राजीब दत्ता/शिवसागर
यदि डॉ भूपेन हजारिका को ब्रह्मपुत्र बार्ड के रूप में जाना जाता है, तो इमरान शाह असमिया साहित्य के नवाब हैं.अपने सशक्त लेखन के लिए मशहूर, यह मृदुभाषी और शर्मीले व्यक्ति असम के साहित्यिक दिग्गजों में से एक हैं.90 वर्षीय इमरान शाह हमेशा अपने चेहरे पर मुस्कान रखते हैं.अजनबियों को भी इसकी झलक दिखाते हैं.
2021 में पद्म श्री से सम्मानित, शब्दों के जादूगर, कवि, गीतकार, लेखक, उपन्यासकार, नाटककार, विद्वान और शिक्षाविद् इमरान शाह ने अपने कार्यों से असमिया साहित्य को समृद्ध किया है.
उन्हें आम तौर पर असम लेखन का नवाब कहा जाता है, लेकिन वह इशान दत्ता, अनामिका बरुआ, कुंभकर्ण और अनिमेष बरुआ उपनामों से भी लिखते हैं.उन्हें मागोर एजुकेशन ट्रस्ट द्वारा असम वैली लिटरेरी अवार्ड (2009), असम सरकार द्वारा अजान पीर अवार्ड (2008), साहित्यकार लक्ष्मीनाथ बेजबरूआ अवार्ड (2022), सब्दवा साहित्य अवार्ड, सैयद अब्दुल मलिक अवार्ड (2013) से भी सम्मानित किया गया है.
रंगपुर गौरव पुरस्कार (2016), बोर असोम समनॉय पुरस्कार (2021) और असमिया साहित्य में उनके योगदान के लिए और भी बहुत कुछ.उनके अब तक 19 उपन्यास, अनगिनत लघु कथाएँ और कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और कई पांडुलिपियाँ प्रेस में जाने के लिए तैयार हैं.
23 नवंबर 1933को ढाई अली, शिवसागर में जन्मे इमरान शाह असमिया साहित्य को समकालीन भारत में सर्वश्रेष्ठ मानते हैं.उनका कहना है कि अब तक तीन असमिया साहित्यकारों को भारत के सर्वोच्च साहित्यकार पुरस्कार,ज्ञानपीठ से सम्मानित किया जा चुका है.
यह गौरव अब तक किसी अन्य भारतीय भाषा को प्राप्त नहीं हुआ है.असम साहित्य सभा के पूर्व अध्यक्ष असमिया साहित्य को बढ़ावा न मिलने से निराश हैं.उनका मानना है कि जहां तक प्रकाशन की बात है तो असमिया साहित्य को अभी भी संरक्षण की कमी का सामना करना पड़ रहा है.'असमिया दिल और आत्मा से' सरकार द्वारा असमिया समाज में बहुसंख्यक, अल्पसंख्यक, स्वदेशी आदि विभाजन पैदा करने की कोशिश से भी नाखुश है.
आवाज़द वॉयस ने इमरान शाह से पूर्वी असम के शिवसागर शहर में उनके ढाई अली आवास पर मुलाकात की.अंश:
आरंभ करने के लिए, कृपया हमें बताएं कि किस चीज़ ने आपको कलम और कागज़ अपनाने के लिए प्रेरित किया?
इमरान शाह:यह सब मेरे स्कूल के दिनों (शिवसागर सरकारी एचएस और एमपी स्कूल में) के दौरान शुरू हुआ जब मैं अपने दोस्तों के लिए कविताएँ लिखता था.मैंने उनके लिए कई छोटी कविताएँ लिखीं.
हालाँकि, मैं उस समय कविता गंभीरता से नहीं लेता था. जल्द ही मुझमें आत्मविश्वास आ गया.मेरा पहला संकलन बनवशी (1951) तब प्रकाशित हुआ जब मैं नौवीं कक्षा में था.उनके सहपाठी लियाकत हुसैन प्रकाशक थे.10 वीं कक्षा में अपने दोस्तों से प्रेरित होकर, मैंने अपना पहला उपन्यास संगीतोर हखीपारे (1952, पुनः लियाकत हुसैन द्वारा प्रकाशित) लिखा.
