Iftekhar Khan: The fragrance of Hindu-Muslim unity spreads in the air of Bareilly
अर्सला खान /नई दिल्ली
बरेली के इफ्तेखार ख़ां आज हिंदू मुस्लिम एकता की एक बड़ी मिसाल बन गए हैं. दरअसल, इन्होंने एक मानवीय मिसाल पेश की है. भोलेनाथ की प्रतिमा से सजी उस बाइक को धक्का लगाना जो रास्ते में अटक गई थी—सोशल मीडिया पर इस कदर छा गया कि लोग इसे “यही है असली भारत” कहते हुए साझा करने लगे. वीडियो में दिखता है कि एक मुसलमान बुज़ुर्ग बिना किसी हिचकिचाहट के शिवभक्त की मदद के लिए आगे बढ़ते हैं.
यह दृश्य महज़ सड़क पर हुई एक सामान्य-सी सहायता नहीं, बल्कि उस गहरे सामाजिक-सांस्कृतिक प्रवाह की याद है, जिसे हम गंगा-जमुनी तहज़ीब कहते हैं—जहां धर्म अलग हो सकते हैं, मगर इंसानियत की राह साझा होती है.
इफ्तेखार ख़ां का यह कदम इसलिए और प्रतीकात्मक बन जाता है क्योंकि आज के समय में अक्सर हमें टकराव, अविश्वास और ध्रुवीकरण की खबरें ज़्यादा सुनाई देती हैं.
ऐसे माहौल में किसी दूसरे धर्म के प्रतीक के साथ खड़े होकर, उसकी गरिमा बनाए रखते हुए मदद करना, यह बताता है कि भारत की असल जमीन अभी भी आपसी भरोसे, मर्यादा और साझी विरासत पर टिकी है.
इस घटना ने लोगों को याद दिलाया कि संविधान ने जिस “हम भारत के लोग” की बात की है, वह किसी एक पहचान में सीमित नहीं, बल्कि विविधताओं के संग-साथ चलने की क्षमता में है.
सोशल मीडिया ने इस दृश्य को तेज़ी से देशभर तक पहुंचाया, और प्रतिक्रियाएं दिखाती हैं कि समाज के भीतर एक बड़ी संख्या ऐसे ही रोज़मर्रा के उदाहरणों में विश्वास रखती है.
कई लोगों ने इसे हिंदू-मुस्लिम एकता का जीवंत उदाहरण बताया, तो कुछ ने लिखा कि यही वह धरातल है जहां धार्मिकता और नैतिकता एक-दूसरे के पूरक बनकर सामने आती हैं. दिलचस्प यह है कि जिस “धक्के” ने एक रुकी हुई बाइक को आगे बढ़ाया, उसी ने प्रतीकात्मक तौर पर उन अविश्वासों को भी आगे धकेल दिया जो अक्सर दो समुदायों के बीच अनावश्यक दीवारें खड़ी कर देते हैं.
भारत जैसे बहुलतावादी समाज में सांप्रदायिक सद्भाव किसी सरकारी नारे या मंचीय सम्मेलन से नहीं, बल्कि ऐसे ही बारीक और आत्मीय क्षणों में आकार लेता है.
मुहर्रम के जुलूस में हिंदुओं द्वारा सबील लगाना, ईद पर मोहल्ले के गैर-मुस्लिम दोस्तों के घर सेवइयां पहुंचाना, होली पर मुस्लिम शायरों का रंगों की मोहब्बत पर कलाम पढ़ना—ये सभी उदाहरण बताते हैं कि एक-दूसरे की खुशियों और तकलीफों में शामिल होना हमारी सामाजिक संस्कृति का स्वाभाविक हिस्सा है.
इफ्तेखार ख़ां की मदद उसी परंपरा की ताज़ा कड़ी है, जो कहती है कि आस्था का सम्मान करने के लिए आस्था बदलनी नहीं पड़ती; बस दृष्टि का क्षितिज व्यापक होना चाहिए.
हिंदू-मुस्लिम एकता का अर्थ यह नहीं कि मतभेद या अलग पहचानें खत्म हो जाएं; इसका अर्थ है कि हम मतभेदों के बावजूद साथ रहने का सलीका सीखें, संवाद बनाए रखें, और दूसरे की आस्था के सम्मान को अपनी सभ्यता का हिस्सा समझें.
इफ्तेखार ख़ां ने बिना कुछ कहे यही पाठ पढ़ा दिया—कि इंसानियत का मूल्य किसी एक मज़हब के इख़्तियार में नहीं, बल्कि हर उस दिल में बसता है जो दूसरे की तकलीफ़ देखकर ठहर जाता है, सोचता है और मदद के लिए हाथ बढ़ाता है.