अंतरराष्ट्रीय उर्दू दिवस विशेष: गूँजे फ़ज़ा में हर-सू उर्दू ज़बाँ हमारी -

Story by  एटीवी | Published by  onikamaheshwari | Date 10-11-2022
अंतरराष्ट्रीय उर्दू दिवस विशेष: गूँजे फ़ज़ा में हर-सू उर्दू ज़बाँ हमारी -ज़ाहिद ख़ान
अंतरराष्ट्रीय उर्दू दिवस विशेष: गूँजे फ़ज़ा में हर-सू उर्दू ज़बाँ हमारी -ज़ाहिद ख़ान

 

ज़ाहिद ख़ान / नई दिल्ली 

9 नवम्बर, पूरी दुनिया में आलमी यौम-ए-उर्दू के तौर पर मनाया जाता है. ये ख़ूबसूरत और शींरी ज़बान अहम तौर पर दक्षिण एशिया में बोली जाती है. दुनिया भर में फ़िलवक़्त तक़रीबन 10 से 15 करोड़ लोग उर्दू बोलने वाले हैं.

भारत, पाकिस्तान, मॉरिशस, दक्षिण अफ़्रीका, बहरीन, फ़िजी, क़तर, ओमान, संयुक्त अरब अमिरात, यूनाइटेड किंगडम, जर्मनी, संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, ईरान, अफ़गानिस्तान, ताजिकिस्तान और उज़्बेकिस्तान वे देश हैं, जहां उर्दू भाषी लोग बड़ी तादाद में मिल जाते हैं. इनमें भी सबसे अधिक भारत में पांच करोड़ से ज़्यादा लोग उर्दू भाषी हैं.

इसके बाद पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में 1 करोड़ 87 लाख लोग इस ज़बान के बोलने वाले हैं. बांग्लादेश में 6 लाख 50 हजार लोग, तो संयुक्त अरब अमीरात-6 लाख और यूरोपीय देशों में सबसे ज्यादा ब्रिटेन में 4 लाख लोग उर्दू ज़बान के जानकार या बोलने वाले हैं.

उर्दू हमारे देश की शासकीय भाषाओं में से एक है, वहीं पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा है। देश के जम्मू—कश्मीर सूबे की उर्दू, मुख्य प्रशासनिक भाषा है. यही नहीं तेलंगाना, दिल्ली, बिहार और उत्तर प्रदेश की भी अतिरिक्त शासकीय भाषा है. पाकिस्तान के अनेक इलाकों, देश के उत्तरी हिस्सों, कश्मीर, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में बहुत से लोगों की मादरी ज़बान उर्दू है.

उर्दू का मिज़ाज एक मख़्सूस गंगा-जमुनी तहज़ीब, मेल-जोल, मुहब्बत और ख़ुलूस का रहा है. शायर अजय सहाब के उर्दू ज़बान के बारे में खूबसूरत अशआर हैं, ''इश्क़ का राग जो गाना हो मैं उर्दू बोलूँ/किसी रूठे को मनाना हो मैं उर्दू बोलूँ.'' उर्दू ज़बान, हिंदुस्तान में मुस्लिम हुक़ूमत के दौरान तुर्की सिपाहियों और मुक़ामी बाशिदों के बीच संवाद के सुविधाजनक माध्यम के तौर पर विकसित हुई.

''ख़ास हिन्दोस्तानी है उर्दू ज़बाँ/मेरी उर्दू ज़बाँ फ़ख़्र-ए-हिन्दोस्ताँ.''(बनो ताहिरा सईद) आगे चलकर यह ‘ज़बान—ए—उर्दू—ए—मुअल्ला’ यानी शाही पड़ाव की ज़बान कहलाई. शायर गुलाम हमदान मुशफी ने तक़रीबन 1780 में पहली मर्तबा उर्दू लफ़्ज़ का इस्तेमाल किया.

सूफ़ी शायर अमीर खुसरो ने इस ज़बान को हिंदी, हिंदवी या ज़बाने देहलवी के नाम से ख़िताब किया. यह ज़बान जब दक्षिण में पहुँची, तो दकिनी या दक्खिनी कहलाई, गुजरात में गुजरी यानी गुजराती उर्दू कही गई. दक्षिण के कुछ अदीबों ने इसे ज़बाने-अहले हिंदुस्तान यानी उत्तरी हिंदुस्तान के लोगों की ज़बान भी कहा.

