उर्दू का अस्तित्व और हमारी जिम्मेदारियां

Story by  मलिक असगर हाशमी | Published by  [email protected] | Date 24-01-2022
उर्दू का अस्तित्व और हमारी जिम्मेदारियां
उर्दू का अस्तित्व और हमारी जिम्मेदारियां

 

wasayप्रो. अख्तरुल वासे
 
उर्दू को लेकर परेशान करने वाली और दर्दनाक बातों के बीच कुछ अच्छी ‎‎खबरें भी मिलती रही हैं. उदाहरण के लिए कौमी काउंसिल बराए फरोग-ए-उर्दू जबान ‎‎(राष्ट्रीय उर्दू भाषा विकास परिषद) ने हाल में कोरोना महामारी और अन्य चिंताओं के ‎नकारात्मक प्रभावों के बावजूद, मालेगांव, महाराष्ट्र में नौ दिवसीय उर्दू पुस्तक मेले का ‎आयोजन किया.

कौमी काउंसिल बराए फरोग-ए-उर्दू जबान ( राष्ट्रीय उर्दू भाषा विकास ‎परिषद) के इतिहास में यह मेला इस वजह से असाधारण महत्व का रहा कि इसमें केवल ‎मालेगांव के ही नहीं, आसपास के इलाको से भी उर्दू के चाहने वाले बड़ी संख्या में ‎आए.
 
कौमी काउंसिल बराए फरोग-ए-उर्दू जबान ( राष्ट्रीय उर्दू भाषा विकास परिषद) के ‎‎युवा डायरेक्टर डॉ शेख अकील अहमद ने इस पर खुशी व्यक्त करते हुए बताया कि नौ ‎दिन के इस मेले में लगभग सवा करोड़ रूपये का कारोबार हुआ.
 
विशेष रूप से ‎महिलाओं ने जिस प्रकार दिलचस्पी दिखाई, खरीदारी की, वह बहुत स्वागत योग्य है.फारूक सैयद, संपादक, बाल पत्रिका, गुल-बूटे, जिन्होंने शुरू से ही उत्सव में भाग ‎लिया, ने इस बात पर अपनी असाधारण खुशी व्यक्त की कि बड़ी संख्या में बच्चे न केवल ‎मेले में आए,  अपनी रूचि के अनुसार किताबों की खरीदारी भी कर रहे थे.
 
‎मालेगांव में इस पुस्तक मेले का एक पक्ष निश्चित रूप से खेदजनक था कि विश्वविद्यालय, ‎कॉलेज और स्कूलों के पुस्तकालयों के लिए धन का आवंटन न होने के कारण शैक्षिक और ‎साहित्यिक पुस्तकों की खरीदारी उस प्रकार नहीं हो सकी जैसी होनी चाहिए थी.‎‏
 
‏‎बहरहाल, ‎उर्दू भाषा को बढ़ावा देने के लिए कौमी काउंसिल बराए फरोग-ए-उर्दू जबान (राष्ट्रीय उर्दू ‎भाषा विकास परिषद) के निदेशक, उनके सहयोगियों और मालेगांव के लोगों को बधाई.
 
जब ‎तक उर्दू के ऐसे प्रशंसक मौजूद हैं, विशेष रूप से महिलाएं और बच्चे, तब तक उर्दू के ‎भविष्य से निराश नहीं होना चाहिए. मालेगांव के लोगों को दबिस्तान-ए-दिल्ली और ‎दबिस्तान-ए-लखनऊ के लिए उर्दू के प्यार से सबक सीखना चाहिए.‎
 
जब हम कहते हैं कि दबिस्तान-ए-दिल्ली और दबिस्तान-ए-लखनऊ के लोगों को ‎उर्दू के बारे में मालेगांव के लोगों से सबक लेना चाहिए, तो कुछ लोग हमसे नाराज हो ‎जाते हैं.
 
शायद उन्हें पता नहीं कि जब हम ऐसा कहते हैं तो बहुत दुखे दिल से ‎कहते हैं, क्योंकि हम भी दिल्ली और लखनऊ के बीचो-बीच रहने वालों में से हैं. हमें भी ‎हमारे घर वालों ने पहले घर में ही मौलवी इस्माइल साहब की पांचों उर्दू रीडर पढ़वाईं, ‎तख्ती लिखना सिखवाया.
 
उसके बाद औपचारिक शिक्षा के लिए चौथी कक्षा में स्कूल में ‎भर्ती कराया. अब हमारे बच्चों की शिक्षा को लेकर उर्दू के प्रति हमारा जो रवैया है ‎वह किसी से छिपा नहीं है.
 
