झारखंड में सन सत्तावन के संग्राम के अमर सेनानी शेख भिखारी

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 07-02-2022
शेख भिखारी
शेख भिखारी

 

आवाज विशेष । आजादी का अमृत महोत्सव

मंजीत ठाकुर/ नई दिल्ली

देश में जिस तरह से हर चीज को सांप्रदायिक विभाजन की खाई के साथ देखने का एक आख्यान पैदा किया जा रहा है, उस के बीच हमें कुछ ऐसे भुला दिए गए नायकों के बारे में जरूर जानना चाहिए, जिनके लिए संप्रदाय और धर्म की सीमाओं से परे वतन की मुहब्बत सबसे ऊपर रहा.

झारखंड के छोटानागपुर इलाके की धरती ने भी ऐसे ही एक वीर शेख भिखारी को जन्म दिया था, जिन्होंने देश की खातिर अंग्रेजों की अनेक बर्बर यातनाएं सही और फांसी के  तख्ते पर झूल गए. लेकिन इस अमर शहीद के बारे में इतिहासकार लिखना भूल गए या फिर उनके बारे में जानबूझकर नजरअंदाजी भरा रवैया अपनाया, लेकिन जनमानस में शेख भिखारी जैसे शहीदों का योगदान विस्मृत नहीं होना चाहिए.

शेख भिखारी का खानदान

शेख भिखारी के पिता का नाम शेख बूलंदू (बल्दू) था जो अपने समय के एक नामी योद्धा थे. उस समय अनगड़ा थाने के अंतर्गत औरगढ़ नामक एक छोटी रियासत थी. औरगढ़ के  राजकुमार ने क बार जिद की कि उसको हिरण का दूध चाहिए. झारखंड सरकार के जनजातीय कल्याण शोध संस्थान में यह दर्ज है कि शेख बूलन्दू ने (बलदू) जंगल से दूध देनेवाली एक हिरनी को पकड़ लिया और कंधे पर उठाकर राजकुमार के सामने पेश कर दिया था.

महारानी ने प्रसन्न होकर उन्हें  एक शाही तलवार और पगड़ी के साथ बारह गांवों की जमींदारी शेख बुलंदू को प्रदान की थी. वे बारह गांव थे, खूदिया लूटवा, बोनी लूटवा, कूटे, संडिहा, भूसौर, रोल, मूटा, हेन्दा, बेली, चारू, बैठ औरनगड़ू.

कहा जाता है कि वह तलवार अभी भी जरियागढ़ (गोविंदपुर) में उपलब्ध है और हर साल विजयदशमी के अवसर पर एक जुलूस की शक्ल में उसे निकाला जाता है और उसके प्रति श्रद्धा और सम्मान व्यक्त किया जाता है.

इसी खानदान में 1819 को ओरमांझी थाना के ग्राम खूदिआ (खोदया) में शेख भिखारी का जन्म हुआ था. देश में 1857 को जब पहला स्वतंत्रता संग्राम छिड़ा, उस वक्त शेख भिखारी की उम्र 38 साल थी.बचपन से ही सैन्य संचालन में वह दक्ष थे और जमींदारों के काम में भी उन्हें अच्छा-खासा अनुभव था. ओरमांझी खटंगा के राजा टिकैत उमराव सिंह ने उनकी वीरता और बुद्धिमता से प्रभावित होकर ही उन्हें अपना दीवान नियुक्त कर लिया था.

इसके अलावा ठाकुर विश्वनाथ शाही (बड़कागढ़–हटिया) ने शेख भिखारी को मुक्तिवाहिनी का सक्रिय सदस्य बनाया था जिसमें ठाकुर विश्वनाथ शाही, पाण्डेय गणपत राय (भौनरो), जयमंगल पाण्डेय, नादिर अली खां, टिकैत उमराव सिंह, शेख भिखारी, बृजभूषण सिंह, चमा सिंह, शिव सिंह, रामलाल सिंह, बृजराम सिंह आदि शामिल थे.

1857 की क्रांति में राजा उमराव सिंह, उनके छोटे भाई घांसी सिंह और उनके दीवान शेख भिखारी ने जिस शौर्य और पराक्रम का प्रदर्शन किया था उसकी अनुगूंज आज भी ओरमांझी और उसके आसपास के इलाकों में सुनाई पड़ती है. वहां के कहानियों-किस्सों में आज भी शेख भिखारी के गीत गाए जाते हैं.

सन सत्तावन की चिनगारी

रांची जिला में डोरंडा की सेना ने 31 जुलाई, 1857 को जो विद्रोह किया था, उसकी अगुआई  जमादार माधव सिंह और सूबेदार नादिर अली खां ने किया था. इस क्रांति का केंद्र चुटूपालू घाटी और ओरमांझी था. शेख भिखारी इस संग्राम में सम्मिलित थे.

