अस्मा ज़बीन
इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में, स्मार्टफोन की छोटी सी स्क्रीन महज़ एक उपकरण नहीं रही. यह एक वैकल्पिक ब्रह्मांड का दरवाज़ा है. एक ऐसी डिजिटल दुनिया जहाँ पहचानें बनती हैं, बिगड़ती हैं और कभी-कभी नीलाम भी हो जाती हैं. इस असीमित दुनिया के केंद्र में सोशल मीडिया खड़ा है. एक ऐसी दो-धारी तलवार जिसने विशेष रूप से महिलाओं के लिए एक ही समय में आज़ादी के नए आसमान भी खोले हैं और आत्म-सम्मान की कड़ी परीक्षाएँ भी खड़ी कर दी हैं.
यह बहस कि सोशल मीडिया ने लज्जा (हया) को ख़त्म कर दिया है, समस्या को खतरनाक हद तक सरल बना देती है. असली सवाल इससे कहीं ज़्यादा गहरा और पेचीदा है. क्या डिजिटल युग की नारी अपनी पहचान की वास्तुकार है या महज़ "ध्यान के बाज़ार" (Attention Economy) में बेची जाने वाली एक वस्तु ?
इस डिजिटल मनोविज्ञान का इंजन वे एल्गोरिदम हैं जो मानवीय स्वीकृति की भूख पर चलते हैं. 'लाइक्स', 'कमेंट्स' और 'फॉलोअर्स' की संख्या को सफलता और स्वीकृति का पैमाना बना दिया गया है. इस माहौल में व्यक्ति, ख़ासकर युवा महिलाएँ, एक न ख़त्म होने वाले दबाव का शिकार हैं कि वे अपने जीवन के हर पहलू को सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए पेश करें.
दिल्ली विश्वविद्यालय की एक छात्रा, नाम ज़ाहिर न करने की शर्त पर, बताती हैं कि एक तस्वीर पर कम लाइक्स आना उन्हें कई दिन तक बेचैन रखता है. मानो उनके अस्तित्व का कोई मूल्य ही न हो.
यह महज़ व्यक्तिगत हीन भावना नहीं, बल्कि एक सामूहिक मनोवैज्ञानिक संकट है जहाँ व्यक्तिगत गरिमा की क़ीमत पर डिजिटल लोकप्रियता खरीदी जा रही है. जब जीवन एक लगातार प्रदर्शन बन जाए और हर पल कैमरे की आँख के लिए समर्पित हो जाए तो गोपनीयता और गरिमा की सीमाएँ अपने आप धुंधली पड़ जाती हैं.
यह डिजिटल प्रदर्शन महिलाओं को एक अत्यंत खतरनाक मोड़ पर ला खड़ा करता है. जहाँ एक तरफ़ उनकी तस्वीरों और वीडियोज़ को सराहा जाता है, वहीं दूसरी तरफ़ यही सामग्री उनके ख़िलाफ़ एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल होती है.
एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया के एक शोध ("ट्रोल पेट्रोल इंडिया: एक्सपोजिंग ऑनलाइन एब्यूज़ फेस्ड बाय वीमेन पॉलिटिशियंस इन इंडिया") से यह भयानक सच्चाई सामने आई है कि जिन भारतीय महिलाओं ने ऑनलाइन उत्पीड़न का सामना किया, उनमें से बड़ी संख्या ने अपने मानसिक स्वास्थ्य और शारीरिक सुरक्षा पर गंभीर नकारात्मक प्रभावों की सूचना दी.
ये आँकड़े इस कड़वी हक़ीक़त को दर्शाते हैं कि हमारे समाज में मौजूद नारी विरोधी मानसिकता, डिजिटल दुनिया में और ज़्यादा बेनक़ाब और बेलगाम हो जाती है. मुंबई की एक युवा उद्यमी (इंटरप्रेन्योर) ने सोशल मीडिया पर अपने स्टार्टअप को बढ़ावा देना शुरू किया तो कुछ ही महीनों में उसे अपनी तस्वीरों में बदलाव करके ब्लैकमेल करने की कोशिश की गई.
उसका अनुभव लाखों महिलाओं का प्रतिनिधित्व करता है जो आगे बढ़ने की कोशिश में साइबर बुलिंग, चरित्र हनन और ब्लैकमेलिंग के एक न ख़त्म होने वाले सिलसिले में फँस जाती हैं.
यह समस्या भारत जैसे समाज में और ज़्यादा पेचीदा हो जाती है, जहाँ वास्तविक और डिजिटल जीवन में एक गहरी खाई है. एक बंद सामाजिक ढाँचे में जहाँ औरत के सार्वजनिक किरदार पर "लोग क्या कहेंगे" की तलवार लटकी रहती है, वहीं सोशल मीडिया उसे अभिव्यक्ति की असीमित आज़ादी देता है.
यह विरोधाभास एक खतरनाक स्थिति पैदा करता है. जो अभिव्यक्ति उसे ऑनलाइन दुनिया में सशक्त बनाती है, वही उसकी वास्तविक जीवन में उसके "चरित्र" पर सवालिया निशान बन जाती है.