जब शायरी, ख़ास तौर से ग़ज़ल के लिए इस ज़बान का इस्तेमाल हुआ तो इसे रेख्ता (मिली-जुली बोली) कहा गया. बाद में इसी को ज़बाने उर्दू, उर्दू-ए-मुअल्ला या सिर्फ़ उर्दू कहा जाने लगा. यूरोपीय लेखकों ने इसे आम तौर पर हिंदुस्तानी कहा है. मुहम्मद हुसैन आज़ाद, उर्दू की उत्पत्ति ब्रजभाषा से मानते हैं. अपनी अहमतरीन किताब 'आब—ए—हयात' में वे लिखते हैं, ''हमारी ज़बान ब्रजभाषा से निकली है.''

सच मायने में उर्दू, हिंदी का पूर्वगामी रूप है. फ़ारसी, अरबी, संस्कृत और अनेक स्थानीय बोलियों का मिश्रण है. जिस ज़बान को उर्दू कहा जाता है, उसमें 85 फ़ीसद लफ़्ज़ वे ही हैं जिनका आधार हिंदी का कोई न कोई रूप है. बाक़ी 15 फ़ीसद में फ़ारसी, अरबी, तुर्की और अन्य ज़बानों के लफ़्ज़ शामिल हैं. जो सामाजिक, सांस्कृतिक कारणों से मुस्लिम शासकों के ज़माने में स्वाभाविक रूप से उर्दू में घुल-मिल गए थे.

उर्दू ज़बान, पूरे तौर पर खड़ी बोली पर आधारित है. जिसका व्याकरण हिंदी के समान है. भाषा विज्ञान के आधार पर हिन्दी और उर्दू एक ही भाषा है. ''उर्दू हिन्दी प्यारी बहनें/प्यार का गहना दोनों पहनें.'' (जौहर रहमानी) सिर्फ़ इनकी लिपि अलग हैं.

नस्तालीक़ लिपि में लिखी गई हिन्दी ज़बान को ही दरअसल, उर्दू कहा जाता है. 1857 क्रांति के दौरान उर्दू प्रतिरोध की ज़बान बनकर उभरी. पत्रकारिता से लेकर तमाम क्रांतिकारी साहित्य इस ज़बान में लिखा गया. जिसका सबब अंग्रेज़ हुकूमत ने कई उर्दू अख़बारों पर पाबंदी लगा दी. उनको जब्त कर लिया.

उर्दू ज़बान में इतिहास, दर्शन के अलावा काफ़ी साहित्य लिखा गया है. उर्दू का अदब, दुनिया की दीगर ज़बानों से कमतर नहीं। अमीर खुसरो, उर्दू के शुरुआती शायर हैं. मुग़ल बादशाह शाहजहाँ के ज़माने में पंडित चन्द्रभान ने भी बाज़ारों में बोली जाने वाली इस अवामी ज़बान को आधार बनाकर अनेक बेशकीमती रचनाएँ कीं.

मुगल बादशाह शाहआलम (1759-1806 ई.) ख़ुद शायरी लिखते थे. यही वजह है कि उनके दौर में  अदीबों—शायरों को ख़ूब मौक़ा मिला. उनके दौर में जिन शायरों ने उर्दू अदब का सिर ऊँचा किया, उनमें अव्वल हैं मीर दर्द, मिर्ज़ा मोहम्मद रफ़ी सौदा और मीर तक़ी 'मीर'.

मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के ज़माने में भी उर्दू अदब ख़ूब फला—फूला. ज़ौक, मोमिन और ग़ालिब जैसे अज़ीम शायर उसी दौर के हैं. नस्र या गद्य की बात करें, तो मीर अम्मन की 'बाग़ो बहार' और हैदरी की 'आराइशे महफ़िल' उर्दू नस्र की इब्तिदाई किताबें हैं. उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में इंशा ने 'रानी केतकी की कहानी' ओर 'दरिया—ए—लताफ़त' जैसे अफ़साने लिखे. रजब अली बेग 'सुरूर' की किताब 'फ़साना-ए-अजाइब' को पढ़ने के लिए मुल्क में काफ़ी लोगों ने उर्दू सीखी. 

आगे चलकर सर सैयद अहमद, मौलाना अल्ताफ़ हुसैन हाली, नज़ीर अहमद और शिबली ने भी उर्दू अदब को अपनी तख़्लीक से मालामाल किया. इसी दौर में सरशार, शरर और मिर्ज़ा रुसवा जैसे नावेल निगार हुए और उनके नावेल पाठकों द्वारा खूब पसंद किए गए.