सैन्य संचालन में कुशल और दूरदर्शी शेख भिखारी ने सूबेदार नादिर अलीऔरजमादार माधव सिंह को हरसंभव सहयोग का भरोसा दिलाया.अंग्रेज कप्तान ग्राहम और तीन अन्य अंग्रेज हजारीबाग की तरफ भाग निकले. और उनसे पकड़े गए दो तोपों को शेख भिखारी ने रांची की तरफ मोड़ दिया.शेख भिखारी ने सैन्य सामग्रियों को ढोने के अतिरिक्त क्रांतिकारियों को अनेक प्रकार से सहायता प्रदान की.

2 अगस्त, 1857 दोपहर दो बजे चुटूपालू की सेना ने रांची नगर पर अधिकार स्थापित कर लिया.उस समय छोटानागपुर का कमिश्नर ई.टी. डाल्टन था. (डाल्टनगंज शहर उसी के नाम पर पड़ा है) डाल्टन सहित रांची के जिलाधिकारी डेविस, डिस्ट्रिक्ट जज ओकस और पलामू का अनुमंडलाधिकारी (एसडीओ) ब्रीच सभी कांके, पिठोरिया के रास्ते से बगोदर भाग गए.

इस विपति के समय सिख सैनिकों ने अंग्रेजों का साथ दिया. चाईबासा और पुरुलिया में क्रांति को कुचलने के लिए अंग्रेजों ने सिख सैनिकों से सहायता ली. हजारीबाग में 2 सितंबर से 4 सितंबर तक सिख सैनिकों ने पड़ाव डाले रखा. इसी बीच शेख भिखारी हजारीबाग पहुंचे और उन्होंने ठाकुर विश्वनाथ शाही (शाहदेव) का पत्र सिख सेना के मेजर बिशन सिंह को दिया और अपने राजनैतिक सूझ-बूझ से मेजर बिशन सिंह को अपने पक्ष में कर लिया. नतीजतन, मेजर बिशन सिंह के सैनिक भारतीय क्रन्तिकारियों के साथ आकर मिल गए.

छोटानागुपर के शेख भिखारी ने संताल परगना में संताल विद्रोह के लिए मार्ग प्रशस्त कर दिया, नतीजा यह हुआ कि वहां क्रांति की आग भड़क उठी. सन सत्तावन से दो साल पहे ही 1855 में सिदो और कान्हू ने संताल परगना में क्रांति का बिगुल बजाया था, और जिन्हें हजारीबाग के केन्द्रीय कारा में बंद कर दिया गया था. सिदो और कान्हू की मौत के बारे में कई किस्से है.

पर अपुष्ट लोककथाओं के मुताबिक, 30 जुलाई 1857 को सुरेन्द्र शाहदेव के नेतृत्व में हजारीबाग जेल की दीवार को तोड़कर इन क्रांतिवीरों को आजाद करवा लिया गया तथा हजारीबाग और इसके निकटवर्ती क्षेत्रों यहाँ तक कि इसकी पंचायतों पर अधिकार कर लिया गया और उन पंचायतों पर वहां का पुराना कानून लागू कर दिया गया. लेकिन आजाद कराए क्रांतिवारों में सिदो और कान्हू भी थे इसके साक्ष्य नहीं मिलते.

चुटूपालू घाटी की नाकाबंदी और शेख भिखारी

बहरहाल, शेख भिखारी का महत्वपूर्ण कारनामा रहा चुटूपालू घाटी की नाकाबंदी. इस नाकेबंदी के बाद अब टिकैत उमराव सिंह और शेख भिखारी की और अंग्रेजों का ध्यान गया. छोटानागपुर के कमिश्नर ई.टी. डाल्टन की धमकियों की इन लोगों ने कोई परवाह नहीं की. अचानक 10 अगस्त 1857  को जगदीशपुर से बाबू कुंवर सिंह की मित्रवाहिनी की मदद के लिए इन लोगों ने कूच करने का फैसला किया. मुक्तिवाहिनी क्रान्तिकारी दस्ते ने डोरंडा से प्रस्थान किया और कुरू (कूडु) चंदवा, बालूमाथ होते हुए चरता पहुंचा. हालांकि, यह लोग आज के डाल्टनगंज के मार्ग से रोहतास जाना चाह रहे थे किन्तु मार्ग की दुरूहता और अवरोधों के कारण बरास्ता चतरा, जगदीशपुर के लिए प्रस्थान कर गये.

रास्ते में चुटिया के जमींदार भोला सिंह भी दल-बल के समेत साथ हो गये. सलंगी (बालूमाथ) के जगन्नाथ शाही जो कुंवर सिंह के भाई दयाल सिंह के दामाद थे, रास्ते में मुक्तिवाहिनी के साथ हो गए.

30 सितंबर 1857  को यह दस्ता चतरा पहुंचा एवं फंसीहारी तालाब (मंगल तालाब) के पास पड़ाव डाला. इस दस्ते में उस समय करीब 3,000 क्रान्तिकारी शामिल थे. ब्रिटिश सेना में 53वां पैदल दस्ते (इन्फैंट्री) के 150 फौजी, 70वीं बंगाल इन्फैंट्री के 20 और रैटरी सिख दस्ते के 150 सैनिक शामिल थे. इस टुकड़ी का नेतृत्व मेजर इंग्लिश कर रहा था.

