बिहार चुनाव और नई सरकार में पसमांदा भागेदारी

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 13-11-2025
Bihar elections and Pasmanda participation in the new government
Bihar elections and Pasmanda participation in the new government

 

डॉ  फैयाज अहमद फैजी 

बिहार विधानसभा चुनाव संपन्न हो चुके हैं। 14 नवंबर को परिणाम घोषित होते ही राज्य में सरकार गठन को लेकर राजनीतिक हलचल तेज हो जाएगी। इस बार के चुनाव में पसमांदा समाज की भागेदारी का प्रश्न भी विमर्श के केंद्र में रहा। पसमांदा समाज के ST वर्ग से आने वाले सैफ अली खान का चुनाव लड़ना पसमांदा आंदोलन के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ माना जा रहा है, वहीं पसमांदा समाज के क्यामुद्दीन अंसारी, इशरत परवीन एवं अनवारूल हक की संभावित विजेता के रूप में भी चर्चा रही। महागठबंधन हो या एनडीए दोनों को सरकार गठन में यह सुनिश्चित करना होगा कि वंचित समुदायों का प्रतिनिधित्व न्यायसंगत रूप से हो, चाहे वे किसी भी धर्म या वर्ग से आते हों।

दलित और पिछड़े हिंदू समुदायों के लिए प्रतिनिधित्व की व्यवस्था सरकारी नीति में लंबे समय से मौजूद है, लेकिन पसमांदा मुस्लिम समाज का मामला अक्सर राजनीतिक विमर्श से बाहर ही रहा है। स्वतंत्रता के बाद भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने समावेशी शासन का एक मॉडल प्रस्तुत किया था, जिसमें विविध सामाजिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि के नेताओं को कैबिनेट में शामिल किया गया।

यह समावेशी मॉडल आज भी हमारे लोकतंत्र के लिए एक महत्वपूर्ण मानक है। वर्तमान में वंचित समाज के राजनैतिक भागेदारी को समझने के लिए 1946 के चुनाव और उसके बाद सरकार गठन का संदर्भ अत्यंत महत्वपूर्ण है।

उस समय सरदार पटेल के आग्रह पर और मौलाना आज़ाद के विरोध के बावजूद वंचित पसमांदा समाज से आने वाले मोमिन कॉन्फ्रेंस के दो नेताओं, अब्दुल क़य्यूम अंसारी और नूर मोहम्मद, को सरकार में शामिल किया गया।

इसी कैबिनेट में अशराफ वर्ग के सैयद महमूद को कांग्रेस कोटे से मंत्री बनाया गया था। पसमांदा नेताओं को सरकार में शामिल करने का परिणाम भी सरकार की नीतियों मे स्पष्ट रूप से परिलक्षित हुआ जब सरकार ने पस्मान्दा समाज के उत्थान के लिए 200,000 रुपये की राशि निर्धारित की और पस्मान्दा शिक्षा के लिए पूरे प्रांत में 500 स्कूल स्थापित किए।

सरकार ने पटना में पस्मान्दा छात्रों के लिए 60,000 रुपये की लागत से एक अलग छात्रावास बनाने का निर्णय लिया। स्कूलों में उनके लिए तीन, पाँच और सात रुपये प्रति माह मूल्य की सात सौ छात्रवृत्तियाँ शुरू की गईं, और कॉलेजों में नामांकित छात्रों के लिए 15, 20 और 25 रुपये प्रति माह मूल्य की 80 छात्रवृत्तियाँ और अरबी भाषा के ल छात्रों के लिए 15 छात्रवृत्तियाँ। पस्मान्दा  द्वारा संचालित पुस्तकालयों के लिए छह हजार रुपये और पस्मान्दा द्वारा संचालित स्कूलों और मदरसों के लिए 12,000 रुपये अनुदान सहायता के रूप में निर्धारित किए गए।

ये कदम यह सिद्ध करते हैं कि जब सत्ता-संरचना में वंचित समुदायों को वास्तविक भागीदारी मिलती है, तो नीतिगत परिणाम अधिक न्यायपूर्ण, सटीक और प्रभावी रूप में दिखते हैं। बिहार के 1946 के दंगों के दौरान जब स्थिति प्रशासन के नियंत्रण से बाहर होने लगी, तब सरदार पटेल ने बिहार के मुख्यमंत्री श्री कृष्ण सिन्हा को एक महत्वपूर्ण सलाह देते हुए लिखा कि सैयद महमूद को दरकिनार कर संपूर्ण राहत और पुनर्वास कार्यक्रम को सरकार के प्रत्यक्ष नियंत्रण में लेना के लिए यह जिम्मेदारी अब्दुल क़ैयूम अंसारी को सौंपी जाए, क्योंकि वे मुस्लिम शरणार्थियों को ‘मुस्लिम लीग के प्रभाव और नियंत्रण’ से अलग कर वास्तविक पुनर्वास प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में अधिक सक्षम हैं।

अपने पत्र में पटेल ने यह भी लिखा कि “इस मामले में सैयद महमूद बाधा उत्पन्न कर सकते हैं, किंतु आपको उन्हें नकारना ही होगा।” ग़ौर तलब हैं कि सैयद महमूद कांग्रेस सरकार में मंत्री होते हुए भी दंगों, प्रशासनिक कार्रवाइयों और तलाशी अभियानों पर स्वयं की सरकार की आलोचना से न केवल सरकार की विश्वसनीयता को कमजोर कर रहे थे, बल्कि उनके अपने मंत्री पद की नैतिक बाध्यताओं पर भी प्रश्न खड़े कर रहें थे।

हालांकि, एस. के. सिन्हा ने 1946 के दंगों में कांग्रेस की संलिप्तता को लेकर मुस्लिम लीग द्वारा लाए गए अविश्वास प्रस्ताव के विरुद्ध अपनी सरकार का बचाव करते हुए कहा था कि कृपया यह न सोचें कि मुझमें मुस्लिम समुदाय या उनके धर्म और संस्कृति के प्रति सद्भावना की कमी है।

1946 की यह पूरी प्रक्रिया यह प्रमाणित करती है कि जब वंचित समुदाय विशेषकर देशज पसमांदा को राज्य सरकार में सम्मानजनक भागीदारी मिलती है, तो वे न केवल अपने दायित्वों का ईमानदारी से निर्वहन करते हैं, बल्कि राजनीतिक स्थिरता और परस्पर सामाजिक विश्वास को बहाल करने।में  महत्वपूर्ण भूमिका भी निभातें हैं।
सरदार पटेल की यह दूरदर्शिता और पसमांदा नेताओं की प्रशासनिक दक्षता, दोनों मिलकर यह दिखाती हैं कि संकट के दौर में पसमांदा समाज ने राष्ट्र और राज्य दोनों के प्रति अद्वितीय निष्ठा दिखाई।

आगामी बिहार सरकार के गठन में यह ऐतिहासिक सीख उपयोगी है। सत्ता-संरचना में पसमांदा समुदाय को न्यायपूर्ण प्रतिनिधित्व देना सिर्फ़ उनकी आकांक्षाओं की पूर्ति का साधन नहीं है, बल्कि सामाजिक न्याय और लोकतांत्रिक स्थिरता के संवैधानिक आदर्शों को मजबूत करने का मार्ग भी है। यह कदम नैतिक दायित्व भर नहीं, बल्कि लोकतंत्र की मूल भावना समानता, सहभागिता और सामाजिक विश्वास का वास्तविक सम्मान होगा।

(लेखक पेशे से चिकित्सक, स्तंभकार और पसमांदा विचारक हैं)