20 वीं सदी की शुरुआत से ही मुल्क में चारों और अवाम में वतनपरस्ती के जज़्बात आम थे. उर्दू पत्रकारिता और अदब में भी वतनपरस्ती की झलक दिखलाई देती है. इक़बाल, मौलाना हसरत मोहानी, ख़्वाजा हसन निज़ामी, राशिदुल ख़ैरी, मौलाना आज़ाद और प्रेमचंद के अदब में न सिर्फ़ मुल्क की आज़ादी के लिए छटपटाहट दिखलाई देती है, बल्कि वह अपनी रचनाओं से देशवासियों में एकता और भाईचारे के जज़्बात पैदा करते हैं.

तरक़्क़ीपसंद तहरीक वह तहरीक थी, जिसने उर्दू अदब का पूरा चेहरा बदल के रख दिया. जोश, फ़िराक़, फ़ैज़, मजाज़, अली सरदार जाफ़री, मख़दूम, वामिक़ जौनपुरी, कैफ़ी आज़मी, साहिर लुधियानवी, मुईन अहसन जज़्बी, अहमद नदीम कासमी जैसे आला दर्जे के शायरों और सज्जाद ज़हीर, कृश्न चंदर, सआदत हसन मंटो, राजिंदर सिंह बेदी, इस्मत चुगताई और ख्वाज़ा अहमद अब्बास जैसे अफ़साना निगारों की रचनाओं ने उर्दू को पूरी दुनिया में मक़बूल किया.

देशवासियों में आज़ादी की चाहत पैदा की. उनमें बेदारी फैलाई. आज भी ये शायर और अफ़साना निगार पूरी दुनिया में खूब पढ़े जाते हैं. पाठकों की इनके जानिब दीवानगी जरा सी भी कम नहीं हुई है.

एक दौर था जब हमारे मुल्क में उर्दू ज़बान को पढ़ना-लिखना पूरी सोसायटी में स्टेटस सिम्बल का काम माना जाता था, लेकिन आहिस्ता—आहिस्ता इस ज़बान को जानने—पढ़ने वाले कम होते जा रहे हैं. दीगर लोगों को तो छोड़ ही दीजिए, उर्दू जिसने हिंदुस्तानी मुसलमानों को एक ख़ास पहचान दी और जिसमें उनका मज़हबी, सांस्कृतिक साहित्य गोयाकि उनका सुनहरा अतीत क़लमबंद है.

उनकी प्राथमिकताओं की फे़हरिस्त में भी आज उर्दू के लिए कोई जगह नहीं है. उर्दू को अभी भी बचाया जा सकता है, यदि मां-बाप बच्चों को कम से कम अपने घरों में यह ज़बान सिखाएं. उन्हें उर्दू सीखने और अपनाने के लिए प्रोत्साहित करें. उर्दू ज़बान, हमारे मुल्क़ की गंगा-जमुनी तहज़ीब का अटूट हिस्सा रही है. हमारी जंग-ए-आज़ादी में हिस्सा लेने वाले अनेक लीडरों ने उर्दू को हिंदुओं और मुसलमानों को जोड़ने वाली बेहतरीन कड़ी बतलाया था.

उर्दू किसी मज़हब की नहीं, बल्कि हमारे मुल्क़ की ज़बान है. उर्दू ज़बान हमारा साझा विरसा है। लिहाज़ा इस मीठी ज़बान को सभी जगह फैलाने और इसकी हिफ़ाजत की ज़िम्मेदारी हम सभी की है. हमें यह ज़िम्मेदारी निभाने के लिए कोई कोर—कसर नहीं छोड़नी चाहिए.

अंतरराष्ट्रीय उर्दू दिवस के दिन यह अहद करें कि उर्दू ज़बान को फ़रोग़ देने के लिए हम हर मुमक़िन कोशिश करेंगे. ''हिन्दू हों या मुसलमाँ ईसाई हों कि सिख हों/उर्दू ज़बाँ के हम हैं उर्दू ज़बाँ हमारी/....'एजाज़' मिल के गाएँ उर्दू का सब तराना/गूँजे फ़ज़ा में हर-सू उर्दू ज़बाँ हमारी.''(एजाज़ सिद्दीक़ी)