World Music Day Special: New era of music, waves of technology, echo of tradition
ओनिका माहेश्वरी/ नई दिल्ली
हर वर्ष 21 जून को विश्व संगीत दिवस मनाया जाता है. यह संगीत का जश्न मनाने और लोगों को इसके साथ जुड़ने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए समर्पित दिन है, चाहे वह सुनने, बजाने या संगीत बनाने के माध्यम से हो. इस दिन की शुरुआत 1982 में फ्रांस में हुई और तब से यह एक वैश्विक कार्यक्रम बन गया है.आज के संगीत में डिजिटल वाद्ययंत्रों का तड़का लग चूका है जो संगीत को और भी निखारने का काम करते हैं या नहीं. इस पर आवाज ने विभिन संगीतकारों, गायकों, कला समीक्षक और संगीत की दुनिया से जुडी विभूतियों से बातचीत कर उनकी राय जानी.
संगीत में क्रांति: परंपरा के साए में तकनीक
सांस्कृतिक लेखक और कला समीक्षक सर्वेश भट्ट का कहना है कि "डिजिटल वाद्ययंत्रों की बढ़ती लोकप्रियता को एक युगांतकारी परिवर्तन के रूप में देखा जा सकता है. यह न केवल संगीत निर्माण की प्रक्रिया को आसान, तेज़ और सुलभ बना रही है, बल्कि नए-नए ध्वनि प्रयोगों और वैश्विक सहयोग के अवसर भी प्रदान कर रही है. लेकिन इसका प्रभाव पारंपरिक वाद्ययंत्रों पर मिश्रित रहा है.
उन्होनें आवाज द वॉयस को बताया कि "डिजिटल वाद्ययंत्रो के चलन से पारंपरिक वाद्ययंत्रों तबला, सारंगी, शहनाई जैसे वाद्ययंत्रों की सीख और अभ्यास में अब युवाओं की रुचि कम होती जा रही है. डिजिटल साधनों से बनाई गई ध्वनियाँ अक्सर भाव और स्पर्श की उस सूक्ष्मता को नहीं पकड़ पातीं जो एक पारंपरिक वाद्ययंत्र से संभव होती है. इसके अतरिक्त वाद्ययंत्र बनाने वाले पारंपरिक कारीगरों का रोज़गार संकट में है.
कुल मिलाकर डिजिटल वाद्ययंत्रों की उपयोगिता से इनकार तो नहीं किया जा सकता, पर ये सत्य है की पारंपरिक वाद्ययंत्र केवल ध्वनि के स्रोत नहीं, बल्कि सांस्कृतिक विरासत और आत्मिक अभिव्यक्ति के माध्यम भी हैं. आदर्श स्थिति यह होगी कि दोनों का संतुलित सह-अस्तित्व हो — जहाँ तकनीक रचना को विस्तार दे और परंपरा उसे गहराई."
बता दें कि राजस्थान के सर्वेश भट्ट जयपुर के सांगीतिक भट्ट परिवार (पद्मभूषण पं. विश्वमोहन भट्ट) से ताल्लुक रखते हैं. राजस्थान की कला, साहित्य, संस्कृति से इनका गहरा नाता है.
तकनीक की ताल पर थिरकती विरासत
संगीत की दुनिया के जाने माने कलाकार एवं अनेक पुरस्कारों से सम्मानित राजधानी जयपुर निवासी मशहूर गायक मौहम्मद वकील का कहना है कि " मैं एक गजल और पार्श्व गायक हूँ और अपना संगीत भी कंपोज़ करता हूँ ऐसे में हम भी डिजिटल वाद्ययंत्रों का इस्तेमाल करते हैं और नई तकनीक से बनाया गया संगीत हमारे काम आता है लेकिन हमारी प्राथमिकता हमेशा से ही शास्त्रीय संगीत रही है.
