगर हमारी किसी से सैद्धांतिक असहमति होती है तो वे इसे व्यक्तिगत मतभेदों पर आधारित कर देते हैं. नवाज शरीफ ने अपने प्रधानमंत्रित्व काल में खलीफा बनने का बिल तैयार किया तो लोकतांत्रिक पत्रकार सैद्धांतिक तौर पर इसका विरोध नहीं करेंगे तो क्या करेंगे?

यदि जरदारी गिलानी सरकार कुछ नहीं कर सकी, तो पत्रकार इस मुद्दे को उजागर नहीं करते तो और क्या करते? उसी तरह अगर इमरान खान अपने समय में PIKA कानून लेकर आए तो उसके खिलाफ सैद्धांतिक रुख नहीं अपनाएंगे तो पत्रकार क्या करेंगे?

हसन इस बात से सहमत थे कि इस PIKA कानून को इस्लामाबाद हाई कोर्ट के न्यायाधीश अतहर मिनुल्लाह ने अवैध घोषित किया था और उस समय तहरीक-ए-इंसाफ सरकार को लगा कि यह बहुत बुरा था या तोफले गलत थे या अब गलत हैं?

इसी तरह, जब इमरान सरकार ने जस्टिस काजी फैज ईसा के खिलाफ जनरल फैज की टिप्पणी पर एक संदर्भ भेजा, तो पत्रकार सैद्धांतिक रूप से असहमत थे. बाद में इमरान खान ने खुद स्वीकार किया कि यह संदर्भ गलत था.
आजकल इन्साफी फिर से काजी फैज ईसा के खिलाफ पोस्ट कर रहे हैं. अब इन्साफी को खुद तय करना चाहिए कि वह कहां गलत थे और कहां सही? इसी तरह, जब सबसे बड़े मीडिया समूह के मुखिया को झूठे मामले में गिरफ्तार कर लिया गया और मीडिया का मुंह बंद करने की कोशिश की गई, तो पत्रकार इस मुद्दे पर सख्त सैद्धांतिक रुख न अपनाते तो और क्या करते?

अगर आज इन्साफी मीडिया पर लगे प्रतिबंधों के खिलाफ बोलते हैं तो उन्हें कम से कम अपने कृत्य के लिए माफी मांगनी चाहिए, जिस तरह से मीडिया का आर्थिक गला घोंट दिया गया, सैकड़ों पत्रकार बेरोजगार हो गए, उसी तरह सिद्धांतों का विरोध करने वाले पत्रकार, खासकर महिला पत्रकारों को ट्रोल करने के लिए माफी मांगनी चाहिए.

बीना नून को सिद्धांत पर असहमत होने वालों को निजी दुश्मन नहीं कहना चाहिए, ताकतवर लोगों को भी सैद्धांतिक असहमति बर्दाश्त करनी चाहिए. कवियों और पत्रकारों के गायब होने का सिलसिला समझदारी की नहीं. मूर्खता की श्रेणी में आता है.

अगर अभिव्यक्ति की आजादी नहीं रहेगी तो संविधान में दी गई अभिव्यक्ति की आजादी का क्या होगा? पिछले डेढ़ साल से हममें से कुछ पत्रकारों ने यह मान लिया है कि राजनीतिक गतिरोध का समाधान राजनीतिक में ही है.

बातचीत और फिर राजनीतिक सुलह। शुरू में नून और इन्साफी दोनों ही इस विचार पर नाक-भौं सिकोड़ते थे. दोनों को एक-दूसरे की शक्ल देखना बर्दाश्त नहीं था. आज भी स्थिति वही है, लेकिन समाधान अभी भी है.  लेकिन क्या इसे दबाने से ही समस्या हल हो जाएगी? बिलकुल नहीं! सुलह में, प्रत्येक पक्ष को व्यक्तिगत मतभेदों को दूर रखने और सिद्धांत के मामलों पर सहमत होने के लिए लचीलापन दिखाना होगा.

हमारे हिंसक समाज की समस्या यह है कि हर पार्टी अपने-अपने उग्रवादियों को पसंद करती है. लगातार उग्रवाद की स्थिति में विश्वास करने और सख्त रुख अपनाने के बाद ये तीन प्रमुख पार्टियां उग्रवाद की घेराबंदी में फंस चुकी हैं .

अब उनकी स्थिति यह है कि ये तीनों पार्टियां बंधक बन चुकी हैं. यदि उनके संबंधित उग्रवादी इस नरगा से बाहर निकलने की कोशिश भी करते हैं, तो इन तीनों दलों के उग्रवादी अपने व्यक्तिगत हितों और व्यक्तिगत मतभेदों के कारण उन्हें रिहा नहीं करेंगे.

उग्रवादी तर्क और शांति की बात सुनने को तैयार नहीं . उन्हें लड़ना पसंद है, लेकिन क्या लड़ना देशहित में है या राजनीतिक समझ के लिए? कौन बुद्धिमान है जो इस बात से सहमत नहीं होगा कि अब  देश  को आगे बढ़ाने के लिए राजनीतिक मेल-मिलाप ही एकमात्र उपाय है.

अगर यह बात डेढ़ साल पहले समझ ली गई होती तो आज नौ रिटर्न तक बात नहीं पहुंचती. व्यक्तिगत मतभेदों और सैद्धांतिक मतभेदों के बीच एक बड़ा अंतर यह है कि व्यक्तिगत मतभेदों में क्रोध, घृणा और बदला शामिल होता है, लेकिन सैद्धांतिक मतभेद तर्कों पर आधारित होते हैं और बातचीत के माध्यम से हल किए जा सकते हैं.

 1973 के संविधान के निर्माण के समय धार्मिक और राष्ट्रीय पार्टियों के बीच गंभीर सैद्धांतिक मतभेद थे. राष्ट्रवादी और केंद्र-समर्थक पार्टियों के सैद्धांतिक रुख में भी काफी अंतर था, लेकिन चूँकि कोई व्यक्तिगत मतभेद नहीं थे एक सर्वसम्मत दस्तावेज़ तैयार किया गया जो आज भी लागू है .

इस पर सभी की पूर्ण सहमति है. आज की राजनीति में असली समस्या व्यक्तिगत मतभेद हैं. इमरान खान अपने राजनीतिक विरोधियों के साथ एक टेबल पर बैठने को भी तैयार नहीं हैं, जबकि उनकी पार्टी आए दिन संसद में सरकार के साथ बैठती है. दूसरी ओर, नॉन-लीग इमरान खान के दौर में दी गई प्रताड़नाओं, जेलों  को माफ करने को तैयार नहीं है.

 हालांकि इमरान खान और नवाज शरीफ का लोकतांत्रिक हित एक ही है. ऐसे में चाहत यही है कि हम सैद्धांतिक मतभेद मिटाकर व्यक्तिगत मतभेद के भाव से खुदा को हाफिज कहें, इसी में देश की भलाई है....!

( पाकिस्तान के जंग से साभार. सोहेल वाराइच वरिष्ठ पाकिस्तानी पत्रकार हैं.)