भारत का सम्मिलित अतीत आज के समय में और भी महत्वपूर्ण

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 12-11-2025
India's shared past is even more important in today's times.
India's shared past is even more important in today's times.

 

उज़्मा खातून

जब इतिहास को विभाजन के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, तब भारत के साझा अतीत को याद रखना जरूरी होता है। असली कहानी "भिन्नता और संघर्ष" नहीं बल्कि गहरी “गंगा-जमुनी तहज़ीब” है। जो कहानी केवल संघर्ष पर जोर देती है और हिंदू-मुस्लिम को विरोधी समूह मानती है, वह इतिहास को विकृत तरीके से पेश करती है और इसे चुनौती देना जरूरी है।

यह विश्लेषण उन विद्वानों जैसे तारा चंद के विचारों पर आधारित है। उनकी प्रसिद्ध पुस्तक Influence of Islam on Indian Culture में उन्होंने भारत में "समेकित संस्कृति" (Composite Culture) की बात की, जिसमें "अवशोषण और मिश्रण" (assimilation and synthesis) की सच्ची कहानी दिखाई जाती है।

इस्लाम के 'तौहीद' (एकेश्वरवाद) और शंकर के 'अद्वैत वेदांत' के बीच तुलना अक्सर की जाती है, लेकिन यह फिलॉसॉफिकल रूप से सही नहीं है। तौहीद में ईश्वर सृजन से अलग और सर्वोपरि माना जाता है (द्वैत), जबकि अद्वैत में ब्रह्म और आत्मा में कोई भेद नहीं माना जाता। इसलिए 8वीं सदी के शंकर पर इसका प्रभाव बहुत कमजोर ऐतिहासिक दावा है।

अरब व्यापारियों का मलबार तट पर आना मुख्यतः व्यापार के लिए था। इस्लामिक बौद्धिक प्रभाव 10वीं सदी के बाद ही स्थिर रूप से दिखता है। असली संवाद बाद के सदियों में हुआ, जब इब्न अरबी के 'वह्दत-उल-वजूद' और अद्वैत वेदांत में गहरा मेल देखा गया।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी यह एक द्विमुखी प्रभाव था। पहले, भारत से बगदाद (8वीं-9वीं सदी) – इस्लामी स्वर्ण युग में भारतीय ज्ञान का बड़ा योगदान था। ब्रह्मगुप्त की संस्कृत रचनाओं का अनुवाद हुआ, शून्य और भारतीय अंकों का परिचय इस्लामी दुनिया में हुआ। अल-ख्वारिज़्मी का 'बीजगणित' इसी पर आधारित था। फिर, 12वीं सदी के बाद, ग्रीक, फारसी और भारतीय ज्ञान भारत लौटकर मिला, जैसे 'यूनानी चिकित्सा', जिसे आयुर्वेद के साथ मिलाकर इंडो-यूनानी चिकित्सा परंपरा बनी।

इस्लामी शिक्षाओं ने "सभी मनुष्यों की समानता" का संदेश दिया, जिससे जातिव्यवस्था को चुनौती मिली। मुस्लिम शासन मुख्य रूप से शहरों तक सीमित था; दिल्ली और आगरा जैसे शहर पर्शियन संस्कृतियों से प्रभावित हुए, जबकि ग्रामीण भारत में जातिव्यवस्था और जीवनशैली काफी हद तक जस का तस रही। इस्लाम मुख्यतः सूफी प्रचार और स्वेच्छिक धर्मांतरण के माध्यम से फैला।

लेकिन सामाजिक ढांचा पूरी तरह नहीं बदला। भारतीय मुसलमानों में नए वर्ग बने – 'अशरफ़' (उच्च स्थिति, विदेशी वंश दावा करने वाले), 'अजलाफ़' (स्थानीय निम्न वर्ग), और 'अरज़ल' (अछूत वर्ग से धर्मांतरित)। यह पुराने समाज की जड़ें दिखाती हैं। सूफी दरगाह और भक्ति सत्संग इस मिश्रण का असली मंच थे। दोनों आंदोलनों ने प्रेम (भक्ति/इश्क), समानता और गुरु/पिर के मार्गदर्शन को महत्व दिया। चिश्ती सूफियों का लंगर सामाजिक समानता का उपकरण बन गया।

भाषा और संस्कृति में भी मिश्रण हुआ। 'खड़ी बोली' से 'हिंदुस्तानी' बनी, जिसमें फारसी और अरबी शब्द शामिल हुए। बाद में इसे राजनीतिक रूप से 'हिन्दी' (देवनागरी) और 'उर्दू' (पर्शो-अरबी) में बांटा गया, लेकिन बोली एक ही रही। पोशाक, खानपान (बिरयानी, शेरवानी), और संगीत (ग़ज़ल, क़व्वाली, तालबद्ध राग) भी मिश्रित हुए।

मुगल काल में प्रशासन और कानून भी प्रभावित हुए। मुगलों ने केंद्रीकृत प्रशासन और ज़ब्त प्रणाली लागू की, जिसे रजा तोदार मल ने भारतीय प्रथाओं के साथ जोड़ा। धर्म और कानून में लचीलापन रहा – आपराधिक मामलों में इस्लामी कानून, नागरिक मामलों में हिंदू कानून। ब्रिटिश काल में इसे 'एंग्लो-मुसलमान कानून' के रूप में कोडित किया गया, जो आज भी मुस्लिम व्यक्तिगत कानून की नींव है।

भारत में 'शुद्ध' हिंदू या 'शुद्ध' मुस्लिम संस्कृति का विचार मिथक है। यह गंगा-जमुनी तहज़ीब आज भी जीवित है। इतिहास में संघर्ष जरूर था, लेकिन इसे केवल संघर्ष के नजरिए से देखना गलत है। भारतीय संस्कृति हिंदू और मुस्लिम धागों से बनी है, जो भोजन, भाषा, संगीत और कानून में आज भी दिखाई देती है। यह एक लगातार चलती साझा संवाद है, जो आधुनिक भारत को परिभाषित करता है।

(डॉ. उज़मा खातून, पूर्व फैकल्टी, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी)