कोविड: सख्ती के खिलाफ सड़कों पर आते लोग

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] • 2 Years ago
कोविड: सख्ती के खिलाफ सड़कों पर आते लोग
कोविड: सख्ती के खिलाफ सड़कों पर आते लोग

 

हरजिंदर

कुछ हफ्ते पहले मध्य प्रदेश का एक वीडियो अचानक ही पूरे देश में चर्चा का विषय बन गया था. इसमें पुलिस एक लड़के को सिर्फ इसलिए बुरी तरह पीट रही थी कि वह बाजार में बिना मास्क लगाए घूम रहा था. इसकी काफी आलोचना भी हुई और कईं यह कहने वाले भी थे कि जो लोग कोविड प्रोटोकॉल का पालन नहीं कर रहे उनके साथ सख्ती तो बरती ही जानी चाहिए.
 
उस बहस की याद इस इतवार को फिर ताजा हो गई जब फ्रांस की सड़कों पर एक लाख से ज्यादा लोग प्रदर्शन के लिए निकल पड़े. कोरोना वायरस के डेल्टा वर्जन का खतरा बढ़ने के बाद वहां की सरकार सख्ती और पाबंदियों में इजाफा करने जा रही है, ये लोग उसी का विरोध कर रहे थे.
 
हालांकि इस प्रदर्शन में वे संगठन भी काफी सक्रिय दिखाई दिए जो वैक्सीन विरोधी हैं और इसी वजह से सरकार ने वैक्सीन विरोधियों का प्रदर्शन भी कहा लेकिन सच यही था कि ज्यादातर लोग नई पाबंदियों के विरोधी थे. आम लोगों के अलावा इन नई पाबंदियों का विरोध तकरीबन सभी राजनीतिक दल भी कर रहे हैं.
 
वे सब यही चाहते हैं कि महामारी को किसी तरह रोका जाए लेकिन वे ये भी चाहते हैं कि सख्ती न बढ़ाई जाए.इसी के साथ यह भी पूछा जाने लगा है कि अगर प्रशासनिक सख्ती न बढ़ाई जाए तो फिर महामारी को कैसे रोका जाए? सरकार के पास प्रशासन के अलावा किसी नीति को लागू करने का कोई दूसरा औजार होता भी कहां है ?
 
इस सवाल का एक जवाब हम देश के इतिहास में ढूंढ सकते हैं. 19वीं सदी के अंत में जब देश में प्लेग की महामारी फैली थी तो अलग-अलग जगह उससे अलग तरीके से निपटा गया. इसी के दो उदाहरण जो इस बहस के दोनों पक्षों को सामने रखते हैं.
 
पहला उदाहरण पुणे का है. मुंबई के बाद प्लेग का सबसे ज्यादा संक्रमण पुणे में ही फैला था. हालात जब खराब होने लगे तो वाल्टर चाल्र्स रैंड को वहां प्लेग कश्निर बनाया गया जिन्होंने बिगड़ते हालात से निपटने के लिए सेना को बुला लिया.
 
सेना की टीमों ने हर इलाके में घर-घर जाकर सैनेटाईजेशन अभियान चलाना शुरू कर दिया. इसके लिए लोगों के घर का सारा सामान निकालकर बाहर फेंक दिया जाता. इसके साथ ही ये खबरें भी आनी शुरू हुईं कि सेना के लोग घर में रखे धर्मग्रंथ भी बाहर फेंक देते हैं और भगवान की मूर्तियां भी.
 
इसके अलावा लोगों को प्लेग है या नहीं यह जांचने के लिए उन्हें घर से बाहर निकाला जाता और कपड़े उतार कर उनकी जांच की जाती। यहां तक कि महिलाओं की भी इसी तरह जांच की जा रही थी.इसे लेकर लोगों का गुस्सा भड़क उठा.
 
केसरी अखबार के संपादक बाल गंगाधर तिलक ने अपने एक संपादकीय में लिखा, ‘शहर में इन दिनों हम जो मानव अत्याचार देख रहे हैं उसके मुकाबले प्लेग की महामारी तो काफी दयालु दिखाई देती है.‘ इसी गुस्से का नतीजा था कि पुणे के एक वकील दामोदर हरि चापेकर ने अपने तीन भाईयों के साथ मिलकर 22 जून 1897 को वाल्टर चाल्र्स रैंड की हत्या कर दी.
 
लेकिन इस मामले का दूसरा सच यह है कि तमाम सख्ती के बाद भी प्लेग की विभीषिका को पुणे में रोका नहीं जा सका.दूसरा उदाहरण कोलकाता का है। वहां जब प्लेग पहुंचा तो स्वामी विवेकानंद अपनी शिष्या सिस्टर निवेदिता के साथ आगे आए.
 
उन्होंने शहर के तमाम सामाजिक और धार्मिक संगठनों को इकट्ठा किया। इन सबने मिलकर न सिर्फ जगह-जगह जाकर सफाई अभियान चलाए बल्कि लोगों को प्लेग के प्रति जागरूक भी किया और मरीजों की सेवा भी की. वे सब लोगों के बीच जाकर उन्हीं की भाषा में बात कर रहे थे और सबसे बड़ी बात यह है कि उनकी संवेदनाओं को समझ रहे थे. इसका असर भी हुआ. देश के दूसरे बड़े शहरों के मुकाबले प्लेग कोलकाता में सबसे कम नुकसान पहंुचा सका. आंकड़े बताते हैं कि मरने वालों की संख्या भी कोलकाता में काफी कम रही.
 
आज जब दुनिया कोरोना वायरस महामारी के खिलाफ लड़ाई लड़ रही है तो पुणे और कोलकाता के ये दो उदाहरण उसे राह दिखा सकते हैं. भारत को ही नहीं फ्रांस को भी और बाकी दुनिया को भी.
इस महामारी के खिलाफ लड़ाई समाज के स्तर पर लड़ी जानी है और किसी समाज को पुलिस व सेना के हवाले नहीं किया जा सकता.
 
अच्छा तरीका यह है कि इसके लिए सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक संगठनों को सक्रिय किया जाए. जो जागरुकता फैलाएं और पूरा समाज इस लड़ाई को खुद ही लड़े. ताकि फिर किसी को पुलिस के डंडे से मास्क पहनने की मजबूरी देने की नौबत न आए.