The challenge of gender equality in Indian society: Muslim personal law stagnates amid Hindu code reforms
आमना बेगम
भारत एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राष्ट्र है, जिसकी नींव समानता, न्याय और स्वतंत्रता के संवैधानिक मूल्यों पर टिकी है। इन आदर्शों को वास्तविकता में बदलने की यात्रा में लैंगिक समानता हमेशा केंद्र में रही है। यह न केवल महिलाओं को सशक्त करने का मुद्दा है, बल्कि पूरे समाज के न्यायपूर्ण और प्रगतिशील भविष्य का आधार भी है। इसी दिशा में आज़ादी के बाद देश ने कई साहसिक कदम उठाए, जिनमें हिंदू कोड बिल में सुधार सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है।
हिंदू कोड बिल, जिसे डॉ. बी. आर. आंबेडकर ने तैयार किया था, भारत में महिलाओं के अधिकारों को कानूनी मान्यता देने की दिशा में ऐतिहासिक प्रयास था। विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, गोद लेने और संपत्ति के अधिकारों से जुड़े कानूनों में सुधार करके हिंदू महिलाओं को वह स्थान देने की कोशिश की गई जो सदियों से उनसे छीन लिया गया था।
इन सुधारों का जमकर विरोध हुआ, लेकिन संविधान और संसद की इच्छा शक्ति के बल पर इन्हें लागू किया गया। परिणामस्वरूप हिंदू समाज में महिलाओं की स्थिति धीरे-धीरे सुदृढ़ होती गई और वे कानूनी रूप से अधिक सुरक्षित तथा समान अधिकारों की हकदार बनीं।
लेकिन इस समानता की यात्रा का दूसरा पहलू उतना संतुलित नहीं दिखता। मुस्लिम पर्सनल लॉ, जो मुसलमानों के निजी मामलों—जैसे विवाह, तलाक, भरण-पोषण, और उत्तराधिकार—को नियंत्रित करता है, दशकों से लगभग अपरिवर्तित बना हुआ है। धार्मिक स्वतंत्रता और अल्पसंख्यक अधिकारों के नाम पर इन कानूनों को छूने से अक्सर बचा गया है। इस स्थिति ने व्यक्तिगत कानूनों के भीतर मौजूद कई लैंगिक असमानताओं को जस का तस रहने दिया है।
आलोचकों का कहना है कि यह चयनात्मक सुधार भारत के संविधान की मूल भावना के विपरीत है, क्योंकि समानता धर्म के आधार पर सीमित नहीं हो सकती। यदि एक समुदाय की महिलाओं को न्याय और समान अधिकार कानून के माध्यम से दिए जा सकते हैं, तो दूसरे समुदाय की महिलाओं को उनसे वंचित रखना न केवल अनुचित है बल्कि संवैधानिक आदर्शों के विपरीत भी है।
हालांकि मुस्लिम समाज के भीतर भी सुधार की मांग लगातार उठती रही है। ट्रिपल तलाक की प्रथा पर रोक इसका एक बड़ा उदाहरण है, जिसने संकेत दिया कि परिवर्तन संभव है और समुदाय के भीतर भी आवाजें बदलाव को समर्थन देती हैं। फिर भी, व्यापक सुधारों की दिशा में अभी भी बहुत दूरी तय करनी है।
भारत का लोकतंत्र तब पूर्ण माना जाएगा जब समानता और न्याय सभी पर समान रूप से लागू होंगे—धर्म, जाति या किसी अन्य आधार पर भेदभाव किए बिना। व्यक्तिगत कानूनों का उद्देश्य समुदायों की सांस्कृतिक पहचान की रक्षा करना है, लेकिन यह सुरक्षा महिलाओं के अधिकारों और मानव गरिमा की कीमत पर नहीं हो सकती।
लैंगिक समानता केवल एक संवैधानिक वादा नहीं, बल्कि एक नैतिक दायित्व है। समय आ गया है कि भारत सभी समुदायों की महिलाओं के लिए समान न्याय सुनिश्चित करे और संविधान की मूल भावना—न्याय, समानता और स्वतंत्रता—को पूर्ण रूप से साकार करे।
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