उन्होनें आवाज द वॉयस को बताया कि "आटे में नमक जितना झूठ अच्छा लगता है लेकिन नमक में आटा नहीं". उन्होनें कहा कि आज समाज में तानसेन (गानेवाले) हैं लेकिन सुनने वालों में स्वीकार्यता बदल गई हैं यानी कानसेनों की कमी है. मगर अच्छी बात ये है कि शास्त्रीय संगीत में युवाओं की रुचि बढ़ रही है. आज संगीत को अपनी समझ से रचने वालों की संख्या भी बढ़ गई है जो अपने गुरुओं की शिक्षा के साथ-साथ उसे नए स्वरूप में ढालकर समाज के कल्याण में प्रयासरत हैं.जिससे आज के युवा जुड़ रहें हैं."
बता दें कि फिल्म वीर जारा में आया तेरे दर पर दीवाना… जैसे गीतों को अपनी आवाज से यादगार बनाने वाले मोहम्मद वकील सारेगामा के पहले सीजन के मेगा फाइनल के विजेता भी हैं. उन्हें वर्ल्ड ह्यूमनटरियन ऑर्गनाइजेशन ने लंदन के प्रतिष्ठित हाऊस ऑफ़ लॉर्ड्स में म्यूज़िक के क्षेत्र में किये गये योगदान के लिए सम्मानित भी किया गया है.
संगीत और समाज: आवाज़ की शक्ति और प्रभाव
शास्त्रीय संगीत के उस्ताद तनवीर अहमद खान ने कहा कि "जैसे आजकल डिजिटल म्यूज़िक या बीट एंट्री की जो लूपिंग होती है, मेरा मानना है कि इसका असर उन असली कलाकारों पर पड़ा है जो वाद्य यंत्र बजाते हैं या लाइव गाते हैं. क्योंकि डिजिटल बीट्स की आवाज़ मशीन से बनाई जाती है, वह ओरिजिनल नहीं होती.
उन्होंने आवाज द वॉयस को बताया कि "असल वाद्य यंत्रों की जो असली आवाज़ होती है, उसमें जो भाव और मूड होता है, वह अलग ही होता है — और उसका मज़ा भी अलग होता है. इसलिए मेरे अनुसार, असली आवाज़ और असली कलाकारों को ही प्राथमिकता दी जानी चाहिए.
मेरी व्यक्तिगत ज़िंदगी में इसका कोई खास असर नहीं पड़ा है क्योंकि मैं एक सिंगर हूं, लेकिन जिन कलाकारों का काम वाद्य यंत्र बजाना है, उनके लिए यह एक चुनौती बन गई है. लाइव म्यूज़िक का जो आनंद है, वह बैकग्राउंड ट्रैक पर गाने में नहीं आता.
और हां, बहुत सी शादी-पार्टियों वगैरह में भी इसका असर पड़ा है क्योंकि लोग अब background ट्रैक पर गाते हैं, जिससे पहले जैसा मज़ा नहीं आता.
मैंने कभी कोई डिफेंडर साउंड या इलेक्ट्रॉनिक म्यूज़िक इस्तेमाल नहीं किया है, और ना ही भविष्य में करना चाहूंगा. मेरी कोशिश है कि हम अपने कला क्षेत्र और असली कलाकारों को बढ़ावा दें, ताकि लोगों तक उनकी असली रचनात्मकता और भावनाएं पहुंच सकें."
पुरानी यादों में खोये शास्त्रीय संगीत के उस्ताद तनवीर अहमद खान ने कहा कि उनके परिवार ने दिल्ली घराने की सदियों पुरानी विरासत को जोश के साथ आगे बढ़ाया है, जिसे महान गायक, संगीतकार, कवि और विद्वान अमीर खुसरो ने करीब 850 साल पहले बनाया था. दिल्ली घराना शास्त्रीय संगीत का अब तक का सबसे पुराना घराना माना जाता है.
