उर्दू की पहली महिला उपन्यासकार की कहानी

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 20-09-2021
उर्दू की पहली महिला उपन्यासकार की कहानी
उर्दू की पहली महिला उपन्यासकार की कहानी

 

साकिब सलीम

"एक महिला के लिए लिखना और फिर उसे प्रकाशित करना अपने आप में एक क्रांतिकारी कदम था."

-किश्वर नाहीद

उर्दू उपन्यास लेखन का इतिहास शुरू से ही महिलाओं और उनके मुद्दों पर लिखे गए उपन्यासों की कहानी है. 1869 में प्रकाशित मौलवी नज़ीर अहमद की मिरात-उल-उरोस से शुरुआत और इसके सीक्वल बिनात-उन-नैश के साथ कई शुरुआती उपन्यास/कहानियां महिलाओं, उनकी शिक्षा और सामाजिक स्थिति के बारे में थीं.

महिलाओं के मुद्दों को लिखने और उनके शिक्षा के अधिकार के लिए अभियान चलाने के लिए मुस्लिम लेखकों के बीच इस जागरण का श्रेय सर विलियम मुइर को जाना चाहिए. मुइर ने 1857में अलीगढ़ के 'मदरसतुल-उलूम' के वार्षिक सत्र को संबोधित करते हुए भारतीय मुसलमानों से मुस्लिम महिलाओं के लिए आधुनिक शिक्षा के द्वार खोलने के लिए अपने मिस्र के समकक्षों का अनुसरण करने का आग्रह किया. अगर यह उर्दू भाषण भारतीय मुसलमानों को राजी नहीं कर सका, तो नकद पुरस्कार निश्चित रूप से मिला.

मुइर के सुझाव के बाद ब्रिटिश सरकार ने मुस्लिम महिलाओं के बीच शिक्षा के विचार को बढ़ावा देने वाली उर्दू किताबों के लिए वार्षिक नकद पुरस्कार की घोषणा की. नज़ीर अहमद मौलवी करीम-उद्दीन के तज़किरा-उन-निसा, मुहम्मद हुसैन खान के तहज़ीब-ए-निस्वान और मुहम्मद ज़हीर-उद्दीन खान के तालीम-ए-निस्वान के उपन्यासों के अलावा कुछ अन्य किताबें थीं जिन्हें नकद पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.

1869 में, जब मिरात-उल-उरोस प्रकाशित हुआ था, राशिद-उन-निसा १६ वर्ष की थी. हालांकि खुद अजीमाबाद (अब, पटना) के एक शिक्षित कुलीन परिवार से ताल्लुक रखने वाला यह उपन्यास आंखें खोलने वाला था. इसने उसे खुद के साथ-साथ अन्य महिलाओं की सामाजिक स्थिति पर भी विचार किया. उनके भाई, इमदाद इमाम असर, उर्दू के सबसे बड़े साहित्यकारों में से एक थे. राशिद अली इमाम और हसन इमाम की मौसी थी. अपने साहित्यिक स्वाद के लिए जाने जाने वाले मौलवी मोहम्मद याह्या से विवाहित राशिद ने महसूस किया कि एक महिला के रूप में उनकी शिक्षा, साहित्य और ज्ञान तक पहुंच नहीं है.

अगर हम बारीकी से जांच करें तो हम पाएंगे कि 19वीं सदी के साथ-साथ 20वीं सदी की शुरुआत में महिलाओं के सवाल शिक्षा और ज्ञान तक पहुंच के सवालों से जुड़े हुए थे. राशिद-उन-निसा कोई अपवाद नहीं थी. उनकी राय में हिंदू और मुस्लिम महिलाओं की आधुनिक शिक्षा तक पहुंच होनी चाहिए.  मिरात-उल-उरूस ने राशिद-उन-निसा को अपने दम पर एक उपन्यास लिखने के लिए प्रेरित किया. उन्होंने 1880में कहीं उपन्यास लिखना शुरू किया और छह महीने के भीतर इसे पूरा किया. हालांकि उपन्यास 1881में लिखा गया था, लेकिन वह इसे 1894तक प्रकाशित नहीं कर सका.

महिलाओं के लेखन से जुड़ी वर्जनाओं से पाठकों को अवगत कराने के लिए मैं राशिद-उन-निसा के एक किस्से का उल्लेख करना चाहूंगा. अपनी पुस्तक प्रकाशित करने वाली सबसे शुरुआती उर्दू महिला कवियों में से एक, निसार 'कुबरा' राशिद-उन-निसा की बेटी थीं. प्रसिद्ध उर्दू कवि शाद अज़ीमाबादी ने स्वयं उनकी कविता के लिए उनकी सराहना की. एक बार, जब वह बहुत छोटी थी, उसने एक मसनवी लिखी. परिवार के किसी बच्चे ने उसकी नोटबुक ली और उसे एक अतिथि को दिखाया. अतिथि कोई और नहीं बल्कि उर्दू के एक अन्य प्रसिद्ध आलोचक अब्दुल गफूर शाहबाज थे. उन्होंने इस युवा लड़की की कविता की बहुत सराहना की. मौलवी मीर हसन की शायरी से जिस हिस्से की तुलना की गई थी वह था;

नज़ाकत से साड़ी उठते हुए

ज़मीन पर नज़र को झुके हुए

अजब हाल से घर में दखिल हुई

तारफ काम के अपने मैं ही

भले ही हर कोई अपने ही भाई की तारीफ कर रहा हो गुलाम मौला मौहूम आग बबूला हो गए. वह राशिद-उन-निसा के पास आए और उसका सामना किया. उसने उससे कहा कि लड़कियां लिखना सीख सकती हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं था कि उन्हें 'सौदा' (एक प्रसिद्ध उर्दू कवि) बनने की अनुमति दी जाएगी. निसार के सामने नोटबुक के टुकड़े-टुकड़े हो गए और कोई भी महिला एक शब्द भी नहीं कह सकी.  

