साकिब सलीम
“रवींद्र मोहन (कर), सभी परिस्थितियों में एक क्रांतिकारी, पूरी तरह से गुमनामी में जिए और मर गए.यकीन है कि उनकी याद में कोई स्मारक नहीं बनाया गया है, न ही भविष्य में कोई स्मारक बनाया जाएगा, लेकिन वह हमारे देश में पहले पन्ने की खबरें बनाने वाले लोगों की तुलना में एक महान व्यक्ति थे.ये शब्द मन्मथ नाथ गुप्ता ने भारतीय क्रांतिकारियों पर अपनी कई पुस्तकों में से एक में लिखे थे.
मन्मथ नाथ, जो स्वयं एक क्रांतिकारी थे, हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य थे और प्रसिद्ध काकोरी ट्रेन लूट को अंजाम देने के लिए उन्हें आजीवन कारावास की सजा हुई थी.मन्मथ नाथ के बारे में जानते हैं,लेकिन जैसा कि उन्होंने बताया, यह अज्ञात क्रांतिकारी रवीन्द्र मोहन कर कौन थे?
रवीन्द्र वाराणसी के निवासी थे.रामप्रसाद बिस्मिल, सचिन्द्र नाथ सान्याल, राजेंद्र लाहिड़ी और अन्य के साथ हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचआरए) के शुरुआती सदस्यों में से एक थे.
1923 में इसके गठन के बाद सबसे शुरुआती पार्टी गतिविधियों में से एक, ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ लोगों को खड़ा करने के लिए पर्चे और साहित्य वितरित करना और चिपकाना था.
क्रांतिकारी, ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ विद्रोह के लिए लोगों का आह्वान करने वाला पैम्फलेट 1924 तक पूरे वाराणसी में फैल गया था.पुलिस हैरान थी और इसे बांटने वाले लोगों के बारे में कोई सुराग नहीं था.वास्तव में, इन पर्चों के पीछे चन्द्र शेखर आज़ाद और रवीन्द्र मोहन कर थे.
एक दिन पुलिस ने रवीन्द्र को पकड़ लिया,लेकिन पास कोई पर्चा नहीं मिला.पुलिस प्रताड़ना के बावजूद वह अन्य क्रांतिकारियों के बारे में कुछ नहीं बताते थे.पुलिस जानती थी कि वह एक क्रांतिकारी है,लेकिन खिलाफ कोई सबूत नहीं था.इसलिए उन्होंने आवारागर्दी के लिए भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 109लगाई और एक साल के लिए जेल भेज दिया.
जब वे जेल में थे तो काकोरी ट्रेन मामले के सिलसिले में पार्टी के अन्य सदस्यों को या तो गिरफ्तार कर लिया गया या भूमिगत होना पड़ा.जब उनकी रिहाई हुई तो रामप्रसाद, सान्याल आदि जेल में थे,जबकि चन्द्रशेखर आज़ाद जैसे अन्य लोग भूमिगत हो गये.
एक समर्पित देशभक्त रवीन्द्र बेकार नहीं बैठ सकते थे.वे बंगाल चले गये और वहां क्रांतिकारियों के साथ काम करने लगे.उन्होंने बम बनाना सीखा. एक बार फिर उन्हें कोलकाता के सुकिया स्ट्रीट बम कांड के सिलसिले में गिरफ्तार कर लिया गया.इस बार उन्हें 7वर्ष के कठोर कारावास की सजा काटनी पड़ी.
इस कारावास ने उनके स्वास्थ्य को तोड़ दिया,लेकिन उनकी क्रांतिकारी भावना को नहीं.एक बार फिर वह वाराणसी लौटे.मन्मथ नाथ ने लिखा, “एक लड़की जिसे वह बचपन से अच्छी तरह से जानता था, उसे किसी युवक से प्यार हो गया था.इसमें कुछ भी गलत नहीं था. अगर यह सुचारू रूप से चलता.लड़की गर्भवती हो गई और युवक ने दूसरे विचार रखते हुए उससे कोई संबंध न रखने का फैसला किया था.'
रवीन्द्र ने लड़की को न्याय दिलाने का बीड़ा उठाया.वह लड़के के पास गया लेकिन शादी करने के बजाय भूमिगत हो गया.लड़की के परिवार ने उसे बाहर निकाल दिया. अब क्या करें? वह उसे अपने साथ ले गया और उसकी देखभाल करने लगा.
समाज को कोई सहानुभूति नहीं थी. लोग रवीन्द्र पर लड़की का असली प्रेमी होने का आरोप लगाने लगे. उन्हें नाम पुकारा गया और सामाजिक बहिष्कार शुरू हो गया.
रवीन्द्र ने उसे लेकर वाराणसी छोड़ दिया.वे बंगाल के डायमंड हार्बर पहुँचे.वहां उन्हें कोई नहीं जानता था. बच्ची का पेट भरने के लिए उन्होंने दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करना शुरू कर दिया.उसने एक लड़के को जन्म दिया जो जीवित नहीं रह सका.इसके बाद रवीन्द्र ने उनकी पढ़ाई पूरी करने में मदद की.
प्राथमिक शिक्षक के रूप में नौकरी मिलने तक रवीन्द्र ने एक मजदूर के रूप में काम किया.फिर एक दिन वह रात के अंधेरे में उसे फिर से क्रांतिकारी दल में शामिल होने के लिए छोड़ गया.उस समय तक, सब कुछ बदल चुका था.अधिकांश क्रांतिकारियों को या तो फाँसी दे दी गई या गिरफ्तार कर लिया गया.
सविनय अवज्ञा आंदोलन के बाद कांग्रेस भी बहुत आशाजनक नहीं दिख रही थी.कारावास और एक मजदूर के रूप में जीवन बिताने के बाद रवीन्द्र स्वयं कई स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित थे.
1939 में वाराणसी में अज्ञातवास में उनकी मृत्यु हो गई.लेकिन उनकी गुमनामी इसलिए थी क्योंकि वह भारत के सबसे सफल क्रांतिकारियों में से एक थे.क्रांतिकारी वह है जो लोगों के लिए जीता है और उनकी सेवा के लिए किसी भी हद तक जा सकता है.एक लड़की को बचाने के प्रति उनका समर्पण उन्हें भारतीय क्रांतिकारियों के आकाश के सबसे चमकीले सितारों में से एक बनाता है.