श्रीनगर. कश्मीर में तीन दशक से अधिक लंबी हिंसा के पीड़ितों की याद में और हिंसा, नस्लवाद व असहिष्णुता के अन्य रूपों से लड़ने के समुदाय के संकल्प की पुष्टि करने के लिए दुनियाभर में Kashmiri Pandits समुदाय बुधवार को 'प्रलय स्मरण दिवस' (Holocaust Day) मनाएगा. प्रवासी कश्मीरी पंडितों के संगठन 'सुलह, वापसी और प्रवासियों के पुनर्वास' (आरआरआरएम) के अध्यक्ष सतीश महलदार ने मंगलवार को एक बयान में कहा, "कश्मीरी पंडितों द्वारा पीड़ितों को श्रद्धांजलि देने और हिंसा, नस्लवाद व असहिष्णुता के अन्य रूपों का मुकाबला की प्रतिबद्धता की पुष्टि करने के लिए हर साल 19 जनवरी को होलोकॉस्ट डे मनाया जाता है. "
उन्होंने कहा, "होलोकॉस्ट डे' कश्मीरी पंडितों के लिए मायने रखता है, क्योंकि यह वर्तमान विश्व इतिहास में अत्याचार, घृणा, अमानवीयता और उदासीनता के सबसे बड़े उदाहरणों में से एक है. यह मायने रखता है, क्योंकि जब अल्पसंख्यकों का सफाया हो रहा था, तब दुनिया बस चुपचाप देखती रही."
महलदार ने कहा कि आज, कश्मीरी पंडित याद करते हैं कि कश्मीर के नागरिक और मूल आदिवासी और समुदाय बेहतर कर सकते हैं और करना चाहिए.
उन्होंने कहा, "प्रलय दिवस पर भारत के अंदर और बाहर सभी को विचार करना चाहिए और जांच करनी चाहिए कि उच्च संस्कृति, उच्च आधुनिकता और कथित तौर पर 'सभ्य' कश्मीरी जीवनशैली के स्थान पर क्या गलत हुआ. यह दिन विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, क्योंकि हम महसूस करते हैं कि दुर्भाग्य से यह एक अलग घटना नहीं थी."
महलदार ने बयान में कहा, "20वीं शताब्दी में एक लाख से अधिक निर्दोष कश्मीरियों की हत्या से लेकर कश्मीरी पंडितों का जातीय स्तर पर सफाया के लिए भयानक हिंसा हुई. कश्मीर में अल्पसंख्यकों के सफाए ने पूर्वाग्रह, भेदभाव, अमानवीयता, नस्लवाद और असहिष्णुताके अन्य रूपों के खतरों का प्रदर्शन किया."
उन्होंने कहा कि प्रलय दिवस अपराधियों के कुकृत्यों की याद दिलाता है. इससे न केवल नफरत और हिंसा कैसे जोर पकड़ती है, यह समझ में आता है, बल्कि स्थानीय, राष्ट्रीय और वैश्विक संदर्भो में प्रतिरोध, लचीलापन और एकजुटता की शक्ति के बारे में जागरूकता भी आती है.
महलदार ने कहा, "कश्मीर में अल्पसंख्यकों की जातीय सफाई आधुनिक नरसंहार का जवाब देने के लिए राष्ट्रीय समुदाय के प्रयासों पर प्रकाश डालती है. दुर्भाग्य से, भारत सरकार ने आज तक नरसंहार के अपराध की रोकथाम और दोषियों को सजा देने के लिए कुछ नहीं किया है."
उन्होंने कहा, "जम्मू-कश्मीर की पूर्व सरकारों ने मूल आदिवासियों को सांस्कृतिक रूप से आत्मसात करने की एक अनैच्छिक प्रक्रिया में शामिल होने को मजबूर किया, जिस कारण जातीय अल्पसंख्यक के पास भाषा, पहचान, मानदंड, रीति-रिवाजों, परंपराओं, धारणाओं, जीवन के तरीके, धर्म और बड़े समुदाय की विचारधारा को अपनाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है."
बयान में कहा गया है, "जातीय और सांस्कृतिक नरसंहार के अलावा, मुख्यधारा के राजनीतिक दल, राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दोनों, कश्मीरी पंडितों की 'नीति' के लिए समान रूप से जिम्मेदार हैं. 1965 के बाद से राज्य में मूल आदिवासियों और जातीय अल्पसंख्यकों को राजनीतिक सशक्तिकरण से जानबूझकर वंचित किया गया है."
महलदार ने बयान में आगे कहा कि 1990 से अब तक चार लाख से ज्यादा लोग वोट नहीं डाल पा रहे हैं, जो लोकतंत्र की बुनियादी नींव है.
उन्होंने कहा, "इन सबके आलोक में, जम्मू-कश्मीर सरकार और भारत संघ के लिए भारत के संविधान के प्रति जिम्मेदारी उठाना महत्वपूर्ण है. आदिवासियों की सुरक्षा हमारे देश के संविधान में निहित है. इसलिए, सरकार को चाहिए कि वह कश्मीरी पंडित समुदाय के लिए एक निश्चित बजट आवंटित करके उनकी रक्षा करे."
"सरकार को यह समझना चाहिए कि पांच लाख कश्मीरी पंडितों का सुलह, वापसी और पुनर्वास वार्षिक जम्मू-कश्मीर बजट का हिस्सा होना चाहिए."
महलदार ने बयान में कहा, "कश्मीरी पंडितों की वापसी और पुनर्वास को प्राथमिकता के रूप में लिया जाना चाहिए. परिसीमन प्रक्रिया का प्रयोग करते हुए, कश्मीर पंडितों के नामों को उनके वंचित लोकतांत्रिक अधिकारों को बहाल करने के लिए शामिल किया जाना चाहिए."