दिल्ली में तो थोड़ा बहुत उर्दू की शिक्षा का चलन स्कूलों ‎दिखता है, यूपी में तो स्थिति गंभीर है. उर्दू अखबारों का प्रकाशन कम ‎से कम होता जा रहा है. सड़कों को तो छोड़िएं, घरों के दरवाजों, दुकानों के बोर्डों पर भी ‎उर्दू नजर नहीं आती.
 
इससे भी ज्यादा कष्टदायक उर्दू वालों का यह रवैया है कि ‎कब्रिस्तानों में पट्टिकाएं भी उर्दू में नहीं बल्कि हिन्दी में नजर आती हैं. मेरी राय में ये ‎पट्टिकाएं कब्र में सो रहे हमारे प्रियजनों के नहीं बल्कि उर्दू जबान की हैं.
 
पहले हमारा ‎परिवार और हमारे बुजुर्ग हमें उर्दू की बच्चों की पत्रिकाएं या कहानी की किताबें ‎समय≤ पर किसी न किसी बहाने पुरस्कार या उपहार के रूप में देते थे. अ
 
ब ‎महंगे से महंगा उपहार दिया जाता है, पर इसमें किताब नहीं होती है. विशेष रूप से ‎उर्दू की कोई किताब नहीं होती. जब आप उर्दू वालों से पूछते हैं कि उर्दू से ये दूरी और ‎उदासीनता क्यों ?
 
तो वह तुरंत कहते हैं कि उर्दू का पेट (यानी रोजगार) से तो कोई ‎लेना-देना है नहीं. अब उन्हें कौन समझाए और कैसे बताए कि चार चीजों का रिश्ता पेट से ‎नहीं दिल से होना चाहिए.
 
एक मां, दूसरा धर्म, तीसरा देश और चौथी मातृभाषा. अगर घर ‎में फ्रिज रखने के लिए पर्याप्त जगह नहीं है, तो क्या हम जगह बनाने के लिए अपनी मां ‎को घर से बेदखल कर देंगे ?‎
 
उर्दू का यह दर्दनाक परिदृश्य उत्तर भारत तक ही सीमित है. बिहार के लोगों ने तो ‎उर्दू भाषा के लिए लड़ाई लड़ी और जगह बनाई. महाराष्ट्र में उर्दू बहुत अच्छी तरह ‎फल-फूल रही है. तेलंगाना, कर्नाटक और कुछ हद तक तमिलनाडु के कुछ जिलों में उर्दू ‎दिल्ली के उर्दू बाजार और लखनऊ के अमीनाबाद की तरह फल-फूल रही है.‎
 
‎यह भी कम दिलचस्प बात नहीं कि आज उर्दू जबान को आगे बढ़ाने वालों में ‎बड़ी संख्या उन लोगों की है जिनकी मातृभाषा उर्दू नहीं है. वर्तमान में उर्दू के सबसे बड़े ‎आलोचक और भाषाविद् प्रोफेसर गोपी चंद नारंग, जिनकी मातृभाषा सरायकी है. उर्दू को ‎कम्प्यूटर से जोड़ने वाले डॉ. हमीदुल्ला भट्ट की मातृभाषा कश्मीरी है.
 
उर्दू की दुनिया की ‎सबसे बड़ी वेबसाइट रेख्ता संजीव सराफ का कारनाम है, जिनकी मातृभाषा राजस्थानी या ‎हिंदी है. जशन-ए-बहार ट्रस्ट की संस्थापक कामना प्रसाद, जिनकी मातृभाषा उर्दू नहीं है, ‎ने उर्दू में मुशायरों की तहजीब को एक नया रंग और समरसता दी है.
 
इसी तरह, कुंवर ‎रंजीत चौहान जश्न-ए-अदब के संस्थापक और आयोजक हैं. उनकी भी मातृभाषा उर्दू ‎नहीं है, लेकिन कितनी अजीब बात है कि इन तमाम तथ्यों के बावजूद हमारा दावा है कि ‎उर्दू मुसलमानों की जबान है.
 
कुछ लोगों ने इस नारे का इस्तेमाल अपनी राजनीति और ‎स्वार्थ के लिए किया. हमने भी इस पर भरोसा कर लिया. यह भूल गए कि ‎भाषाओं का कोई धर्म नहीं होता. हर धर्म को भाषाओं की जरूरत होती है.‎
 
‎जारी...‎
 
‎लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया के प्रोफेसर एमेरिटस (इस्लामिक स्टडीज) हैं.‎