नई पीढ़ी को पारंपरिक वाद्ययंत्रों की तरफ आकर्षित करने के लिए सुझाव
सुमेरा खान संगीत की छात्रा हैं. वे अपने गुरु तनवीर अहमद खान साहब से क्लासिकल म्यूजिक सीख रहीं हैं. वे बचपन से ही हर तरीके के गायन की इच्छुक रहीं हैं. सुमेरा खान ने आवाज द वॉयस को बताया कि "डिजिटल वाद्ययंत्रों की बढ़ती लोकप्रियता ने संगीत की दुनिया में एक नए युग की शुरुआत की है. यह बदलाव पारंपरिक वाद्ययंत्रों के लिए चुनौतियाँ भी लेकर आया है, लेकिन साथ ही नए अवसर भी प्रदान करता है.
आने वाले समय में, यदि हम पारंपरिक वाद्ययंत्रों को संरक्षित और प्रचारित करने के लिए काम करते हैं, तो वे भारतीय शास्त्रीय संगीत की समृद्धि और विविधता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं."
सुमेरा खान ने आवाज द वॉयस को बताया कि "पारंपरिक वाद्ययंत्रों के लिए शिक्षा और प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू करने होंगे. साथ में ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म का उपयोग करके पारंपरिक वाद्ययंत्रों को प्रचारित किया जा सकता है. पारंपरिक वाद्ययंत्रों को सांस्कृतिक कार्यक्रमों में शामिल करने से नई पीढ़ी को आकर्षित किया जा सकता है."
बता दें कि सुमेरा खान ने प्रयाग यूनिवर्सिटी से म्यूजिक में ग्रेडुएशन की. सुमेरा खान ने बताया कि अभी वे छात्रों को म्यूजिक के ट्यूशन भी पढ़ाती हैं. सुमेरा खान ने बताया कि उन्होनें जश्न-ए-रेख़्ता, दिल्ली दरबार, शाम-ए-ग़ज़ल आदि कार्यक्रमों में अपनी प्रस्तुत किया है.
तबले की विरासत और डिजिटल बदलाव
साबिर हुसैन, जो एक प्रसिद्ध तबला वादक हैं, ने आवाज द वॉयस को एक इंटरव्यू के दौरान बताया कि उन्होंने कई मंचों पर डिजिटल तबला बजाया है. हालांकि, उनका मानना है कि डिजिटल तबला पारंपरिक भारतीय तबले के मुकाबले बहुत कुछ खो देता है.
साबिर हुसैन का कहना है कि "पारंपरिक तबला वादन में जो भारतीय संगीत की आत्मा, हिन्दुस्तानियत और ताल का जो अनुभव होता है, वह डिजिटल तबले में नहीं पाया जा सकता. पारंपरिक तबला, जो हाथों की कला और मैनुअल प्रक्रिया पर आधारित होता है, उसकी आवाज में एक गहरी भावना और राग का सटीक अनुपालन होता है. वह ताल, जो तबले की थापों के माध्यम से निकलती है, वह अपने आप में बहुत सशक्त और जीवंत होती है."
डिजिटल तबला, जो तकनीकी रूप से संशोधित होता है, इसमें यांत्रिकता और कम्प्यूटराइज्ड आवाजों का समावेश होता है. इसलिए, साबिर हुसैन के अनुसार, डिजिटल तबला पारंपरिक तबले की विशिष्टता, उसकी ऊर्जा और उसकी स्पिरिचुअल कनेक्शन को नहीं जगा पाता. वह मानते हैं कि भारतीय संगीत का जो जोश और उसकी गहराई पारंपरिक तबला में मिलती है, वह डिजिटल रूप में नहीं आ सकती.
अतः साबिर हुसैन ने यह भी व्यक्त किया कि जब भी वह पारंपरिक तबला बजाते हैं, तो वह उस प्राचीन कला और संगीत को सच्चे रूप में व्यक्त करने की कोशिश करते हैं, जो डिजिटल माध्यम से संभव नहीं हो सकता.
साबिर हुसैन ने तबला वादन अपने मामा उस्ताद रफ़ुद्दीन साबरी से सीखा और गंडा बंधाई की रस्म और तबला वादन की बारीकियां सीखने-जानने के बाद इन्होनें अपनी कला का प्रदर्शन विभिन्न नामी कार्यक्रमों में किया.