शायर-ए-इंक़लाब जोश मलीहाबादी के जन्मदिवस पर विशेष: जोश की कहानी, उन्हीं की ज़ुबानी

Story by  ओनिका माहेश्वरी | Published by  onikamaheshwari | Date 05-12-2022
शायर-ए-इंक़लाब जोश मलीहाबादी के जन्मदिवस पर विशेष: जोश की कहानी, उन्हीं की ज़ुबानी
शायर-ए-इंक़लाब जोश मलीहाबादी के जन्मदिवस पर विशेष: जोश की कहानी, उन्हीं की ज़ुबानी

 

-ज़ाहिद ख़ान
 
जोश मलीहाबादी का अदबी सरमाया जितना शानदार है, उतनी ही जान-दार-ज़ोर-दार उनकी ज़िंदगी थी. जोश साहब की ज़िंदगी में ग़र हमें दाख़िल होना हो, तो सबसे बेहतर तरीक़ा यह होगा कि हम उन्हीं के मार्फ़त उसे देखें-सुने-जाने. क्योंकि जिस दिलचस्प अंदाज़ में उन्होंने ‘यादों की बरात’ किताब में अपनी कहानी बयां की है, उस तरह का कहन बहुत कम देखने-सुनने को मिलता है.

बुनियादी तौर पर उर्दू में लिखी गई इस किताब का पहला एडिशन साल 1970 में आया था. तब से इसके कई एडिशन आ चुके हैं, लेकिन पाठकों की इसके जानिब मुहब्बत और बेताबी कम नहीं हुई है. ‘
 
यादों की बरात’ की मक़बूलियत के मद्देनज़र, इस किताब के कई ज़बानों में तजुर्मे हुए और हर ज़बान में इसे पसंद किया गया. बहरहाल, बात ‘यादों की बरात’ की. जोश मलीहाबादी ने यह किताब अपनी ज़िंदगी के आख़िरी वक़्त में लिखी थी.
 
आज हम इस किताब के गद्य पर फ़िदा हैं, लेकिन शायर-ए-इंक़लाब के लिए यह काम आसान नहीं था. ख़ुद किताब में उन्होंने यह बात तस्लीम की है,‘‘अपने हालाते-ज़िंदगी क़लमबंद करने के सिलसिले में उन्हें छह बरस लगे और चौथे मसौदे में जाकर वो इसे मुकम्मल कर पाए.’’ हांलाकि, चौथे मसौदे से भी वे पूरी तरह से मुतमईन नहीं थे.
 
लेकिन जब किताब आई, तो उसने हंगामा कर दिया. अपने बारे में इतनी ईमानदारी और साफ़गोई से शायद ही किसी ने इससे पहले लिखा हो. अपनी ज़िंदगी के बारे में जोश मलीहाबादी पाठकों से कुछ नहीं छिपाते.
 
यहां तक कि अपने इश्क भी, जिसका उन्होंने अपनी किताब में तफ़्सील से ज़िक्र किया है. अलबत्ता जिनके इश्क में वो गिरफ़्तार हुए, उनके नाम ज़रूर उन्होंने कोड वर्ड में दिए हुए हैं. मसलन एस. एच., एन. जे., एम. बेगम, आर. कुमारी.
 
पांच सौ दस पेज की किताब ‘यादों की बरात’, पांच हिस्सों में बंटी हुई है. पहले हिस्से में जोश की ज़िंदगी के अहम वाक़ए शामिल हैं, तो दूसरे हिस्से में वो अपने ख़ानदान के बारे में पाठकों को बतलाते हैं.
 
किताब के सबसे दिलचस्प हिस्से वे हैं, जब जोश अपने दोस्त, अपने दौर की अज़ीब हस्तियां और अपनी इश्क़बाज़ियों का ख़ुलासा करते हैं. जिन दोस्तों मसलन अबरार हसन ख़ां ‘असर’ मलीहाबादी, मानी जायसी, ‘फ़ानी’ बदायूंनी, आगा शाएर क़ज़लबाश, वस्ल बिलगिरामी, कुंवर महेंन्द्र सिंह ‘बेदी’, पं. जवाहरलाल नेहरू, सरोजिनी नायडू, सरदार दीवान सिंह ‘मफ़्तून’, ‘फ़िराक़’ गोरखपुरी, ‘मजाज़’ वगैरह का उन्होंने अपनी किताब में ज़िक्र किया है,
 
वे ख़ुद सभी मामूली हस्तियां नहीं हैं, लेकिन जिस अंदाज़ में जोश उन्हें याद करते हैं, वे कुछ और ख़ास हो जाते हैं. उनकी शख़्सियत और भी ज़्यादा निखर जाती है. उन शख़्सियत को जानने-समझने के लिए दिल और भी तड़प उठता है.
 