उस समय ब्रिटिश सैनिक टुकड़ी में 70वीं बंगाल इन्फैंट्री के लेफ्टिनेंट जे.सी.सी. डॉनट और 53वीं इन्फैंट्री के साजेग्यंत डॉनिन भी शामिल थे. मेजर इंग्लिश द्वारा बनाये गये नक्शे के मुताबिक ब्रिटिश सेना ने चतरा शहर में प्रवेश किया.

चतरा का निर्णायक युद्ध 2 अक्तूबर 1857 को लड़ा गया. मुक्तिवाहिनी के जगदीशपुर पहुंचने से पहले उनका मुकाबला ब्रिटिश सेना से हो गया. इस युद्ध का नायकत्व सूबेदार जयमंगल पाण्डेय और सूबेदार नादिर अली खां कर रहे थे. शेख भिखारी इस युद्ध में सम्मिलित थे. एक घंटे तक यह संघर्ष चला जिसमें अंग्रेज विजयी रहे.

150 देशी सैनिकों को 3 अक्तूबर, 1857 को एक साथ फांसी दे दी गई. 77स्वतंत्रता सेनानियों को फांसी देने के बाद एक गड्ढे में दफन कर दिया गया. जयमंगल पाण्डेय और नादिर अली खां दोनों सूबेदारों को 4 अक्तूबर 1857 को फांसी दी गई. ठाकुर विश्वनाथ शाही, पाण्डेय गणपत राय और जमादार माधव सिंह चतरा युद्ध से बच निकले तथा शेख भिखारी चुट्टूपालु घाटी की ओर प्रस्थान कर गए.

उसके बाद भी शेख भिखारी ने अपनी मुहिम जारी रखी. संताल विद्रोह को कुचलने के बाद मद्रास फौज के कप्तान मेजर मैकडॉनल्ड को बंगाल के गवर्नर ने आदेश दिया कि वह चट्टूपालु घाटी की तरफ बढ़े और शेख भिखारी की फौज का मुकाबला करे. शेख भिखारी और टिकैत उमराव सिंह चुट्टूपालु पहुंच गए और आगे बढ़कर अंग्रेजों का रास्ता रोक दिया. 6 जनवरी 1858 को उन्होंने घाटी की तरफ वाली सड़क के पुल को तोड़ डाला, पेड़ों को काटकर सड़क पर डाल दिया और स्वयं ऊपर से अंग्रेजों पर गोलियां चलानी शुरू कर दी.

जब गोलियां खत्म हो गईं तब ऊपर से पत्थर लुढ़काना शुरू किया किन्तु अंग्रेज उनके पास गुप्त मार्ग से पहुंच गए. गोलियां तो पहले ही समाप्त हो चुकी थी.  अंग्रेज सैनिकों ने शेख भिखारी तथा टिकैत उमराव सिंह को कैद कर लिया.दूसरे दिन यानी 7 जनवरी को दिखावे के लिए एक अदालत बैठी और शेख भिखारी तथा उनके साथियों को मृत्युदंड सुना दिया गया.

स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों को डराने के लिए टिकैत उमराव सिंह और शेख भिखारी को दृष्टान्त योग्य सजा की तजवीज की गई. लेकिन चुट्टूपालु की घाटी में भीड़ बढ़ती ही गई. लोग भारी संख्या में जमा होने लगे तो इस अपार भीड़ के उमड़ते हुए आवेग से भयभीत होकर मैकडॉनल्ड ने रांची-ओरमांझी रास्ते में मोरहाबादी टैगोर हिल के निकट एक पेड़ (बरगद) की दो टहनियों पर लटकाकर, एक झटके में बंधन काट डाला.

उनकी लाशों को चुटूपालू लाकर कर एक बरगद के पेड़ पर लटका दिया गया. कुछ इतिहासकारों का कहना है कि चुटूपालू घाटी में ही इन्हें फांसी दी गई जिसके कारण उस बरगद के पेड़ को फंसियारी बरगद कहा जाता है. जबकि दूसरी ओर मोरहाबादी के इस ऐतिहासिक स्थल को आज भी लोग फांसी टोंगरी कहते हैं.

8 जनवरी 1858 को इन अमर शहीदों ने स्वतंत्रता की बलिवेदी पर खुद को न्योछावर कर दिया. किन्तु इस ऐतिहासिक अन्य का घाव अब भी हरा है. अमर शहीद शेख भिखारी, नादिर अली खां को लोग तेजी से भूलते जा रहें है. रांची नगर के चौराहों पर लगाये जाने वाली प्रतिमाओं में इन शहीदों को लोग ढूंढते हैं जो कहीं नहीं दिखाई पड़ते. गुमनामी के गहरे अंधेरे में यह खो गये हैं, पर इनके बलिदानों की गाथा लोकमानस में आज भी जिंदा है.