प्रो. अख्तरुल वासे
भारत के अंतिम मुगल बादशाह अबू जफर सिराजुद्दीन मुहम्मद बहादुर शाह गाजी थे, जिन्हें हम और आप बहादुर शाह जफर के नाम से जानते हैं. खत्तात (सुलेखक), प्रख्यात कवि और सूफी होने के साथ वह ऐसे व्यक्तित्व के धनी थे, जो हिंदुओं और मुसलमानों की एकता में विश्वास करते थे. वह अकबर महान के पदचिन्हों पर चलने वाले व्यक्तित्व थे और मुस्लिम भारतीय सभ्यता की सहिष्णुता और भारत की एकता की बहुलता में विश्वास करते थे. इसके प्रचार-प्रसार के लिए वे कड़ी मेहनत करते थे.
भारत के दो प्रमुख धर्मों के बीच सामंजस्य का कारण उनके अपने व्यक्तित्व का वह स्वभाव था, जो उनके पिता अकबर शाह सानी के मुसलमान और उनकी मां लाल बाई के हिंदू राजपूत होने के कारण बना था. यह बात कितनी भी सत्य क्यों न हो कि उनके पास वह साम्राज्य एवं प्रभुत्व नहीं था, जो उनके पूर्वजों विशेषकर अकबर, जहांगीर, शाहजहां और अन्य के पास था, लेकिन 1857 में स्वतंत्रता संग्राम के लिए जिस प्रकार उनके एक आह्वान पर धर्म एवं राष्ट्रीयता से ऊपर उठकर भारतीयों की एक बड़ी संख्या उठ खड़ी हुई, वह इस बात का प्रमाण है कि मुगल सरकार के पास वैभव एवं ऐश्वर्य ना होने के बावजूद वह भारतीयों के बीच कितने लोकप्रिय थे. किस प्रकार भारतीय अंतिम समय तक उन्हें अपना बादशाह मानते रहे. यह भी कम रोचक नहीं है कि बहादुर शाह जफर का साम्राज्य ‘अज दिल्ली ता पालम’ (दिल्ली से पालम तक) भी नहीं था, परन्तु जिस प्रकार से उनके नेतृत्व में भारतीय जन अंग्रेजों से लड़ने के लिए उठ खड़े हुए थे, वैसी लोकप्रियता समग्र वैभव एवं ऐश्वर्य होने के बाद भी उनके पूर्वजों के हिस्से में नहीं आई थी.
रानी लक्ष्मी बाई हों या तात्या टोपे, नानाजी पेशवा हों या मौलवी अहमदुल्ला, बख्त खां हों या मौलाना फजले हक खैराबादी, सभी उनके नाम पर एक हो गए. कुछ असंगठित सैन्य शक्ति, अत्यधिक भावुकता, संसाधनों की कमी, और सबसे बढ़कर, हमारे अपने लोगों के विश्वासघात और विघटनकारी साजिशों ने स्वतंत्रता के इस युद्ध को विफल कर दिया.
जिस अत्याचार एवं प्रताड़ना को बहादुर शाह जफर, उनके परिवार एवं रिश्तेदारों ने झेला था, वह प्रताड़ना एवं अत्याचार मुगल वंश में किसी और शासक तथा उनके परिवार ने सहन नहीं किया होगा. जब अंग्रेजों ने 82 वर्षीय बादशाह के सभी बच्चों का सिर काट दिया. उन्हें एक थाली में बूढ़े राजा के सामने पेश किया, तो बहादुर शाह जफर ने अपने बेटों के कटे हुए सिर पर हाथ रखकर दुआ करते हुए बड़े धैर्य और दृढ़ता से जिसमें तैमूरी तेवर भी था, जो प्रभावी एवं ऐतिहासिक वाक्य अंग्रेज अत्याचारियों और हत्यारों से कहा था, कहाः ‘‘तैमूर की औलाद ऐसी ही सुर्ख-रू (रोशन चेहरे वाला, तेजस्वी) होकर अपने बाप के सामने आती है.’’