मेरा कॉलेज जीवन शुरू होते ही, मैंने गंभीरता से लिखने के लिए कलम उठा ली.मेरी लघु कहानी 1957-58 में अत्यधिक प्रभावशाली असमिया साहित्यिक पत्रिका रामधेनु में प्रकाशित हुई थी.तब से मैं बिना रुके लिख रहा हूं.मुझे जो अच्छा लगता है मैं लिखता हूं .बदले में लोग मुझे बहुत प्यार देते हैं.
आपका अब तक का सबसे बेशकीमती काम कौन सा है.आपको यह इतना पसंद क्यों है?
इमरान शाह:मेरे पास कोई उत्तर नहीं है,क्योंकि मुझे अपनी सभी रचनाएँ बहुत पसंद हैं.यदि आप मुझसे पूछें कि आपकी पसंदीदा रचना कौन सी है, तो मैं कहूंगा कि मुझे मेरे द्वारा लिखी गई सभी लघु कथाएँ, उपन्यास और कविताएँ पसंद हैं.समसामयिक मनोविज्ञान के आधार पर मैं विविध विषयों पर लिखता रहता हूं.मैं इसका उत्तर नहीं दे सकता कि मेरा पसंदीदा कौन सा है.
आपको किस काम के लिए सबसे ज्यादा मेहनत करनी पड़ी और क्यों ?
इमरान शाह: मेरी सभी रचनाओं के लिए समान प्रयास की आवश्यकता थी.मुझे लिखने में कोई कठिनाई नहीं हुई.जब भी मैं खुद को खाली पाता हूं,अपनी स्याही और कागज लेकर बैठ जाता हूं.जब भी मेरे पास पर्याप्त संसाधन होते हैं, मैं अपनी आदत (लेखन) में शामिल हो जाता हूं.
क्या आपको लगता है कि मान्यताएँ समय पर मिलीं ? या देर हो गयी थी ?
इमरान शाह:मुझे ऐसा नहीं लगता.मैंने कभी पुरस्कारों और मान्यता के लिए नहीं लिखा.मेरी साहित्यिक उपलब्धियों के आधार पर मुझे लोगों द्वारा पुरस्कृत किया गया है.मेरा मूल्यांकन करने का अधिकार केवल पाठकों के पास सुरक्षित है.
जहां तक संख्या का सवाल है, एक छोटे समुदाय (असमिया मुस्लिम) से संबंधित होने के नाते, आप असम में साहित्य के शिखर पर पहुंचने के बारे में कैसा महसूस करते हैं?
इमरान शाह:इस प्रश्न ने मुझे दुःख पहुँचाया है.मैं न तो अल्पसंख्यक और न ही बहुसंख्यक हूं. मैं दिल और आत्मा से असमिया हूं.मुझे केवल मेरे नाम के लिए ही क्यों चुना जाना चाहिए? व्यक्तिगत आस्था है धर्म.
मैं हमेशा अपने आप को अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के विभाजन से दूर रखता हूं. इस प्रकार का विभाजन समाज को हानि पहुँचाता है.वर्तमान में यह हमारी पाठ्यपुस्तकों में भी शामिल है.यह असमिया समुदाय और समाज के साथ अपूरणीय अन्याय है.इस प्रश्न का कोई भी उत्तर हमारे समाज को गुमराह कर सकता है.
क्या असम साहित्य सभा के अध्यक्ष पद पर आसीन होने के दौरान आपको किसी प्रकार की बाधा का सामना करना पड़ा ?
इमरान शाह:मेरे असम साहित्य सभा का अध्यक्ष बनने में कोई दिक्कत नहीं थी. मेरा नाम किसी ने प्रस्तावित किया था. तब तक मैं एक ऐसा व्यक्ति था जो अपने घर से बाहर नहीं निकलता था.मैंने कभी प्रचार या पैरवी नहीं की. मैं बहुमत से अध्यक्ष चुना गया,जो निस्संदेह मेरे काम की एक बड़ी पहचान है.
समकालीन भारतीय साहित्य पर आपकी क्या राय है ?
