जाति जनगणना के बाद की चुनौतियां

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 05-05-2025
Challenges after caste census
Challenges after caste census

 

har- हरजिंदर

बहुत सी बाते अभी स्पष्ट नहीं हैं. हमें नहीं पता कि जिसे जाति जनगणना कहा जा रहा है वह कब होगी? कब शुरू होगी और कब खत्म होगी? उसका कितना बजट होगा और कितने लोग इस काम में लगाए जाएंगे? सबसे बड़ी बात है कि इस काम को कैसे किया जाएगा?

हाल-फिलहाल में तीन राज्यों में जाति सर्वे हुआ है जिसे बोलचाल की भाषा में जाति जनगणना ही कहा जाता है. इनमें दो राज्यों बिहार और तेलंगाना की चर्चा सबसे ज्यादा हो रही है. इन्हें बिहार माॅडल और तेलंगाना माॅडल कहा जा रहा है.

बिहार में सीधे-सीधे जाति सर्वेक्षण हुआ. यह पता लगाया गया कि किस जाति के कितने लोग हैं. इससे जो आंकड़ें मिले वे काफी महत्वपूर्ण हैं. उन्हें कैसे उपयोगी बनाया जाएगा यह अभी बहुत स्पष्ट नहीं है. 

जबकि तेलंगाना में सिर्फ जातियों को गिना ही नहीं गया, यह पता लगाने की कोशिश भी हुई कि किस जाति की आर्थिक हैसियत क्या है. किस के पास कितनी जमीन है, उनके घर कैसे हैं, उनकी माली हालत क्या है और उनका भूगोल क्या है ?

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सलिए इस सर्वे को सामाजिक अर्थिक जाति सर्वे कहा गया. बेशक इसकी उपयोगिता सिर्फ जातियों की संख्या गिनने वाले सर्वे से कहीं ज्यादा है.  जाहिर है कि हमें नहीं पता कि जिस जाति जनगणना का फैसला केंद्रीय मंत्रिमंडल ने किया है वह किस तरह की जनगणना होगी?

सवाल यह भी है कि इस जनगणना में मुस्लिम आबादी केा किस तरह से गिना जाएगा? और यह भी कि मुस्लिम संगठन इसे लेकर क्या रवैया अपनाते हैं. कुछ मुस्लिम संगठन यह चाहते रहे हैं कि मुसलमान जाति के काॅलम में सिर्फ मुस्लिम ही लिखवाएं कोई जाति नहीं है.

उनका तर्क साफ है कि मुस्लिम धर्म में जाति की कोई अवधारणा नहीं है और इसमें उस तरह की ऊंच और नीच नहीं है.बिहार में जब जाति सर्वे हुआ तो उसमें हमने देखा कि इस तरह की अपील का कोई ज्यादा फायदा नहीं हुआ. सर्वे में प्रदेश के ज्यादातर मुसलमानों ने अपनी जाति का उल्लेख किया.

शायद इसकी कारण यह भी है कि बिहार के समाज में जाति हर तरह से एक स्पष्ट भूमिका निभाती दिखती है और यहां के मुस्लिम भी इसके असर से बचे नहीं हैं.और शायद एक कारण यह भी हो सकता है कि बिहार के बहुसंख्यक मुसलमान आर्थिक तौर पर काफी पिछड़े हैं और पिछड़े लोग अपनी पहचान केा अलग तरह से देखते हैं.

हालांकि कर्नाटक में जब जाति सर्वे हुआ तो ऐसे संगठनों की कोशिश काफी हद तक रंग लाती दिखी. वहां 77 फीसदी से ज्यादा लोगों ने जाति वाले काॅलम में सिर्फ मुस्लिम लिखवाया.क्या इस बार भी अलग-अलग राज्यों में लोगों का व्यवहार अलग-अलग होगा.

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सचमुच ऐसा होता है तो जाति जनगणना कितनी अर्थपूर्ण रहेगी?सर्वे के नतीजे सार्वजनिक होने के बाद जो पिछड़े हैं उन सभी को आरक्षण के दायरे में लाने का दबाव बनेगा.ऐसा हुआ तो पसमांदा मुसलमानों के लिए आरक्षण की मांग का मामला सरकार को परेशान करेगा. 

अभी जो राजनीतिक गंठजोड़ सत्ता में है वह मुसलमानों को किसी भी तरह का आरक्षण दिए जाने बहुत ज्यादा विरोध करता रहा है.

लेकिन जाति जनगणना के नतीजों का दबाव इस हकीकत को बदल सकता है.जाति जनगणना कराने का फैसला आसान नहीं था लेकिन इसके बाद की चुनौतियां और भी कठिन होने वाली हैं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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