नई दिल्ली
भारत के सबसे प्रतिष्ठित और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित संगीतकारों में से एक, ऑस्कर विजेता ए.आर. रहमान ने हाल ही में एक साक्षात्कार में अपने करियर से जुड़ा एक दिलचस्प और भावनात्मक पहलू साझा किया। उन्होंने बताया कि हिंदी सीखना उनके लिए सिर्फ भाषा सीखने का नहीं, बल्कि आत्मसम्मान बचाने का भी सवाल था।
तमिलनाडु में पले-बढ़े रहमान की धुनों ने ‘रोजा’, ‘दिल से’, ‘ताल’ और ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ जैसी फिल्मों के ज़रिए भारतीय सिनेमा को नई ऊँचाइयों पर पहुँचाया। लेकिन शुरुआत में जब उनकी तमिल फिल्मों को हिंदी में डब किया जाता था, तो भाषा और गीतों की गुणवत्ता को लेकर उठते सवाल उन्हें भीतर तक चोट पहुँचाते थे।
एक इंटरव्यू में रहमान ने कहा,“जब मेरी फिल्में ‘रोजा’ और ‘दिल से’ चलीं, तो लोग तमिल गानों के हिंदी अनुवाद पर सवाल उठाने लगे। कई बार ऐसा कहा गया कि हिंदी वर्ज़न कमजोर है या बोल बेअर्थ हैं। यह मेरे लिए बहुत अपमानजनक अनुभव था।”
उन्होंने बताया कि उस समय डब फिल्मों को लेकर इंडस्ट्री में पैसे की होड़ मची रहती थी, और कंटेंट की बजाय कमाई को प्राथमिकता दी जाती थी। यही कारण था कि उन्होंने डब फिल्मों के बजाय सीधे हिंदी फिल्मों के लिए संगीत बनाना शुरू किया।
रहमान ने साफ तौर पर कहा,"मैंने अपमान से बचने और अपनी प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए हिंदी सीखी."
उन्होंने यह भी साझा किया कि 1994 से 1997 के बीच उन्होंने कुरान पढ़ते हुए थोड़ी अरबी सीखी, लेकिन इसके बाद उनका पूरा ध्यान हिंदी पर केंद्रित रहा। बॉलीवुड में आगे बढ़ने के लिए उन्हें समझ में आ गया था कि हिंदी सीखना अनिवार्य है।
“सुभाष घई से मिलने के बाद मुझे एहसास हुआ कि बॉलीवुड में बने रहने के लिए हिंदी और उर्दू सीखना ज़रूरी है,” रहमान ने बताया। उन्होंने स्वीकार किया कि पंजाबी भाषा को लेकर वह आज भी थोड़े कमजोर हैं।
रहमान का यह बयान न केवल उनके विनम्र स्वभाव और सीखने की ललक को दर्शाता है, बल्कि यह भी बताता है कि भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में भाषा कैसे एक बाधा बन सकती है — और कलाकार कैसे अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए उसे पार करते हैं।