इमरान शाह:बहुत उज्ज्वल, असमिया साहित्य प्रकाशकों की कमी के कारण पिछड़ रहा है.कोई प्रकाशक ही नहीं! लेखक स्वयं प्रकाशित कर रहे हैं.असम में बड़ी संख्या में कॉलेज और विश्वविद्यालय हैं.
मुझे समझ नहीं आता कि वे संस्थाएं प्रकाशन के लिए आगे क्यों नहीं आतीं.मेरी एक कहानी एतुकु दुख का हिंदी अनुवाद बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर डॉ. चार्बे ने किया था.तीन महीने के बाद, कहानी का अंग्रेजी में अनुवाद ए पीस ऑफ सैडनेस शीर्षक के साथ किया गया.
बाद में इसका बंगाली, तेलुगु, तमिल, मलयालम और दुनिया की अन्य भाषाओं में अनुवाद किया गया.मेरी लघु कहानियों के अलावा मोरम, युधा और अन्य चयनित कहानियाँ विभिन्न भारतीय भाषाओं में प्रकाशित हुईं.आप देखिए अगर मेरी या सैयद अब्दुल मलिक और सौरव चालिहा की कृतियों का विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो जाए तो असमिया भाषा को बहुत लाभ हो सकता है.
आपके अनुसार असमिया साहित्य को समकालीन भारतीय साहित्यिक परिदृश्य में कहाँ रखा गया है ?
इमरान शाह:यह निश्चित रूप से नंबर एक है. आप जानते हैं कि ज्ञानपीठ भारत का सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार है और इसे तीन असमिया लेखकों, बीरेंद्र कुमार भट्टाचार्य, डॉ मामोनी रोइसोम गोस्वामी उर्फ इंदिरा गोस्वामी और नीलमणि फुकन को प्रदान किया गया है.तो फिर हम हीन भावना से क्यों ग्रस्त हैं? क्या कोई हमसे वह पद छीन सकता है?
असमिया साहित्य कैसे आगे बढ़ सकता है ?
इमरान शाह:हमारी प्रकाशन एजेंसियाँ बहुत कमज़ोर हैं.प्रकाशित करने के लिए कोई प्रकाशक नहीं है .इससे असमिया साहित्य का विकास हो सकता है.वे सिर्फ बिजनेस करते हैं. विकसित देशों में, विश्वविद्यालयों के पास अपने प्रकाशन होते हैं.
हमारे देश में इसकी कमी है.ब्रिटिश शासन के दौरान भी, पहले असमिया डॉक्टरेट डॉ. मोइदुल इस्लाम बोरा की पीएचडी थीसिस, असम के तत्कालीन शिक्षा विभाग द्वारा प्रकाशित की गई थी.विकसित देशों में साहित्य को संरक्षण देने की संस्कृति है जिसका हमें अनुकरण करना होगा.
हालाँकि असम की आबादी में 34%से अधिक मुस्लिम हैं, लेकिन संख्या के हिसाब से असमिया मुस्लिम समुदाय अभी भी नगण्य अल्पसंख्यक है.वर्तमान असम सरकार ने असमिया मुसलमानों के 5 जातीय समूहों को स्वदेशी के रूप में मान्यता दी है.इस पर आपकी क्या राय है? सरकार को समुदाय के विकास को किस प्रकार आगे बढ़ाना चाहिए ?
इमरान शाह: मैं अन्यथा सोचता हूं. जो लोग इन मुद्दों से चिंतित हैं, उन्हें इसका समाधान करने दीजिए.' मैं इस मुद्दे से उत्पन्न होने वाले किसी भी प्रकार के संघर्ष में कभी भाग नहीं लेता.कभी भी बहुसंख्यक, अल्पसंख्यक या स्वदेशी होने का दावा नहीं करूंगा.
मेरे पुरखे यहीं आसामी रहते-रहते गुजर गये.मैं भी दिल से खुद को असमिया मानता हूं.खासकर अल्पसंख्यकों के लिए सरकार को कोई पहल नहीं करनी चाहिए. उन्हें सभी समुदायों के लिए सर्वांगीण विकास प्रक्रिया का हिस्सा बनाया जाना चाहिए.तब सभी का कल्याण होगा.