कश्मीरी शॉल का इतिहास: मुस्लिम धर्म प्रचारकों की देन

Story by  ओनिका माहेश्वरी | Published by  onikamaheshwari • 1 Years ago
कश्मीरी शॉल का इतिहास: कश्मीर में शॉल बुनाई मुस्लिम धर्म प्रचारकों की देन
कश्मीरी शॉल का इतिहास: कश्मीर में शॉल बुनाई मुस्लिम धर्म प्रचारकों की देन

 

ओनिका माहेश्वरी / नई दिल्ली 

आधुनिक इतिहासकार दावा करते हैं कि कश्मीर में पश्मीना शाल बुनाई मुस्लिम धर्म प्रचारकों की देन है. कश्मीर में इसे एक उद्योग की तरह विकसित करने का श्रेय 15वीं शताब्दी के सुल्तान जैन उल आबदीन को दिया जाता है. उसने तुर्कीस्तान से कारीगरों को कश्मीर बुलाया था. 

ईसा पूर्व तीसरी सदी अैर इसा बाद 11वीं सदी के एतिहासिक दस्तावेजों में शाल बुनाई का जिक्र मिलता है. कश्मीरी पश्मीना शाल की लोकप्रियता और गुणवत्ता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि नेपोलियन बोनापार्ट ने भी अपनी महारानी को इसे उपहार में दिया था.
 
स्वतंत्रता पूर्व ब्रिटेन की महारानी को भी कश्मीरी पश्मीना शाल भेंट किए जाते रहे हैं. अपनी गर्मजोशी, हल्के वजन और विशेषता बूटा डिजाइन के लिए मूल्यवान, कश्मीर शॉल व्यापार ने वैश्विक कश्मीरी उद्योग को प्रेरित किया.
 
शॉल 13वीं शताब्दी में अपने उच्च-श्रेणी, सार्टोरियल उपयोग में विकसित हुआ और 16 वीं शताब्दी में मुगल और ईरानी सम्राटों द्वारा व्यक्तिगत रूप से और उनके दरबार के सदस्यों को सम्मानित करने के लिए इस्तेमाल किया गया था. 
 
 
 
18 वीं शताब्दी के अंत में, यह ब्रिटेन और फिर फ्रांस में पहुंचा, जहां रानी विक्टोरिया और महारानी जोसेफिन द्वारा इसके उपयोग ने इसे विदेशी विलासिता और स्थिति के प्रतीक के रूप में लोकप्रिय बनाया. अकबर भी शाहतोश शॉल के प्रति अपने प्रेम के लिए भी जाने जाते थे.

19वीं सदी में फ्रांस
 
कश्मीर शॉल पहली बार 1790 में फ्रांसीसी फैशन पत्रिकाओं और चित्रों में दिखाई दिया, लेकिन मिस्र और सीरिया (1798-1801) में फ्रांसीसी अभियान के बाद ही महत्वपूर्ण मात्रा में आया.
 
 
इस फ्रांसीसी फैशन प्लेट में दाईं ओर की महिला कश्मीर शॉल के कपड़े से बना गाउन और सफेद दस्ताने और सफेद सैंडल के साथ एक सेब-हरा कश्मीर शॉल पहनती है.

 
19वीं सदी में अमेरिका
 
जिस समय ब्रिटेन में कश्मीर शॉल फैशन बन गया, संयुक्त राज्य अमेरिका के पूर्वोत्तर तट पर यूरो-अमेरिकी महिलाओं ने उन्हें पहनना शुरू कर दिया. संयुक्त राज्य अमेरिका में शॉल फैशन ने पश्चिमी यूरोपीय फैशन प्रवृत्तियों का पालन किया.
 
1860 के दशक में शॉल लोकप्रिय अवकाश उपहार थे और 1870 में भारतीय शॉल को बुद्धिमान खरीद माना जाता था. 1880 के दशक और प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) के बीच, धनी यूरोपीय और यूरो-अमेरिकी महिलाओं ने कश्मीर शॉल का उपयोग पियानो पर सजावटी टुकड़ों के रूप में खुद के बजाय करना शुरू कर दिया.
 
17वीं और 18वीं शताब्दी में कश्मीर में राजनीतिक उथल-पुथल ने शॉल व्यापार को बाधित कर दिया. कश्मीर अफगान और बाद में सिख शासन के अधीन आया.
 
1819 में पंजाब के रणजीत सिंह ने कश्मीर पर विजय प्राप्त की 1840 के दशक में रणजीत सिंह के दरबार को कश्मीर शॉल और शॉल के कपड़े से भव्य रूप से सजाया गया था.
 
उन्होंने कश्मीरी बुनकरों को पंजाबी शहरों में बसने के लिए प्रोत्साहित किया और अपने अनुयायियों को भत्ते देने, सम्मान के वस्त्र देने और अंग्रेजों सहित अन्य शासकों को उपहार भेजने के लिए कश्मीर शॉल के कपड़े का इस्तेमाल किया.
 
 
मशीन की बुनाई के कारण, इन शालों को बुनने में लगने वाला समय काफी कम हो गया और इसी तरह उनकी लागत भी कम हो गई. कश्मीर में कश्मीरी उद्योग को नुकसान हुआ.
 
प्रतियोगिता में वापस आने के प्रयास में, कश्मीर के बुनकरों ने पैस्ले डिजाइनों की नकल करना शुरू कर दिया. मशीन-बुनाई की गति की बराबरी करने के लिए वे पहले की गुणवत्ता को बनाए नहीं रख सके.
 
इसके परिणामस्वरूप कश्मीर शॉल उद्योग का पतन हुआ. 20वीं शताब्दी के मध्य में, सरकार ने एक बार सफल रहे इस उद्योग को पुनर्जीवित करने के लिए उपाय करना शुरू कर दिया.
 
 
जानें भारत में क्यों बैन है शहतूश शॉल
जानकारी के मुताबिक, साल 1975 में आईयूसीएन ने शहतूश शॉल को बैन कर दिया था. इसके बाद भारत ने भी 1990 में इस शॉल पर प्रतिबंध लगा दिया था. हालांकि बैन के बाद भी कश्मीर में इसकी बिक्री होती थी, लेकिन 2000 में यहां भी इस शॉल पर प्रतिबंध लगा दिया गया.
 
कई संगठनों ने चिंता जताई थी कि शहतूश शॉल के कारोबार के कारण चिरू खत्म हो रहे हैं. इन्हें विलुप्त से बचाने के लिए यह कदम उठाया गया.
 
 
इंटरनेशनल मार्केट में इस शॉल की कीमत 500 से लेकर 20 हजार डॉलर तक हो सकती है. यानी एक शॉल के लिए आपको 15 लाख रुपये तक देना पड़ सकता है. माना जाता है कि मुगल सम्राट अशोक को इस शॉल के काफी लगाव था. पुराने जमाने में शहतूश शॉल स्टेटस सिंबल हुआ करता था.