साकिब सलीम
जब मैंने पहली बार वर्जीनिया वूल्फ की 1928 में लिखी किताब "अ रूम ऑफ़ वन्स ओन" पढ़ी थी, तब उन्होंने यह सवाल उठाया था कि अगर शेक्सपियर की कोई बहन होती—उतनी ही प्रतिभाशाली, तो क्या वह भी एक महान लेखिका बन पाती ? उनका जवाब था—नहीं. क्योंकि समाज ने महिलाओं की प्रतिभा को पहचानने, उसे पनपने देने और मंच देने में हमेशा संकोच किया है.
आज, लगभग एक सदी बाद, जब सोशल मीडिया पर "सैयारा" जैसी फिल्म की चर्चा हो रही है, युवाओं की आंखों में आंसू हैं और वे इसे 'पुरानी रोमांटिक फिल्मों की वापसी' कहकर सराह रहे हैं, तब भी यह सवाल गूंजता है—क्या इस कहानी की कवियत्री को उसका हक़ मिला ?
'सैयारा' की कहानी और खोई हुई आवाज़
मोहित सूरी द्वारा निर्देशित इस फिल्म में अभिनेता अहान पांडे (कृष कपूर) और नवोदित अभिनेत्री अनीत पड्डा (वाणी बत्रा) मुख्य भूमिकाओं में हैं. फिल्म एक महत्वाकांक्षी गायक कृष और एक संवेदनशील हिंदी कवियत्री वाणी की कहानी है, जो शब्दों के ज़रिए जुड़ते हैं. वाणी, कृष के लिए गाने लिखती है. वह उसे बताती है कि अच्छा संगीत स्टूडियो से नहीं, दिल से निकलता है.
उस पल से जब कलाकार अपने जज़्बातों से जुड़ता है.फिर वही होता है, जो सदियों से होता आया है.कृष वाणी के लिखे गीत को एक मशहूर रैपर को बेच देता है.बिना उसकी इजाज़त के.
कारण ? उसे पैसों की ज़रूरत थी. गाना हिट हो जाता है, शो मिलने लगते हैं और वाणी की पहचान—एक लेखक के रूप में—अदृश्य हो जाती है. अंत में, वह एक और गीत, ‘सैयारा’ लिखकर कृष की झोली में डाल देती है, जो उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध कर देता है. लेकिन खुद वाणी? वह प्रेम के नाम पर चुपचाप दूर चली जाती है—बिना किसी श्रेय, मंच या पहचान के.
साहित्य और सिनेमा में महिलाओं की गुमनाम मौजूदगी
सिनेमा की यह कहानी नई नहीं है. किश्वर नाहिद जैसी नारीवादी उर्दू कवयित्री ने एक बार कहा था कि 20वीं सदी के मध्य तक भी किसी महिला कवि का अपने नाम से प्रकाशित होना एक क्रांतिकारी कदम माना जाता था. 1881 में रशीद उन-निसा ने उपन्यास तो लिखा, लेकिन अपने नाम से नहीं. निसार कुबरा जैसी कवयित्रियों की सैकड़ों कविताएं बिना छपे ही खो गईं.
सवाल है,आज जब महिलाएं हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं, तब भी क्या उनके रचनात्मक श्रम को उतना ही महत्व मिलता है, जितना पुरुषों को? सैयारा में तो जवाब साफ है—नहीं.
वाणी का प्रेम—लेकिन पहचान नहीं
फिल्म में वाणी की भूमिका सृजनकर्ता की है, लेकिन दर्शकों के लिए वह बस 'प्रेमिका' है. गीतों के बोल, उनकी आत्मा, उसकी कलम से निकले होते हैं. वह कभी मंच पर नहीं दिखती, कभी उसके नाम से वह गाना नहीं जुड़ता. कृष स्टार बन जाता है. उसकी तस्वीरें हर जगह लगती हैं, लेकिन वाणी की कलात्मकता को कभी सार्वजनिक रूप से मान्यता नहीं मिलती.
यह वही पुरानी कहानी है—एक महिला के प्यार, त्याग और रचनात्मकता की, जिसे समाज बिना श्रेय दिए 'प्रेरणा' कहकर भूल जाता है.
क्या बदलेगा यह सिलसिला?
सिनेमा में यह दिखाना कि एक महिला अपने प्रेमी के लिए निस्वार्थ गीत लिखती है, उसकी सफलता में चुपचाप सहायक बनती है, और बदले में किसी पहचान या श्रेय की मांग नहीं करती—यह एक खतरनाक रोमांटिक आदर्श गढ़ता है.
इससे एक पूरी पीढ़ी यह सीखती है कि महिलाओं की रचनात्मकता उनके निजी रिश्तों की बलि चढ़ाई जा सकती है, और वह चुप रहकर त्याग करें, तो वही 'सच्चा प्रेम' कहलाता है.
'लोग मुझे प्यार करेंगे, और मैं तुम्हें'—यह पर्याप्त नहीं है
फिल्म का नायक जब यह कहता है कि "लोग मुझे प्यार करेंगे और मैं तुम्हें", तो वह यह नहीं कहता कि "लोग हमें हमारे गीतों के लिए प्यार करेंगे." यह वाक्य एक पूरा विमर्श खोलता है—महिलाओं की रचनात्मक साझेदारी की अज्ञानता और उसे भुला देने की सांस्कृतिक प्रक्रिया का
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सैयारा—सिर्फ एक फिल्म नहीं, एक सवा
"सैयारा" एक प्रेम कहानी है—बेशक. लेकिन यह भी उतनी ही सच्चाई है कि यह एक महिला की अनदेखी रचनात्मकता की कहानी भी है. वह जो लिखती है, लेकिन उसका नाम कभी स्क्रीन पर नहीं आता. वह जो शब्दों से जादू रचती है, लेकिन जादूगर कहलाने का हक नहीं पाती.
आज जब हम फिल्मों के ज़रिए नई पीढ़ी को संवेदना, प्रेम और कला का पाठ पढ़ा रहे हैं, तो हमें यह भी सोचना चाहिए—क्या हम उन्हें यह भी सिखा रहे हैं कि श्रेय किसे देना है? क्या हम यह सवाल उठा रहे हैं कि क्या महिलाएं सिर्फ प्रेरणा होंगी, या रचनाकार भी मानी जाएंगी?
जब तक उस गाने की क्रेडिट लाइन में वाणी का नाम नहीं होता, सैयारा सिर्फ एक प्रेम कहानी नहीं, बल्कि एक चेतावनी है—कि हमारे समाज में प्रेम के नाम पर आज भी महिलाओं की रचनात्मकता का चुपचाप शोषण हो रहा है.