"परिवार की इज़्ज़त" की पारंपरिक अवधारणा डिजिटल स्पेस में एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल होती है, जहाँ औरत की एक तस्वीर या एक स्टेटस अपडेट को उसके पूरे परिवार की साख से जोड़ दिया जाता है. इस तरह वह घर की दहलीज़ और डिजिटल ब्रह्मांड, दोनों मोर्चों पर एक साथ लड़ने को मजबूर है.
हालाँकि, इस अंधेरी तस्वीर का एक रोशन पहलू भी है जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. यही सोशल मीडिया लाखों महिलाओं के लिए आर्थिक स्वतंत्रता और सामाजिक प्रगति की सीढ़ी भी बना है.
वह हुनरमंद महिला जो राजस्थान के किसी गाँव में दस्तकारी का काम करती थी, आज इंस्टाग्राम की बदौलत दुनिया भर से ऑर्डर हासिल कर रही है. वह पढ़ी-लिखी लड़की जिसे एक छोटे शहर से बाहर निकलकर काम करने की अनुमति नहीं थी, आज ऑनलाइन ट्यूशन और फ्रीलांसिंग के ज़रिए अपने परिवार का सहारा है.
सोशल मीडिया ने महिलाओं को वह आवाज़ और पहुँच दी है जो पारंपरिक मीडिया और समाज ने उनसे अक्सर छीन रखी थी. लैंगिक हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठानी हो या स्थानीय स्तर पर अधिकारों का अभियान चलाना हो, सोशल मीडिया ने सामूहिक चेतना की जागृति में एक अविस्मरणीय भूमिका निभाई है.
इस पेचीदा समस्या का हल टेक्नोलॉजी पर प्रतिबंध लगाने या औरत को डिजिटल दुनिया से बेदख़ल करने में नहीं, बल्कि एक व्यापक और बहु-आयामी रणनीति में निहित है.पहला क़दम, परिवार और शैक्षणिक संस्थानों के स्तर पर "डिजिटल विवेक" (Digital Wisdom) को बढ़ावा देना है.
हमें अपने बच्चों को महज़ ऐप्स इस्तेमाल करना नहीं, बल्कि उनके मनोवैज्ञानिक प्रभावों को समझना और ऑनलाइन दुनिया में अपनी भावनात्मक और मानसिक सुरक्षा करना सिखाना है. उन्हें बताना होगा कि उनकी क़द्र का निर्धारण फॉलोअर्स की संख्या नहीं, बल्कि उनका चरित्र, ज्ञान और हुनर करता है.
दूसरे स्तर पर, टेक्नोलॉजी कंपनियों को अपनी नैतिक ज़िम्मेदारी स्वीकार करते हुए "डिज़ाइन द्वारा नैतिक" (Ethical by Design) के सिद्धांत अपनाने होंगे. उन्हें ऐसे एल्गोरिदम बनाने होंगे जो सनसनीखेज़ और उत्तेजना के बजाय सकारात्मक और स्वस्थ सामग्री को बढ़ावा दें..
यूज़र्स की गोपनीयता की सुरक्षा और उत्पीड़न की शिकायतों पर तुरंत और पारदर्शी कार्रवाई उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए.तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण स्तर राज्य का है. सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम (IT Act) और इंडियन पीनल कोड की विभिन्न धाराओं के तहत क़ानून मौजूद हैं.
लेकिन इन पर धीमा अमल और पीड़ितों के लिए न्याय का पेचीदा तंत्र अपराधियों के हौसले बुलंद करता है. क़ानूनों पर प्रभावी अमल के साथ-साथ पीड़ितों के लिए तत्काल मनोवैज्ञानिक और क़ानूनी सहायता प्रदान करने वाले केंद्रों की स्थापना समय की सबसे महत्वपूर्ण ज़रूरत है.
आख़िरकार, एक समाज के तौर पर हमें अपनी सोच को बदलना होगा. लज्जा (हया) की अवधारणा महज़ पहनावे या बाहरी रूप तक सीमित नहीं की जा सकती. वास्तविक लज्जा सोच की पवित्रता, लहजे की गरिमा, कर्म की पारदर्शिता और दूसरों के आत्म-सम्मान का ख़्याल रखने में निहित है. हमें एक ऐसा माहौल बनाना होगा जहाँ औरत को उसके डिजिटल फ़ुटप्रिंट से नहीं, बल्कि उसकी योग्यता और मानवता से परखा जाए.
सोशल मीडिया एक समुद्र की तरह है; हम अपने बच्चों को इसमें उतरने से रोक नहीं सकते, लेकिन उन्हें गरिमा और सुरक्षा के साथ तैरना ज़रूर सिखा सकते हैं. यह महज़ टेक्नोलॉजी का संकट नहीं, बल्कि हमारी क़ीमतों (मूल्यों) की परीक्षा है.
चुनाव हमारे हाथ में है: क्या हम इस शक्तिशाली उपकरण को अपनी बेटियों के पंख काटने के लिए इस्तेमाल होने देंगे, या इसे उनके लिए एक नए आसमान की विस्तृति प्रदान करने का माध्यम बनाएँगे?
(अस्मा ज़बीन,असिस्टेंट प्रोफेसर, उर्दू विभाग, यशवंत राव चव्हाण आर्ट्स एंड साइंस महाविद्यालय मंगरुल पीर, ज़िला वाशिम, महाराष्ट्र)