कल्पना कीजिए कि ऐसे समय में एक महिला एक उपन्यास लिख रही थी और अपनी बेटी को कविता लिखने के लिए प्रोत्साहित कर रही थी. सिर्फ यह सपना देखना कि वह लिख सकती है, एक उपलब्धि होगी. रशीद-उन-निसा ने 1881 में इस्लाह-उन-निसा उपन्यास लिखा था, लेकिन कानून की डिग्री हासिल करने के बाद उनके बेटे बैरिस्टर सुलेमान के इंग्लैंड से लौटने तक इंतजार करना पड़ा. 1894 में जब उपन्यास पहली बार प्रकाशित हुआ था तब इसके लेखक के रूप में राशिद-उन-निसा का नाम नहीं था. बल्कि, जो आज हास्यास्पद लगता है, दुखद रूप से लेखक का उल्लेख इस प्रकार किया गया: बैरिस्टर सुलेमान की माँ, सैयद वहीदुद्दीन खान बहादुर की बेटी और इमदाद इमाम की बहन. कल्पना कीजिए, उर्दू में प्रकाशित होने वाली पहली महिला को किताब पर अपना नाम तक उल्लेख करने की अनुमति नहीं थी.

रशीद-उन-निसा उपन्यास की शुरूआत में अपने ही बेटे को धन्यवाद देना नहीं भूले. वह लिखती हैं, ''मोहम्मद सुलेमान को विदेश में उच्च शिक्षा मिलने का एक फायदा यह है कि जो किताब 13साल से बेकार कागजों में पड़ी थी, अब प्रकाशित होगी. ईश्वर उन्हें उनके जीवन में सफलता प्रदान करें."

राशिद-उन-निसा मौलवी नज़ीर अहमद के लेखन से बहुत प्रभावित थे और उनका मानना ​​था कि महिलाओं के बीच शिक्षा को बढ़ावा देने वाले लेखन से निश्चित रूप से महिलाओं को मदद मिलेगी. इस्लाह-उन-निसा में वह कई लोगों द्वारा व्यक्त की गई एक प्रासंगिक आशंका को सामने लाती है कि शिक्षा के बारे में लिखने से किसी को मदद नहीं मिलेगी.

उपन्यास में एक महिला लाडली दूसरे अशरफ-उन-निसा से पूछती है, “हां, मुझे पता है मौलवी नजीर अहमद ने भी ऐसी किताबें लिखी हैं. मिरात-उल-उरोस में उन्होंने अकबरी और असगरी के बारे में लिखा है. तो क्या हुआ ? क्या सभी स्त्रियाँ असगरी हो गई हैं ? क्या कोई अकबरी वाम नहीं है?” (कहानी के दौरान असगरी वह है जिसे शिक्षा मिलती है जबकि अकबरी नहीं). इस पर अशरफ-उन-निसा जवाब देते हैं, "यदि सभी असगरी नहीं बने हैं तो 100में से कम से कम 75लोगों ने. अब केवल 25 अकबरी बची हैं. क्या हम इसे सफल नहीं कहेंगे?"

एक ओर वह नज़ीर अहमद की वास्तव में आभारी थीं कि उन्होंने महिलाओं के बीच एक जागृति पैदा की, दूसरी ओर उन्होंने अपने लेखन को एक ऊंचे स्थान पर रखा. उसने तर्क दिया कि नज़ीर अहमद के लेखन ने उसे प्रोत्साहित किया था लेकिन उसका अपना उपन्यास अधिक महिलाओं को प्रेरित करेगा, क्योंकि वह एक महिला की आवाज़ थी. वह अपने अनुभव से लिख रही थी और महिलाएं उससे अधिक आसानी से जुड़ जाती थीं. हालांकि उन्होंने महिलाओं के बारे में लिखने वाले पुरुषों की भूमिका को कभी कम नहीं आंका, लेकिन वह इस बात को लेकर काफी जागरूक थीं कि महिलाओं को अपनी आवाज उठाने की जरूरत है.

रशीद-उन-निसा के काम की तुलना उस समय के अन्य लेखकों के साथ करने के लिए, या बाद में भी, हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि वह कभी भी किसी शैक्षणिक संस्थान में नहीं गई. उसे घर पर पढ़ाया जाता था और रुचि के कारण परिवार के अन्य पुरुष सदस्यों की किताबें पढ़ती थीं.

 मैं उपन्यास पर अधिक चर्चा करना पसंद करता लेकिन प्रिंट स्पेस की कमी मुझे ऐसा करने की अनुमति नहीं देती है.

रशीद-उन-निसा का एक और शानदार पहलू यह है कि वह एक कुर्सीतोड़ बुद्धिजीवी नहीं थी. लेखन के अलावा, वह एक सक्रिय शिक्षाविद् थीं. 1906में उन्होंने लड़कियों के लिए एक स्कूल 'मदरसा इस्लामिया' (अब बेतिया हाउस के नाम से जाना जाता है) की स्थापना की. यह स्कूल उस क्षेत्र के बेहतरीन स्कूलों में से एक था जहाँ मुसलमानों को उर्दू और हिंदुओं को हिंदी में पढ़ाया जाता था.

जब हम 21वीं सदी में आगे बढ़ते हैं, तो राशिद-उन-निसा का संघर्ष, जिन्होंने पहला प्रकाशित उर्दू उपन्यास लिखा, प्रेरक और पढ़ने योग्य है.