झारखंडः रांची का जगन्नाथपुरी मंदिर सर्वधर्म समभाव का केंद्र, सैकड़ों साल तक मुस्लिमों ने की देखभाल

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 03-07-2022
रांची का जगन्नाथ पुरी मंदिर
रांची का जगन्नाथ पुरी मंदिर

 

आवाज- द वॉयस/ एजेंसी

सर्वजाति-धर्म समभाव के केंद्र के रूप में प्रसिद्ध रांची में जगन्नाथपुर मंदिर की पहरेदारी की जिम्मेदारी सैकड़ों साल तक मुस्लिम समुदाय के लोगों के हाथ में रही है. 331 वर्षों के गौरवशाली इतिहास वाले इस मंदिर में पिछले कुछ वर्षों से इस खास परंपरा का निर्वाह नहीं हो पा रहा है, लेकिन यहां हर साल अषाढ़ शुक्ल पक्ष द्वितीया को निकाली जानेवाली रथयात्रा और इस मौके पर नौ दिनों तक चलने वाले मेले में हिंदू-मुस्लिम सहित सभी जाति-धर्म की भागीदारी आज भी कायम है.

दो साल से जारी कोविड प्रतिबंध हटने के बाद इस बार शुक्रवार को जब यहां ऐतिहासिक रथयात्रा निकली तो लगभग दो लाख लोग इस भव्य आयोजन के साक्षी-सहभागी बने.

झारखंड के राज्यपाल रमेश बैस, मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन, पूर्व केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय ने भी भगवान जगन्नाथ, उनकी बहन सुभद्रा और भाई बलभद्र के विग्रहों की पूजा-अर्चना की और जयकारे के बीच रथ की रस्सी खींची.

रांची शहर के जगन्नाथपुर में रथयात्रा की यह परंपरा 1691 में नागवंशीय राजा ऐनीनाथ शाहदेव ने शुरू की थी. उड़ीसा के पुरी मंदिर में भगवान जगन्नाथ दर्शन से मुग्ध होकर लौटे राजा ने उसी मंदिर की तर्ज पर रांची में लगभग ढाई सौ फीट ऊंची पहाड़ी पर मंदिर का निर्माण कराया था.

वास्तुशिल्पीय बनावट पुरी के जगन्नाथ मंदिर से मिलती-जुलती है. मुख्य मंदिर से आधे किमी की दूरी पर मौसीबाड़ी का निर्माण किया गया है, जहां हर साल भगवान को रथ पर आरूढ़ कर नौ दिन के लिए पहुंचाया जाता है.

इस मंदिर और यहां की रथयात्रा का सबसे अनूठा पक्ष है इसकी व्यवस्था और आयोजन में सभी धर्म के लोगों की भागीदारी. रथयात्रा के आयोजन से सक्रिय रूप से राजपरिवार के वंशजों में एक लाल प्रवीर नाथ शाहदेव बताते हैं कि मंदिर की स्थापना के साथ ही हर वर्ग के लोगों को इसकी व्यवस्था से जोड़ा गया. सामाजिक समरसता और सर्वधर्म समभाव की एक ऐसी परंपरा शुरू की गयी, जिसमें उन्होंने हर वर्ग के लोगों को कोई न कोई जिम्मेदारी दी.

मंदिर के आस-पास कुल 895 एकड़ जमीन देकर सभी जाति-धर्म के लोगों को बसाया गया था. उरांव परिवार को मंदिर की घंटी देने की जिम्मेदारी मिली, तो तेल व भोग की सामग्री का इंतजाम भी उन्हें ही करने के लिए कहा गया.

19वीं सदी में मंदिर की स्थिति

बंधन उरांव और बिमल उरांव आज भी इस जिम्मेदारी को निभा रहे हैं. मंदिर पर झंडा फहराने, पगड़ी देने और वार्षिक पूजा की व्यवस्था करने के लिए मुंडा परिवार को कहा गया. रजवार और अहिर जाति के लोगों को भगवान जगन्नाथ को मुख्य मंदिर से गर्भगृह तक ले जाने की जिम्मेवारी दी गयी. बढ़ई परिवार को रंग-रोगन की जिम्मेवारी सौंपी गयी.

लोहरा परिवार को रथ की मरम्मत और कुम्हार परिवार को मिट्टी के बरतन उपलब्ध कराने के लिए कहा गया. मंदिर की पहरेदारी की बड़ी जिम्मेदारी मुस्लिम समुदाय को सौंपी गयी थी. सैकड़ों वर्षों तक उन्होंने इस परंपरा का निर्वाह किया. पिछले कुछ वर्षों से मंदिर की सुरक्षा का इंतजाम ट्रस्ट के जिम्मे है.

इस मंदिर में पूजा से लेकर भोग चढ़ाने का विधि-विधान पुरी जगन्नाथ मंदिर जैसा ही है. गर्भ गृह के आगे भोग गृह है. भोग गृह के पहले गरुड़ मंदिर हैं, जहा बीच में गरुड़जी विराजमान हैं. गरुड़ मंदिर के आगे चौकीदार मंदिर है. ये चारों मंदिर एक साथ बने हुए हैं.

मंदिर का निर्माण सुर्खी-चूना की सहायता से प्रस्तर के खण्डों द्वारा किया गया है तथा कार्निश एवं शिखर के निर्माण में पतली ईंट का भी प्रयोग किया गया था.

6 अगस्त, 1990 को मंदिर का पिछला हिस्सा ढह गया था, जिसका पुनर्निर्माण कर फरवरी, 1992 में मंदिर को भव्य रूप दिया गया. कलिंग शैली पर इस विशाल मंदिर का पुनर्निर्माण करीब एक करोड़ की लागत से हुआ है. इस मंदिर में प्रभु जगन्नाथ अपने बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ विराजमान हैं. एक ओर जहां अन्य मंदिरों में मूर्तियां मिट्टी या पत्थर की बनी होती है, वहीं यहां भगवान की मूर्तियां काष्ठ (लकड़ी) से बनी हैं. इन विशाल प्रतिमाओं के आस-पास धातु से बनी बंशीधर की मूर्तियां भी हैं, जो मराठाओं से यहां के नागवंशी राजाओं ने विजय चिह्न् के रूप में प्राप्त किये थे.