किताब में सरोजिनी नायडू का तआरूफ़ वो कुछ इस तरह से करवाते हैं,‘‘शायरी के ख़ुमार में मस्त, शायरों की हमदर्द, आज़ादी की दीवानी, लहज़े में मुहब्बत की शहनाई, बातों में अफ़सोस, मैदाने जंग में झांसी की रानी, अमन में आंख की ठंडक, आवाज़ में बला का जादू, गुफ़्तगू में मूसीक़ी, जैसे-मोतियों की बारिश, गोकुल के वन की मीठी बांसुरी और बुलबुले-हिंदुस्तान, अगर यह दौर मर्दों में जवाहरलाल और औरतों में सरोजिनी की-सी हस्तियां न पैदा करता, तो पूरा हिंदुस्तान बिना आंख का होकर रह जाता.’
 
’ (पेज नम्बर-367) ‘मेरे दौर की चंद अज़ीब हस्तियां’ किताब के इस हिस्से में जोश मलीबादी ने उन लोगों पर अपनी कलम चलाई है, जो अपनी अज़ीबो-ग़रीब हरकतों और ना भुलाई जाने वाली बातों से उन्हें ताउम्र याद रहे और जब वो क़लम लेकर बैठे, तो उनको पूरी शिद्दत और मज़ेदार ढंग से याद किया.
 
जोश ने बड़े ही क़िस्सागोई से इन हस्तियों का ख़ाका खींचा है कि तस्वीरें आंखों के सामने तैरने लगती हैं. जैसे अज़ीबो ग़रीब किरदार, वैसा ही उनका ख़ाका. कई किरदार तो ऐसे हैं कि पढ़ने के बाद भी यक़ीन नहीं होता कि हाड़-मांस के ऐसे भी इंसान थे, जो अपनी ज़िद और अना के लिए क्या-क्या हरकतें नहीं करते थे.
 
‘यादों की बरात’ की ताक़त इसकी ज़बान है, जो कहीं-कहीं इतनी शायराना हो जाती है कि शायरी और नज़्म का ही मज़ा देती है. मिसाल के तौर पर सर्दी के मौसम की अक्कासी जोश कुछ इस तरह से करते हैं,‘‘आया मेरा कंवार, जाड़े का द्वार.
 
अहा ! जाड़ा-चंपई, शरबती, गुलाबी जाड़ा-कुंदन-सी दमकती अंगीठियों का गुलज़ार, लचके-पट्टे की रजाइयों में लिपटा हुआ दिलदार, दिल का सुरूर, आंखों का नूर, धुंधलके का राग, ढलती शाम का सुहाग, जुलेख़ा का ख़्वाब, युसुफ़ का शबाब, मुस्लिम का कुरान, हिंदू की गीता और सुबह को सोने का जाल, रात को चांदनी का थाल. ’’
 
(पेज नम्बर-49) यह तो सिर्फ़ एक छोटी सी बानगी भर है, वरना पूरी किताब इस तरह के लाजवाब जुमलों से भरी पड़ी है. किताब पढ़, कभी दिल मस्ती से झूम उठता है, तो कभी लबों पर आहिस्ता से मुस्कान आ जाती है.
 
‘यादों की बरात’ को पढ़ते हुए, यह एहसास होता है कि जैसे हम भी जोश मलीहाबादी के साथ इस बरात में शरीक हो गए हों. हिंदोस्तां के उस गुज़रे दौर, जब मुल्क की आज़ादी की जद्दोजहद अपने चरम पर थी, तमाम हिंदुस्तानी कद्रें जब अपने पूरे शबाब पर थीं, इन सब बातों को अच्छी तरह से जानने-समझने के लिए, इस किताब को पढ़ने से उम्दा कुछ नहीं हो सकता.