नई दिल्ली
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT), गुवाहाटी के शोधकर्ताओं ने एक प्राकृतिक और पर्यावरण अनुकूल तरीका विकसित किया है, जो दूषित पानी से सीसा निकालने में सक्षम है। इस पद्धति में साइनोबैक्टीरिया का उपयोग किया गया है, जो बैक्टीरिया से संबंधित होते हुए प्रकाश संश्लेषण (Photosynthesis) करने में सक्षम सूक्ष्मजीव हैं।
शोधकर्ताओं के अनुसार यह तरीका टिकाऊ और कम लागत वाला समाधान प्रदान करता है, जो दुनिया भर में सबसे गंभीर पर्यावरणीय खतरे में से एक, यानी सीसा प्रदूषण, से निपटने में मदद कर सकता है। इस अध्ययन के निष्कर्ष प्रतिष्ठित Journal of Hazardous Materials में प्रकाशित किए गए हैं।
डॉ. देबाशीष दास, प्रोफेसर, विभाग ऑफ बायोसाइंस एंड बायोइंजीनियरिंग, ने बताया कि वैश्विक स्तर पर सीसा सबसे विषैला प्रदूषक है और 8 करोड़ से अधिक बच्चों को प्रभावित करता है, जिनमें लगभग 2.75 करोड़ बच्चे केवल भारत में हैं। यह सामान्यतः औद्योगिक अपशिष्ट, कृषि अपवाह और पुराने जल पाइपलाइन से पानी में प्रवेश करता है। एक बार पानी में सीसा प्रवेश कर जाने के बाद यह दशकों तक रहता है, जीवों में जमा होकर गंभीर न्यूरोलॉजिकल, हृदय, गुर्दा और विकास संबंधी समस्याएं उत्पन्न करता है।
परंपरागत तरीकों जैसे रासायनिक उपचार और सिंथेटिक एब्सॉर्बेंट महंगे होने के साथ-साथ अक्सर माध्यमिक प्रदूषक भी उत्पन्न करते हैं। इसी चुनौती का समाधान करते हुए IIT गुवाहाटी की टीम ने बायोरिमेडिएशन की तकनीक अपनाई, जिसमें प्राकृतिक रूप से मौजूद सूक्ष्मजीव दूषित पर्यावरण को साफ करते हैं।
शोध के दौरान पता चला कि साइनोबैक्टीरिया का एक्सोपॉलीसैकेराइड (EPS) घटक दूषित पानी से सबसे अधिक प्रभावी ढंग से सीसा निकाल सकता है, जिसकी दक्षता 92.5 प्रतिशत पाई गई।
डॉ. दास ने बताया कि यह बायोसॉर्बेंट न्यूनतम ऊर्जा की खपत करता है और बिना जटिल इन्फ्रास्ट्रक्चर के बड़े पैमाने पर लागू किया जा सकता है, जिससे यह व्यापक उपयोग के लिए सस्ता विकल्प बन जाता है। प्रारंभिक अनुमान के अनुसार, इस पद्धति से उपचार की लागत पारंपरिक तरीकों की तुलना में लगभग 40–60 प्रतिशत कम है, जबकि धातु हटाने की दक्षता समान या उससे बेहतर है।इस तकनीक की आर्थिक लाभप्रदता और पर्यावरण अनुकूल प्रकृति इसे उद्योगों और नगरपालिकाओं के लिए दूषित जल से निपटने का एक टिकाऊ और किफायती विकल्प बनाती है।