साकिब सलीम
‘‘मुहर्रम पैगंबर के पोते इमाम हुसैन की मृत्यु की याद में मुस्लिमों द्वारा मनाया जाने वाला एक सामान्य शोक पखवा़डा है. मगर मराठा हिंदू इन शोक कार्यक्रमों में सार्वभौमिक अकीदे के साथ सहभाग करते हैं. हर कोई फुकीर बन जाता है यानी उनमें से कुछ हरे कपड़े पहनते हैं, हरे और लाल सूती धागे की एक माला के साथ, मोतियों की तरह, अपने कंधों पर बंधा हुआ, और अपने ऐसे परिचितों से भीख माँगते फिरते है, जो इतने सहज होते हैं कि उन्हें कुछ भी दे सकते हैं.
फकीर शब्द का अर्थ यहां धार्मिक भिखारी से है. ऐसी विचित्र आकृतियों के समूह सभी दिशाओं में शिविरों में घूमते हुए भिक्षा मांगते और मुहम्मद, अली और हुसैन के नाम लेते हुए देखे जा सकते हैं. महाराज (दौलत राव सिंधिया) स्वयं भी इस कौतुहलपूर्ण प्रथा में शामिल होते हैं और पूरे मुहर्रम के दौरान फकीर बने रहते हैं.’’
यह महाराज दौलत राव सिंधिया के दरबार में एक अंग्रेज अधिकारी थॉमस ड्यूअर ब्रॉटन ने 1809 में अपने भाई को लिखे एक पत्र में लिखा था. किसी भी अन्य चीज से अधिक ये पत्र भारत की समन्वयवादी संस्कृति की एक खिड़की हैं.
1809 में ब्रॉटन सिंधिया और उनकी सेना के साथ राजस्थान से होकर यात्रा कर रहे थे, जहां उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता देखी, जो उनके अनुसार ‘हास्यास्पद’ थी. मुहर्रम और होली से कुछ दिन पहले उन्होंने लिखा था, श्इस साल दो सबसे विपरीत त्योहार (होली और मुहर्रम) एक साथ पड़ रहे हैं.श् उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि हिंदू मराठा मुस्लिम भावनाओं का समान रूप से सम्मान करते हैं.
ब्रॉटन ने देखा कि मुहर्रम के महीने में सिंधिया बिना किसी अन्य पारंपरिक आभूषण के हरे कपड़े पहनकर बाहर आते थे. वह शिविर में प्रत्येक ताजिया का दौरा करते थे. ताजिये हुसैन की कब्र की प्रतिकृति समझी जाती है और उसके सामने एक व्यक्ति मर्सिया पढ़ता है. ब्रॉटन ने छाती पीटकर मातम मनाने का कार्यक्रम भी देखा, जो उनके अनुसार ‘काफी उन्मत्त’ और ‘उच्चतम स्तर पर प्रभावशाली’ था.
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मुहर्रम के दसवें दिन इन ताजियों को पास की नदी पर ले जाया जाता था. प्रत्येक जुलूस सिन्धिया के डेरे से होकर गुजरता था. ब्रॉटन ने लिखा, ‘‘वहां सौ से अधिक ताजिया थे, प्रत्येक के पीछे फकीरों की एक लंबी कतारें थीं, जो सबसे असाधारण तरीके से कपड़े पहने हुए थे, अपनी छाती पीट रहे थे और जोर से पैगंबर और उनके पोते को बुला रहे थे.
जलती हुई मशालें, माचिस की तीली की फायरिंग और महरत्ता ड्रमों और तुरही की कठोर और बेसुरी आवाजें, सभी तरफ से गुजरने वाले अजीब लेकिन एनिमेटेड समूहों के साथ एकजुट होकर, सबसे असाधारण दृश्य, जो मैंने कभी देखा था. ऐसे मराठा सूरदार, जो ब्राह्मण नहीं हैं, अक्सर अपने तंबुओं में ताजिया बनाते हैं और उन पर बड़ी रकम खर्च करते हैं, इनमें से कई ताजिया बहुत सुन्दर होते थे.”
ब्रॉटन ने उल्लेख किया कि कैसे मराठा शिविर में हिंदुओं और मुसलमानों ने जुलूस में शोक मनाने वालों के लिए शर्बत (पेय) की व्यवस्था की और शाही महिलाओं ने भी इन कार्यक्रमों में भाग लिया.
अल्लामा सैय्यद सिबतुल हसन फाजिल-ए हंसवी ने मुहर्रम जुलूसों पर अपनी पुस्तक में बताया है कि ब्रॉटन ने मराठों के मुहर्रम शोक को देखा था, वो भी तब, जब वे एक फौजी मुहिम पर थे. कोई कल्पना कर सकता है कि शांति काल के दौरान उनकी राजधानियों में यह कितना भव्य होता होगा.
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