लाल किला, जो कभी उनका निवास था. उनके उनके वंशजों की राजसी महानता का साक्षी भी, उसी लाल किले में अंग्रजों ने उन पर मुकदमा चलाया, जो 21 दिनों तक चला और उसमें अंग्रेजों ने बहादुर शाह जफर पर जो आरोप लगाए वह इस प्रकार थे कि ‘‘भारत में ब्रिटिश सरकार से पेंशन लेने के बावजूद भी उन्होंने (बहादुर शाह जफर ने) दिल्ली में विद्रोहियों की मदद की. विद्रोह शुरू किया.’’ दूसरा ‘‘भारतीय लोगों को जानबूझकर युद्ध और विद्रोह में धकेल दिया.’’ तीसरे ‘‘यूरोपीय लोगों का नरसंहार किया.’’ अंततः, 29 मार्च, 1858 को, उन्हें राष्ट्रीय अपराधी घोषित किया गया. उन्हें निर्वासित कर दिया गया और तत्कालीन बर्मा के शहर रंगून में लकड़ी के एक छोटे से घर में अपने रिश्तेदारों के साथ रहने के लिए मजबूर किया गया. यह एक प्रकार का कारावास ही था, लेकिन इस स्वाभिमानी और धर्मपरायण बादशाह ने अंग्रेजों के सामने झुककर उनसे कोई विशेष रियायत नहीं मांगी. आखिरकार 7 नवंबर, 1862 को 87 वर्ष की आयु में उनका देहान्त हो गया.
इस प्रकार तैमूरी वैभव एवं ऐश्वर्य, प्रतिष्ठा एवं महानता का आखिरी चिराग सदैव के लिए बुझ गया. उस समय का रंगून और अब का यांगून, में बहादुर शाह जफर की क्या मनःस्थिति थी और वह किस तरह के दर्द-ए-दिल से परेशान थे, इसका अंदाजा उनकी प्रसिद्ध गजल से लगाया जा सकता है, जिसमें वे कहते हैंः
लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में
किस की बनी है आलम-ए-ना-पाएदार में
इन हसरतों से कह दो कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहां है दिल-ए-दागदार में
कांटों को मत निकाल चमन से ओ बागबां
ये भी गुलों के साथ पले हैं बहार में
बुलबुल को बागबां से न सय्याद से गिला
किस्मत में कैद लिक्खी थी फस्ल-ए-बहार में
कितना है बद-नसीब ‘जफर’ दफ्न के लिए
दो गज जमीन भी न मिली कू-ए-यार में
बाबर से लेकर औरंगजेब तक राजशाही और सत्ता की चकाचौंध को लेकर अगर इतिहासकारों ने उन्हें विषय बनाया, तो कोई विशेष बात नहीं थी, क्योंकि उनकी महानता और शक्ति की प्रशंसा करना आश्चर्य की बात नहीं थी, लेकिन अभाव, दुर्भाग्य, सत्ता से बेदखल होने के बावजूद, परिवार के अधिकांश सदस्यों को दमनकारी अंग्रेजों ने मार डाला, स्वयं बहादुर शाह जफर पर मुकदमा चलाया गया. फिर उन्हें दोषी करार देकर रंगून (यांगून) निर्वासित कर दिया गया. वहीं की मिट्टी में उनकी मिट्टी कयामत तक के लिए समा गई. इन सबके बावजूद, बहादुर शाह जफर, जो हमारी उर्दू भाषा और साहित्य के सम्राट हैं, जिन्हें अंग्रेजों की तमाम भयावहता के बावजूद इस पद से अपदस्थ नहीं किया जा सका, उनकी शायरी के बारे में जितना भी लिखा, उर्दू वालों ने उन्हें जिस तरह याद किया, वह भी अपनी जगह है. लेकिन यह भी एक बड़ी सच्चाई है कि उनकी मृत्यु के 188 साल बाद भी उन्हें हिंदी या अंग्रेजी भाषाओं में किताबें लिखकर और स्मारक पत्रिकाओं का प्रकाशन करके याद रखा गया.
मुगल वंश में पूर्ण सत्ता की प्राप्ति ना होने के बाद भी केवल दो लोगों को ही यह प्रतिष्ठा प्राप्त है. एक दारा शिकोह और दूसरे बहादुर शाह जफर. एक को उसके भाई औरंगजेब ने मरवा दिया. दूसरे को अंग्रेजों ने जिंदा मार दिया. मगर वे अभी भी हमारे इतिहास, हमारी भाषा और हमारे दिलों में राज करते हैं.
24 अक्टूबर 1775 को दिल्ली में जन्मे अकबर शाह सानी और लाल बाई के बेटे बहादुर शाह जफर का आज 246वां जन्मदिन है. हम उनकी यादों को सलाम करते हैं. ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वह उन पर अपनी कृपा दृष्टि रखे और हमारे भारत में हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई और अन्य सभी धर्मों के अनुयायियों के बीच एक बार फिर समान धार्मिक सद्भाव और राष्ट्रीय एकता एवं एकजुटता का निर्माण करें, जो कभी इस देश ने बहादुर शाह जफर के नेतृत्व में देखा था.
(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया के प्रोफेसर एमेरिटस (इस्लामिक स्टडीज) हैं.)